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कविता, लोकप्रियता और ब्राह्मणवाद-2

…पिछले अंक से जारी

            पिछले सत्तर साल से जिसे कविता कहा जा रहा है, उसकी उपस्थिति समाज में शून्य है। और विनोद कुमार शुक्ल भी उसी गद्य कविता के कवि हैं। पाठ्यक्रम में जिन्होंने पढ़ा है, उनके सिवा उनकी कविता पढ़ने और उन्हें जानने वाले सामान्य पाठक नहीं मिलेंगे। समाज में आज भी कबीर, तुलसी, रैदास, मीरा, सूर, निराला और पंत जैसे कवियों की कविता ही है। तो इस ब्राह्मणवाद की भी चर्चा साहित्य की दृष्टि से ज़रूरी है।

           अब यदि किसी लेखक का जन्म ब्राह्मण परिवार में हो गया, तो उसे अस्पृश्य मान लेना चाहिए? यदि उसका नाम लिया गया, तो उसका कारण उसका ब्राह्मण होना मानना चाहिए? उसके लेखन को संज्ञान में रखना आवश्यक नहीं है?

           जो भी ऐसी बातें कर रहे हैं, वे ही रामचंद्र शुक्ल से बड़ी लकीर खींचकर दिखा दें! या किसी ने खींची हो! उसका ही नाम बता दें। आचार्य शुक्ल से कई मामलों में असहमति हो सकती है। आगे अनुसंधान के लिए असहमति अनिवार्य और प्राथमिक शर्त है। किन्तु, असहमत होते ही असहमत व्यक्ति उससे बड़ा नहीं बन जाता, जिससे वह असहमति व्यक्त करता है।

          निराला की ख्याति उनके ब्राह्मण होने के कारण नहीं है। उनका रचना संसार, उनकी रचना-दृष्टि ही उनकी ख्याति का कारण है। मुक्तिबोध को क्या कहेंगे। और परसाई! वे भी ब्राह्मण होने के कारण चर्चा में हैं? और नमिता जी भी तो जन्म से ब्राह्मण ही हैं! राजेश जोशी, अशोक बाजपेई, और दलितों पर सबसे अधिक प्रमाणिकता से लिखने वाले बजरंग बिहारी तिवारी! इन सबको भी ख़ारिज कर दीजिए। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नंद दुलारे बाजपेई, रामविलास शर्मा तो ख़ारिज होंगे ही। और ब्राह्मण ही क्यों? क्षत्रिय भी शामिल कर लीजिए। फिर नामवर जी, विजय बहादुर सिंह जी जैसे कई लोग आ जाएँगे। बनियों को भी मिलाया जा सकता है। ऐसी टुच्ची बातें करने के लिए राजनीति में बहुत लोग हैं। वहाँ यही चलता है। साहित्य में ऐसा करने के लिए तर्क, वास्तविकता और यथार्थ को समझने की ज़रूरत होती है। लेखक और लेखन पर बात करने के लिए टुच्चापन छोड़ना पहली शर्त है। ब्राह्मण होने से लेखक अश्पृश्य नहीं हो जाता। उसका मूल्यांकन उसके लेखन से होना चाहिए। परिवार के, समाज के और जाति के प्रभाव होते हैं, किन्तु कोई भी व्यक्ति इनसे उबरकर ही लेखक बनता है।

           दरअसल जाति एक विशिष्टता होती है। सभी जातियों में होती है। लेखक होते ही कोई व्यक्ति भी एक विशिष्टता प्राप्त करता है। फिर उसकी पहचान जाति से उतनी नहीं होनी चाहिए, जितनी लेखक होने से। एक बात और लेखक के जीवित रहते तक तो जाति के रूप में भी उसके मान-अपमान में उसकी जाति का परोक्ष प्रभाव बना रहता है, किन्तु उसके मरने के बाद उसका लेखन ही बचता है और उसका मूल्यांकन भी फिर लेखन के आधार पर होता है। अभी बहुत लोग जाति और लिंग को आधार बनाकर लेखन, शोध, विमर्श में लगे हैं। समय की अपनी माँग होती है। यह भी है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि साहित्य को देखने का एकमात्र नज़रिया यही है। अंतिम सत्य कुछ नहीं होता। विज्ञान की मान्यता यही है। समय के साथ दृश्य और दृष्टि के परिपेक्ष्य भी बदलते हैं।

राजा अवस्थी

राजा अवस्थी

सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।

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