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पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-6
रचनाकारों की गिनती: चरवाहों की मंशा
12 जनवरी, 2014
हर पुस्तक प्रकाशक, पत्रिका संपादक, समीक्षक, आलोचक, संगठन और गुट अपने-अपने दृष्टिकोण से वर्ष, युग या सदी के महान, महत्वपूर्ण, युवा और संभावनाशील रचनाकारों की भेड़-बकरियों-सी गिनती करता रहता है। लेकिन सच्चा पाठक इसे एक नज़र में ख़ारिज कर देता है, क्योंकि वह चरवाहों और उनकी वास्तविक मंशा को भली-भाँति पहचानता है।
13 जनवरी, 2014
अभिनंदन हो तो ऐसा हो
आज सुबह, जब डाक का लिफ़ाफ़ा खोला, तो मेरे हाथों में एक अनमोल तोहफ़ा था— डॉ. केवल धीर का 75 वर्ष का सफ़र, अदीब इंटरनेशनल (साहिर कल्चरल अकादमी) द्वारा प्रकाशित एक अभिनंदन ग्रंथ। इसे देखते ही मन में एक गहरी आत्मीयता और गर्व का भाव उमड़ आया। हिंदी साहित्य में ऐसा अभिनंदन ग्रंथ शायद ही कभी देखा हो, जहाँ एक रचनाकार का संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व छायाचित्रों के माध्यम से इतने जीवंत ढंग से उकेरा गया हो। यह किताब नहीं, एक साहित्यिक तीर्थ है जो डॉ. केवल धीर जैसे युग-नायक को समर्पित है।
डॉ. धीर का नाम आते ही मन में भारत और पाकिस्तान के बीच की सांस्कृतिक सेतु की तस्वीर उभरती है। दोनों मुल्कों को अपनी रचनात्मकता के बल पर क़रीब लाने वाले सेतु की, वह किसी जादू से कम नहीं। 80 से अधिक कालजयी पुस्तकें— नदी किनारे, लाल क़िला, शीशे की दीवार, उर्मिला, लहू का रंग, गोरों के देश में, दरवाज़ा खुलता है, युद्ध के मोर्चे पर, राख की परतें- हर रचना जैसे एक दुनिया समेटे है। उनके लिखे सीरियल और टेलीफ़िल्में भी दर्शकों के दिलों में बसी हैं, पुरस्कार तो जैसे उनकी राह के सहयात्री हैं।
उनकी उपलब्धियाँ किसी परिचय की मोहताज नहीं। मानव भलाई एशियन अवार्ड, सार्क अवार्ड, पंजाब सरकार का शिरोमणि उर्दू साहित्यकार अवार्ड और अब न्यूयॉर्क की एशियन लिटरेसी फाउंडेशन द्वारा अप्रैल 2014 में प्रदान किया जाने वाला लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड। कुछ ही समय पहले लाहौर के अलहमरा इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने उन्हें सम्मानित किया। यह सम्मान किसी साहित्यकार के लिए असाधारण है, पर डॉ. धीर तो असाधारणता के पर्याय हैं।
लेकिन जो बात मेरे मन को सबसे अधिक छू गयी, वह है उनके नाम पर स्थापित डॉ. केवल धीर कल्चरल एंड लिटरेरी अकादमी। कितने रचनाकारों को यह सौभाग्य मिलता है कि उनके जीते-जी उनके नाम पर एक संस्था जीवंत हो, साहित्य और संस्कृति को समृद्ध करने के लिए समर्पित हो? लुधियाना की यह संस्था और अदीब इंटरनेशनल का यह अभिनंदन ग्रंथ- ये दोनों डॉ. धीर के उस साहित्यिक योगदान के प्रतीक हैं, जो सीमाओं को लाँघकर दिलों को जोड़ता है।
पाकिस्तान के गग्गू में जन्मे इस साहित्यिक साधक ने अपनी लेखनी से न सिर्फ़ कहानियाँ बुनीं, बल्कि संस्कृतियों को गले लगाया। डॉ. केवल धीर का 75 वर्ष का सफ़र मेरे सामने खुला है, और इसके पन्नों में उनकी हर रचना, हर सम्मान, हर पड़ाव जैसे जीवंत हो उठा है। यह ग्रंथ केवल एक किताब नहीं, बल्कि एक रचनाकार की आत्मा का दर्पण है। अदीब इंटरनेशनल का यह प्रयास और यह उपहार मेरे लिए संग्रहणीय नहीं, बल्कि एक प्रेरणा है – कि साहित्य वही, जो मानवता को जोड़े, और अभिनंदन वही, जो इतिहास बन जाये।
चश्मा
14 जनवरी, 2014
बड़ी अजीब चीज़ है चश्मा। चढ़ते ही कुछ का कुछ दिखायी देता है और उतरते भी कुछ का कुछ। आज हम यह करके जाने।
विकास और गाँव
15 जनवरी, 2014
हमारे गाँव राजधानी वाले शहरों से नियोजित विकास के दावों को साफ़-साफ़ झुठलाते हैं- पिछले सप्ताह लगातार 5 दिनों तक सुदूर आदिवासी अंचल के छोटे-छोटे गाँव, मुहल्ला, वन-ग्राम से गुज़रते हुए मेरी आँखों में यही सब कुछ चुभता रहा। अदम गोंडवी यही तो अनुभव करते रहे हैं–
तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
दरअसल भारत के भीतर एक और भारत है जो हमारे नगरों, शहरों, मेट्रोपोलिटिन्स से बहुत पिछड़ा है। वह विकास के तथाकथित आँकड़ों को झुठलाता है। इसे लगातार नज़रअंदाज़ नहीं किया जा रहा है। इसे नज़रअंदाज़ कर बनायी जा रही सारी योजनाएं भी अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त कर सकतीं क्योंकि उन योजनाओं में गाँव का मन ग़ायब है। गाँव की आत्मा ग़ायब है। गाँवों को समझे बिना न देश को समझा जा सकता न ही उसके लिए बनायी जा रही योजनाएं सिद्ध हो सकती हैं– मगर यह कौन सुन रहा है। वहाँ घीसू आज भी किसी मसीहा प्रेमचंद का बाट जोह रहा है।
केवल यथार्थ से जीना मुश्किल
विनोद कुमार शुक्ल जी से मुलाक़ात एक ऐसी घटना है, जो साधारण होते हुए भी कहीं असाधारण हो उठती है। उनकी गंभीरता, जो निहायत निर्मल है, किसी ओढ़ी हुई चादर-सी नहीं, बल्कि जैसे कोई पुराना, मुलायम कंबल हो, जो बिना शोर किये गर्माहट देता है। वे मितभाषी हैं, यह ठीक है, पर उनकी दो-टूक बातों में एक ऐसी सादगी है, जो सुनने वाले को बाँध लेती है।
मैं यह इसलिए कह सकता हूँ, क्योंकि हमारा पोस्ट ऑफ़िस, बैंक, चौक-चौराहा एक ही है। सड़क के उस पार वे, और इस पार मैं। अक्सर हम दोनों कहीं न कहीं टकरा जाते हैं— या कहूँ, मुलाक़ात हो जाती है। मैं विनम्रता से जोहार करता हूँ, वे मेरे घर-परिवार का हाल पूछते हैं, और कभी-कभी, जब बातों का सिलसिला चल पड़ता है, अपने किसी प्रकाशक की कारस्तानियों को भी उसी सादगी से बयान कर देते हैं जैसे कोई बच्चा अपनी टूटी पतंग की कहानी सुनाये।
आज फिर उनसे भेंट हो गयी। मैं अपने ऑफ़िस को निकल रहा था, और वे यूको बैंक से अपने घर की ओर। मैंने उनके पैर छूने की कोशिश की, पर नाकाम रहा। उनकी वह हल्की-सी मुस्कान, जो जैसे बादल के पीछे से झाँकता सूरज हो, मेरे साथ कुछ देर तक रही। शाम को ऑफ़िस से लौटकर, चाय की चुस्कियों के बीच, उनका लिखा पढ़ने का मन हुआ। उनकी बातें, जो उन्होंने कभी कहीं कही थीं, मेरे मन में जैसे गूँज रही थीं। मैं उनके शब्दों में खोया हुआ हूँ, और उनकी शैली में ही कुछ जोड़ना चाहता हूँ, जैसे कोई नदी के किनारे बैठकर उसमें एक और बूँद डाल दे।
“जादुई स्थितियाँ, जिन्हें हम जादू कहते हैं, वे कहीं बाहर से नहीं आतीं। वे हमारे भीतर ही कहीं पड़ी रहती हैं, जैसे कोई पुराना गीत, जो अचानक याद आ जाये। हम जो नहीं कर सकते, उसकी कल्पना तो कर ही सकते हैं। चिड़िया उड़ती है, हम नहीं उड़ सकते, पर उड़ने का सपना तो देख सकते हैं। यह सपना ही जादुई स्थिति है। यह कोई नयी चीज़ नहीं, यह शुरू से हमारे साथ है, जैसे साँस लेना।
आज साहित्य में लोग यथार्थ के पीछे भाग रहे हैं, जैसे कोई भूला हुआ सामान खोजने की जल्दी हो। पर यथार्थ अगर अकेला हो, तो ज़िंदगी कितनी भारी हो जाएगी। जब हम दुख में डूबे होते हैं, जब कोई रास्ता नहीं दिखता, तो हम किसी अपने के पास जाते हैं। अपना दुख कहते हैं, और वह अपना, जो सबसे क़रीब है, कहता है—’सब ठीक हो जाएगा।’ यह ‘सब ठीक हो जाएगा’ कोई सच्चाई नहीं, यह एक फैंटेसी है। लेकिन यही फैंटेसी हमें यथार्थ से लड़ने की ताक़त देती है। बिना इस ताक़त के हम यथार्थ के सामने हार जाएँगे। यथार्थ हमें डराता है, हमें छोटा करता है। अगर सड़क पर कोई हादसा हो जाये, कोई चीख सुनायी दे, तो हम खिड़कियाँ-दरवाज़े बंद कर लेंगे। हम बाहर नहीं निकलेंगे। कोई नहीं निकलेगा। पर वही हादसा, जब किसी कहानी में हो, किसी नाटक में हो, तो हम उसे देखते हैं, पढ़ते हैं और कहीं भीतर एक ताक़त जागती है। यह ताक़त हमारी समझ की है। यथार्थ से लड़ने के लिए समझ चाहिए और यह समझ हमें रचना देती है। रचना वह नहीं, जो सिर्फ़ यथार्थ को दोहराये। रचना वह है, जो यथार्थ को देखे, उसे छुए और फिर उससे आगे बढ़कर कुछ ऐसा रचे, जो हमें डर से बाहर निकाले।
जैसे कोई बच्चा रेत पर घर बनाता है। वह जानता है, लहर आएगी, घर बह जाएगा। फिर भी वह बनाता है। यह बनाना ही फैंटेसी है। यह बनाना ही ताक़त है। हम सब रेत पर घर बनाते हैं, यह जानते हुए कि लहर आएगी। पर जो घर हम बनाते हैं, वह लहर के जाने के बाद भी कहीं हमारे भीतर बचा रहता है।”
यह लिखते हुए लगता है, जैसे मैं विनोद जी के घर के सामने वाली सड़क पर खड़ा हूँ। वे अपने घर की देहरी पर बैठे हैं और मैं उनसे कुछ और सुनने को बेक़रार हूँ। उनकी बातें ऐसी हैं, जैसे कोई पुराना पेड़, जिसकी छाँव में सुस्ताने का मन करता है।
आज तक अपरिभाषित
16 जनवरी, 2014
फ़र्स्ट इयर में एक निबंध था – प्रमोद वर्मा जी का, लिखते हैं वे:
“कविता आज तक अपरिभाषित ही रही चली आयी है। अपरिभाषित रहे चले आना कविता की एक विशेषता है। सर्वमान्य परिभाषा उसी की संभव है जिसके गुण सबों को एक जैसे प्रतीत होते हैं और जिसका प्रभाव भी सबों पर एक जैसा पड़ता हो। लेकिन कविता के गुण या प्रभावादि को लेकर दो व्यक्ति सदैव सहमत हों, यह आवश्यक नहीं है। एक जिसे कविता मानता है, दूसरे के लिए वह बकवास हो सकती है।”
क्रमश:
(पूर्वपाठ के अंतर्गत यहां डायरी अंशों को सिलसिलेवार ढंग से सप्ताह में दो दिन हर शनिवार एवं मंगलवार प्रकाशित किया जा रहा है। इस डायरी की पांडुलिपि लगभग तैयार है और यह जल्द ही पुस्तकाकार प्रकाशित होने जा रही है। पूर्वपाठ का मंतव्य यह है कि प्रकाशन से पहले लेखक एवं पाठकों के बीच संवाद स्थापित हो।)

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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