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कविता, लोकप्रियता और ब्राह्मणवाद-1

               हिन्दी गद्य कविता के बड़े कवि, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल कभी चर्चा में थे, किन्तु लम्बे समय से कहीं चर्चा में नहीं थे। छत्तीसगढ़ में रहते हैं, जहाँ नक्सलवादी आंदोलन अपने चरम पर रहा है। तब भी, विनोद कुमार शुक्ल का लेखन समाज और राज्य को पूरी तरह प्रभावित करने वाली इस समस्या से निरपेक्ष रहा है। अभी 2025 का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलते ही अचानक हिन्दी साहित्य की चर्चा के केन्द्र में आ गये-से लगते हैं। इस बीच एक ख़बर ज़ोरों से फैली कि हिन्द युग्म प्रकाशन विनोद कुमार शुक्ल को उनकी किताबों से बिकने पर मिलने वाली वार्षिक रायल्टी लाखों रुपये में देता है। यह बात प्रकाशक ने अंजुम शर्मा को दिये साक्षात्कार में कही है। बाद में राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी से बात करते हुए यह बात अंजुम शर्मा ने फिर दोहरायी। यद्यपि इस बात पर अशोक माहेश्वरी ने भी विश्वास कर लिया है, उनकी प्रतिक्रिया से ऐसा बिल्कुल नहीं लगा। बल्कि संदेह ही प्रकट हुआ है।

यदि आज किसी हिन्दी कवि को एक वर्ष की रायल्टी लाखों में मिल रही है, तो यह एक उम्मीद जगाने वाली बात है। उम्मीद जगाने वाली इसलिए कि यदि लोग पढ़ते रहेंगे, तो  उन तक विचार न सिर्फ़ संप्रेषित किये जा सकते हैं, बल्कि पाठक के भीतर भी विचारों के स्रोत फूटते रहेंगे। विचारों के स्रोत फूटना और बने रहना मनुष्यता के लिए लड़ने वालों के पैदा होने की गारंटी है। इस बीच इतनी अधिक रायल्टी मिलने पर भी प्रश्न उठ रहा है। प्रश्न उठना और उठाना ठीक है और ज़रूरी भी है। यह प्रकाशक द्वारा किताबों की बिक्री बढ़ाने का शिगूफ़ा भी हो सकता है। यदि किताबों की इतनी अधिक बिक्री होना सच भी है, तो यह देखना बहुत ज़रूरी है कि इनका ख़रीदार कौन है। यह आम पाठक होगा, ऐसा तो नहीं लगता। क्योंकि विनोद कुमार शुक्ल की लोकप्रियता की स्थिति ऐसा मानने नहीं देती।

रायल्टी पर उठे प्रश्न में लेखक की जाति को भी जोड़ लिया गया! यह अकेले विनोद कुमार शुक्ल ही नहीं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर निराला तक को लपेट लिया गया! लेकिन, निराला को ब्राह्मण लेखक के रूप में पहचानना! यह मानसिकता की विकृति को दिखाता है। टैगोर को क्यों छोड़ दिया! वे भी दलित तो नहीं थे। निराला को ब्राह्मण लेखक के रूप में भी कभी पहचाना गया है? यह तो मैंने पहली बार ही जाना! निराला का ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ पढ़ना चाहिए और यदि पढ़ने के बाद भी ऐसा ही सोचते हैं, तो इसका अर्थ है, कि यह किसी कुनबे का मुखिया बनने की दुर्लालसा से उपजी राजनीति से अधिक कुछ भी नहीं।

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मुझे लगता है कि कभी पुरुष लेखक विमर्श, ब्राह्मण लेखक विमर्श जैसी चीज़ हुई नहीं। लेखन का सम्बन्ध दरअसल शिक्षा से जुड़ा है। जैसे-जैसे लोग हर तरह के समाज में शिक्षित होते गये, जागरूकता आती गयी, तो उनकी अपनी समस्याओं स्थितियों पर भी लेखन होने लगा। यह बहुत ज़रूरी भी था और हमेशा रहेगा। किन्तु वास्तव में ब्राह्मण जाति का होना कम समस्या है, असली समस्या ब्राह्मणवाद है, जो हर जाति के भीतर है। किसी समाज में धर्म के आधार पर है, तो किसी समाज में नस्ल के आधार पर, गोरे-काले के आधार पर है। लैंगिक आधार पर तो पूरी दुनिया में हर वर्ग के भीतर है। साहित्य में पश्चिम का पूरा प्राचीन साहित्य नस्लवाद और लैंगिक भेद से ग्रस्त दिखायी पड़ता है। भारतीय संदर्भों और विशेषकर हिन्दी साहित्य की बात करें, तो सबसे बड़ा ब्राह्मणवाद कविता की आलोचना में आया। जिस तरह पैसे वाला ग़रीब को आदमी ही नहीं मानता, उसी तरह कविता का आलोचक गद्य कविता के आलावा किसी और तरह की कविता को कविता ही नहीं मानता। परिणाम सबके सामने है। पिछले सत्तर साल से जिसे कविता कहा जा रहा है, उसकी उपस्थिति समाज में शून्य है। और विनोद कुमार शुक्ल भी उसी गद्य कविता के कवि हैं। पाठ्यक्रम में जिन्होंने पढ़ा है, उनके सिवा उनकी कविता पढ़ने और उन्हें जानने वाले सामान्य पाठक कहीं नहीं मिलेंगे। समाज में आज भी कबीर, तुलसी, रैदास, मीरा, सूर, निराला और पंत जैसे कवियों की कविता ही है। तो इस ब्राह्मणवाद की भी चर्चा साहित्य की दृष्टि से ज़रूरी है।
क्रमश:

राजा अवस्थी

राजा अवस्थी

सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।

1 comment on “कविता, लोकप्रियता और ब्राह्मणवाद-1

  1. सामयिक बातों पर चर्चा विचार चिंता असहमति एवं दिशा-दर्शन एक विद्वान साहित्यकार का दायित्व निभाया जाना स्पष्ट परिलक्षित है।
    अकाट्य सुव्यवस्थित तर्कों ने , साहित्य जगत में जो नहीं होना चाहिए ऐसे विचार को दृढ़ता से निरस्त किया है।

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