
हर शब्द की दर्दनाक क़ीमत चुकाने वाला लेखक: Ngugi wa Thiongo
त्रासदियों को सिर्फ़ दर्ज करने वाले नहीं बल्कि भोगने वाले लेखक रहे न्यूगी वा तीयोंगो (5.1.1938-29.5.2025)। जब वह छोटे थे तब उनका छोटा-सा देश केन्या ब्रितानियों की कॉलोनी था। उनके बचपन में उनके एक भाई को गोली मार दी गयी थी, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह बहरा था और अंग्रेज़ अफ़सर का हुक्म नहीं सुन सका था। उनकी पीड़ाओं की दास्तान बहुत लंबी रही। नैरोबी विश्वविद्यालय की नौकरी जाना, जेल में क़ैद किया जाना, कई साल के लिए निर्वासित किया जाना.. यह सब सज़ा के तौर पर उन्होंने झेला और इसके अलावा, उनके साथ लूटमार हुई, उन पर हमले हुए और तो और उनकी पत्नी के साथ यौन दुर्व्यवहार तक किया गया।
सुधन्वा देशपांडे ने अपने लेख में लिखा है कि शायद ही कोई ऐसा लेखक रहा हो, जिसने अपने लेखन के लिए इतनी भारी क़ीमत चुकायी हो। क़ीमत चुकाने की यह दास्तान बहुत दर्दनाक रही और यह सूची बहुत लंबी। न्यूगी ऐतिहासिक माउ माउ विद्रोह काल से गुज़रे थे, जिसके दौरान उनके गांव, लिमुरु को अंग्रेज़ फ़ौज ने तबाह कर दिया था। उनकी मां को गिरफ़्तार किया गया था और तीन महीने एकांत कारावास में डाल दिया गया था।
सुधन्वा के अनुसार इन तमाम ज़्यादतियों ने न्यूगी के मन में उपनिवेशवाद और अधिनायकवाद के लिए ज़हर भर दिया। फिर वह मार्क्सवाद की तरफ़ मुड़े और अपनी रचनात्मकमता को पंख लगाये। उन्होंने जेल में कई किताबें तो लिखीं ही, उन्होंने अपनी भाषा के बारे में तरतीब से सोचने और अपने लेखन का भविष्य तय करने के फ़ैसले भी जेल में ही लिये।
श्रीविलास सिंह ने अपने लेख में उल्लेख किया है कि उन्होंने 2006 में गार्डियन को दिये एक साक्षात्कार में कहा था, ‘जेल में मैंने भाषा के संबंध में अधिक व्यवस्थित तरीक़े से सोचना शुरू किया। पहले जब मैं अंग्रेज़ी में लिखता था, आख़िर तब मुझे क्यों नहीं गिरफ्तार किया गया।” नैरोबी में अध्यापन के दौरान उन्होंने “अंग्रेज़ी साहित्य विभाग” के नाम को बदलकर केवल “साहित्य विभाग” करने का सुझाव दिया। ताबान लो लियोंग और लेखक अन्युबा के साथ मिल कर उन्होंने इस संबंध में एक घोषणापत्र तैयार किया। अंग्रेज़ी विभाग को इस तरह समाप्त किये जाने की बात ने एक वैश्विक बहस की शुरूआत की। उनका और उनके साथियों का प्रश्न था, ‘यदि एक एकल संस्कृति की ऐतिहासिक निरंतरता के अध्ययन की आवश्यकता है, यह संस्कृति अफ्रीकी क्यों नहीं हो सकती? अफ्रीका का साहित्य केंद्र में क्यों नहीं हो सकता, ताकि हम अन्य संस्कृतियों को इसके साथ संबंधों के रूप में समझ सकें।”
भाषा का चुनाव
सत्रह साल तक अंग्रेज़ी में लेखन के बाद 1977 में, न्यूगी ने अपनी मातृभाषा गिकुयू का रुख़ किया। यह फ़ैसला बड़ा था, मुश्किल था क्योंकि अंग्रेज़ी में लिखकर वह व्यापक संसार तक पहुंच सकते थे जबकि गिकुयू जैसी भाषा में तो पत्रिकाओं, समाचार पत्रों और प्रकाशकों तक का संकट था। भले ही अंग्रेज़ी तब किसी क़ैद की तरह थी लेकिन एक व्यापक विश्व का द्वार भी थी।
अफ़्रीकी लेखकों में इस विरोधाभास और अपराध बोध को पहले भी महसूसा जा चुका था। सुधन्वा बताते हैं कि न्यूगी के पूर्ववर्ती समकालीन, नाइजीरियाई उपन्यासकार चिनुआ अचेबे (1930-2013) ने कहा था, “क्या यह सही है कि कोई व्यक्ति किसी और की भाषा के लिए अपनी मातृभाषा को छोड़ दे? यह एक भयानक विश्वासघात की तरह लगता है और एक अपराध बोध पैदा करता है।” हालाँकि उन्होंने इस अंग्रेज़ी को अफ़्रीकी परिवेश की नयी अंग्रेज़ी भाषा बनाने की तरफ़ लेखकों को प्रेरित किया था।
न्यूगी इससे एक क़दम और आगे सोच रहे थे। उनके विचार में –
“भाषा सबसे महत्वपूर्ण साधन थी जिसके माध्यम से [औपनिवेशिक] सत्ता आत्मा को मोहित करती थी और उसे बंदी बनाती थी। गोली से आपको शारीरिक ग़ुलाम बनाया जा सकता था लेकिन भाषा से आपकी चेतना को… भाषा का रद्दोबदल ही इकलौता उपाय था। लेकिन भाषा का, किसी भी भाषा का चरित्र दो स्तरीय होता है: एक संप्रेषण के स्तर पर और दूसरा संस्कृति के वाहक के स्तर पर।”
उन्होंने मातृभाषा चुनी और गिकुयू में पहला नाटक लिखा, I Will Marry When I Want (न्यूगी वा मिरी के साथ मिलकर), इसके बाद उनका उपन्यास Devil on the Cross आया। फिर संगीत नाटक Mother Sing for Me चर्चित हुई और फिर Wizard of the Crow। गिकुयू में उनके पहले नाटक को प्रतिबंधित कर दिया गया था।
नहीं मिल सका नोबेल
जब न्यूगी भारत यात्रा पर आये थे तब 2018 में सुधन्वा देशपांडे ने उनके साथ समय बिताया था और लंबी चर्चाएं की थीं। वह बताते हैं कि उन्होंने तब पूछा था कि कहते हैं कि जेल में आपने टॉयलेट पेपर पर साहित्य रचा, ऐसा कैसे संभव हुआ क्योंकि उस तरह के पेपर पर लिख पाना बड़ा ही मुश्किल लगता है। तब न्यूगी का जवाब था, “जेल में हमें टॉयलेट पेपर के नाम बड़ा ही खुदरा, सख़्त और मोटा कागज़ दिया जाता था ताकि हमारे नितंब ज़ख़्मी हो जाएं, मैंने उसका इस्तेमाल उनके नितंबों को घायल करने के लिए किया।”
तमाम ख़बरों और लेखों की मानें तो न्यूगी अफ़्रीका के महान लेखकों में शुमार थे, जिन्होंने विश्व साहित्य को एक अनूठी विरासत सौंपी। इसी कारण वह लगातार नोबेल पुरस्कार के संभावित उम्मीदवारों में बने रहे। लेकिन 29 मई 2025 को जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तब तक भी वह नोबेल विजेता नहीं बन सके।
—आब-ओ-हवा डेस्क
बढ़िया आलेख है। भाषा के माध्यम से व्यक्ति की चेतना को गुलाम बनाने की भरसक कोशिश तो अब और तेज हो चुकी है। अब यह कोशिश बिल्कुल जड़ से यानी प्राथमिक शिक्षा से ही की जा रही है और इस तरह से कि प्रदर्शित भी नहीं किया जा रहा। यह सब प्राथमिक शिक्षा में एन जी ओ के माध्यम से किया जा रहा है।
आप उनकी कोई रचना प्रकाशित करेंगे , आशा है।