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पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-4
साध्य-साधन
5 जनवरी, 2014
रविवार की सुबह अभी अपनी नींद से धीरे-धीरे जाग रही थी, जब मित्र मोहन मंगलम् का फ़ोन आया। उनकी आवाज़ में एक गहरी चिंता थी, जैसे कोई पुराना गीत बदलते वक़्त की धुन में कहीं खो गया हो। हमने बात शुरू की और ज़ल्द ही उनके शब्दों ने मेरे मन को एक गहरे समुद्र में डुबो दिया। वे बदलते परिवेश से व्यथित थे – जीवन का ध्येय, जो कभी आकाश की तरह असीम और स्पष्ट था, अब धूल-धूसरित रास्तों में भटक रहा है।
भारतीय दर्शन की प्राचीन गलियों में, जीवन के चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमारे लिए सितारों की तरह चमकते थे। ये न सिर्फ़ लक्ष्य थे, बल्कि जीवन की साँस, उसका संगीत। धर्म हमें नैतिकता का आलिंगन देता, अर्थ जीवन को संबल, काम इच्छाओं को पंख, और मोक्ष आत्मा को मुक्ति का आलोक। ये साध्य थे, हमारे पूर्वजों के लिए जीवन का मर्म, उनके हृदय की धड़कन।
लेकिन मोहन की बातों ने जैसे एक कड़वा सच उजागर किया। आज ये चारों पुरुषार्थ, जो कभी सूरज की तरह हमारे रास्ते रोशन करते थे, अब मात्र साधन बनकर रह गये हैं। धर्म अब रस्मों की किताब में सिमट गया, अर्थ लोभ की भूलभुलैया में उलझा, काम क्षणिक वासना का पर्याय बन गया, और मोक्ष? वह तो जैसे आधुनिक जीवन की भागदौड़ में कहीं गुम हो गया।
मोहन की चिंता मेरे मन में एक बेचैन लहर बनकर टकरायी। क्या हमने अपने जीवन के साध्य को साधन समझकर खो दिया? क्या हमारी आत्मा अब भी उन सितारों को खोजती है, जो कभी हमारे आकाश में टिमटिमाते थे? यह सुबह, यह बातचीत, मेरे लिए जैसे एक दर्पण। शायद हमें रुककर पूछना होगा- हम कहाँ जा रहे हैं, और क्या वह मंज़िल हमारी आत्मा की पुकार है?
सार्वभौमिक
सुबह की मुलायम धूप में जैन मंदिर के सामने वाली बेंच पर बैठा वह बूढ़ा मुझे दूर से ही खींच ले गया। उसकी आँखें—उदास, गहरी, मानो समय की सिलवटों में उलझी कोई अनकही कहानी छिपाये हों। मैं पास गया, कुछ पूछा, और उनकी आवाज़, काँपती पर भारी, मेरे भीतर उतर आयी।
“अब क्या छुपाऊँ, बाबू?” उन्होंने ठंडी साँस छोड़ते हुए कहा। “बेटा-बहु आये-दिन मुझे यहीं बेंच पर बिठाकर चले जाते हैं। गरम ख़ून है अभी उनका, दुनिया की चकाचौंध में खोये हैं।”
उनके शब्द हवा में तैरते रहे, जैसे सूखे पत्ते जो पेड़ से बिछड़कर भी अपनी कहानी सुनाते हैं। उनकी आँखों में मैंने देखा- एक पुराना घर, जिसके आँगन में कभी बच्चों की किलकारियाँ गूँजती थीं, अब ख़ामोश कोनों में सिर्फ़ साये ठहरते हैं। वह बेंच, मंदिर की शीतल छाँव में, उनकी दुनिया का आख़िरी ठिकाना बन गयी थी।
उनकी उदासी एक दर्पण थी, जिसमें मैंने अपने समय का चेहरा देखा- जहाँ रिश्तों की गर्माहट ठंडी पड़ रही है, और मनुष्य की भागदौड़ में अपनों का वज़न हल्क़ा होता जा रहा है। मैं चुपचाप उनके पास बैठ गया, जैसे उनकी खामोशी को थाम सकूँ।
रास्ता
रास्ते ख़ुद कहीं नहीं आते-जाते। हम ही इन रास्तों से कहीं पहुँचते हैं।
7 जनवरी, 2014
मन सूरदास की तरह
जशपुर और रायगढ़ के गाँवों के बीच, जहाँ धूल और मिट्टी की सौंधी गंध हवा में तैरती है, मैं चार दिन के लिए खो गया हूँ। इंटरनेट की चकाचौंध, फ़ेसबुक की उलझनें, सब पीछे छूट गये। यहाँ, आदिवासी अंचल की गलियों में, स्कूलों की दीवारों के बीच, कन्या आश्रमों और छात्रावासों में, मैं बच्चों की आँखों में ठहरा हूँ। उनकी हँसी में कोई बनावट नहीं, उनके सवालों में दुनिया को समझने की बेचैनी है। शिक्षकों से बातें हुईं, पालकों से गहरी मुलाक़ातें और आदिवासियों के बीच समय जैसे रेत की तरह उँगलियों से फिसलता रहा।
मेरा मन सूरदास की तरह पुलकित है। जैसे कोई जहाज़ का पंछी समंदर के ऊपर उड़ता हो, और उसे दूर कहीं अपनी धरती दिख जाये। मेरा गाँव, माँ का ननिहाल, पास-पड़ोस की गलियाँ— सब कुछ यादों में लौट आया। क्या वह धूल अब भी वैसी ही उड़ती होगी? क्या खेतों में फसलें अब भी वैसी ही लहलहाती होंगी? क्या पक्षी अब भी सुबह-सुबह वही गीत गाते होंगे, जो मैंने बचपन में सुने थे? कुछ तो वैसा ही होगा, कुछ शायद बदल गया होगा। पर गाँव की आत्मा, वह तो अब भी वही होगी न?
रात को नींद देर से आएगी, यह तय है। शहर में तारे कहाँ दिखते हैं? यहाँ आसमान तारों से भरा है, जैसे कोई काला कागज़, जिस पर किसी ने चमकीले बिंदु बिखेर दिये हों। मैं लेटकर उन्हें देखता हूँ, और लगता है प्रकृति ने मुझे फिर से अपनी गोद में बुला लिया है। गाँव की हवा में एक ताज़गी है, जो शहर की हवा में कभी नहीं मिली। यहाँ की शांति में एक ठहराव है, जो मन को चुप कर देता है।
बच्चों के चेहरों पर वही मासूमियत है, जो मेरे बचपन में थी। उनकी आँखों में अपनापन है, जैसे वे मुझे बरसों से जानते हों। मैंने गाँव की गलियों में अपने पुराने दोस्तों को ढूँढा। कुछ मिले, कुछ शायद कहीं और चले गये। जो मिले, उनके साथ चाय की चुस्कियों में पुराने क़िस्से जाग उठे। हँसी ऐसी छूटी, जैसे कोई पुराना गीत अचानक कानों में गूँज जाये। खेतों में घूमते हुए मैंने देखा, फसलें हवा में झूम रही हैं। हवा में एक गंध थी— मिट्टी की, फसलों की, और शायद मेरे बचपन की।
यह यात्रा शासकीय निरीक्षण का हिस्सा है, औपचारिक पर्यवेक्षण का भी। पर यह उससे कहीं ज़्यादा है। यह एक अध्ययन है— जंगल का, झाड़ियों का, नदियों और तालाबों का। यह आदिजनों की संस्कृति को छूने की कोशिश है। उनकी बोली, उनके गीत, उनकी कहानियाँ— सब कुछ जैसे मेरे अपने गाँव की बातें। यहाँ हर चेहरा एक कहानी है, हर गली एक याद।
मैं रायपुर लौट जाऊँगा, पर मेरा मन यहीं ठहरा रहेगा। गाँव की ये साँसें, ये पल, मेरे भीतर कहीं गहरे बस गये हैं। जैसे कोई पुराना गीत, जो भूलकर भी नहीं भूलता।
क्रमश:
(पूर्वपाठ के अंतर्गत यहां डायरी अंशों को सिलसिलेवार ढंग से सप्ताह में दो दिन हर शनिवार एवं मंगलवार प्रकाशित किया जा रहा है। इस डायरी की पांडुलिपि लगभग तैयार है और यह जल्द ही पुस्तकाकार प्रकाशित होने जा रही है। पूर्वपाठ का मंतव्य यह है कि प्रकाशन से पहले लेखक एवं पाठकों के बीच संवाद स्थापित हो।)

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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