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पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-3
सेकुलर और पिक्यूलियर
3 जनवरी, 2014
आज फिर समीक्षा का अक्टूबर-दिसंबर, 2013 वाला अंक मेरे हाथों में है, जैसे कोई पुराना मित्र समय पर लौट आया हो। भाई सत्यकाम जी और सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज के प्रति मन कृतज्ञता से भरा है, जिनकी मेहनत से यह साहित्यिक ख़ज़ाना हर बार मेरे पास समय पर पहुँचता है। छियालीस वर्षों से समीक्षा का निरंतर प्रकाशन कोई साधारण बात नहीं। पुस्तक समीक्षा पर केंद्रित यह त्रैमासिक पत्रिका समय की धूल में नहीं खोयी; यह तो विचारों का एक जीवंत संग्रह है, जो साहित्य के प्रति प्रेम और समर्पण की मिसाल है।
इसके पन्नों में नामवर सिंह की क़लम से भीष्म साहनी की अंतिम विदाई का एक मार्मिक चित्र उभरता है। दृश्य जैसे आँखों के सामने साकार हो उठता है — लकड़ियों से सजी चिता, जिस पर हिंदी साहित्य के पितामह भीष्म जी शांत लेटे हैं, मानो अपनी कहानियों की दुनिया से एक आख़िरी अलविदा कह रहे हों। एक ओर वेद मंत्रों का प्राचीन स्वर गूँज रहा है, धुएँ की तरह हवा में तैरता हुआ। दूसरी ओर बौद्ध भिक्षुओं की पंक्तियाँ, उनके समवेत मंत्र-पाठ की नरम लहरें हृदय को छूती हुईं। यहाँ तक कि भीष्म जी के ‘वाँग्चू’ के पात्र भी इस क्षण में कहीं आसपास मौजूद-से लगते हैं, अपने रचनाकार को श्रद्धांजलि देते हुए।
नामवर जी लिखते हैं सेकुलर सज्जनों के लिए यह दृश्य पिक्यूलियर था — एक विचित्र मेल, जहाँ परंपराएँ टकराती-सी प्रतीत हुईं। भीष्म साहनी की अंत्येष्टि में ऐसा धार्मिक अनुष्ठान? वह लेखक, जिसकी रचनाएँ इंसानियत को धर्म की दीवारों से ऊपर रखती थीं, जिसने अपनी कहानियों से संकीर्णता को पिघलाया, वह इस दोहरे आध्यात्मिक स्वर में विदा हुआ। मगर मुझे इसमें कोई विरोधाभास नहीं दिखता। यह तो उनके जीवन का सार था – हिंदू, बौद्ध, सेकुलर, मानवीय – सब कुछ एक साथ। उनकी विदाई भी ऐसी ही होनी थी, विविधता का एक जीवंत चित्र।
मन में वह दृश्य बार-बार उभरता है- चिता की तड़तड़ाहट, मंत्रों का मिश्रित स्वर और उपस्थित लोगों की ख़ामोश श्रद्धा। यह मुझे याद दिलाता है कि साहित्य और जीवन दोनों वहीं पनपते हैं, जहाँ भिन्नताएँ मिलती हैं, न कि मिटती हैं। भीष्म जी की विरासत, ‘समीक्षा’ की तरह इसलिए अमर है क्योंकि यह जीवन की जटिलता को गले लगाती है, बिना सरल उत्तरों की तलाश किये।
4 जनवरी, 2014
राजाराम भादू जी ऐसे ना करिए!
आज सुबह, मन में एक उलझन लिए, मैंने विप्रति जी के नाम एक पत्र लिखा और उसे घर के पीछे वाले डाकखाने में डाल आया।
यह पत्र कोई साधारण पत्र नहीं था; यह मेरे मन की बेचैनी थी, जो ‘दस्तावेज़’ के 138वें अंक को पढ़ने के बाद उमड़ आयी। पिछले 35 सालों से दस्तावेज़ मेरे लिए सिर्फ़ एक पत्रिका नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य की ईमानदार आवाज़ है। हर बार डाकिए से इसकी खोज-ख़बर लेता हूँ, जैसे कोई प्रिय मित्र का इंतज़ार हो। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी जैसे नीर-क्षीर विवेक वाले संपादक की छत्रछाया में यह पत्रिका न सिर्फ़ रचनाएँ छापती है, बल्कि रचनाकारों की आत्मा को भी उजागर करती है।
लेकिन इस बार, अंक को पढ़ते हुए मन बेचैन हुआ। क्या तिवारी जी अब समय की कमी से जूझ रहे हैं? या फिर लेखकों के नाम के भरोसे रचनाएँ छप रही हैं? राजाराम भादू जी जैसे सम्मानित लेखक का आलेख पढ़ा, जिसमें उन्होंने ललित निबंध की दशा पर बात की। वे लिखते हैं आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के बाद इस विधा में बस विवेकी राय, कुबेरनाथ राय और विद्यानिवास मिश्र जैसे दो-तीन नाम ही उभरे। फिर, अष्टभुजा शुक्ल जैसे अपवाद को छोड़कर, ललित निबंध मानो गुज़रे ज़माने की बात हो गयी।
यह पढ़कर मन खिन्न हो उठा। यह आलेख नहीं, एक अधूरी सच्चाई है। क्या भादू जी और तिवारी जी यह भूल गये कि विद्यानिवास जी के बाद भी अज्ञेय, धर्मवीर भारती, हरिशंकर परसाई, रामदरश मिश्र, कन्हैयालाल नंदन, बाबू गुलाब राय, श्यामसुंदर दुबे, श्रीराम परिहार, रमेश चंद्र शाह, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, बालशौरि रेड्डी, नीरजा माधव, रंजना अरगड़े, स्वयं मैं और न जाने कितने अन्य रचनाकारों ने ललित निबंध को जीवंत रखा? यह सूची लंबी है, और समय की कमी ने मुझे इसे पूरा करने से रोका।
फिर, अष्टभुजा शुक्ल जी की एकतरफ़ा अनुशंसा क्यों? वे निस्संदेह प्रतिभाशाली हैं, लेकिन क्या उनकी रचनाएँ उपरोक्त दिग्गजों से अधिक सशक्त हैं? दस्तावेज़ के पाठक जानते हैं कि देश में कम से कम 50 ललित निबंधकार आज भी सक्रिय हैं, लिख रहे हैं, छप रहे हैं। और यह कैसे भूल गए कि 1993 से डॉ. श्रीराम परिहार के संपादन में ‘अक्षत’ पत्रिका ललित निबंध को समर्पित होकर उल्लेखनीय योगदान दे रही है?
ललित निबंध की स्थिति दयनीय हो सकती है पर यह विलुप्त होने की कगार पर नहीं है। भादू जी का यह आलेख आधा-अधूरा सच बोलता है और यह दस्तावेज़ की गरिमा के साथ न्याय नहीं करता। मैंने पत्र में तिवारी जी से विनम्र आग्रह किया— दस्तावेज़ को दस्तावेज़ बनाये रखें। अगर मेरी यह बात ग़लत लगे, तो मुझे डाँट ज़रूर पड़नी चाहिए। लेकिन सच तो यह है कि यह पत्र मेरे मन का बोझ था, जो अब डाकखाने के हवाले है।
अपराध
मेरे मन का आकाश आज बग़ावती बादलों से भरा है। मैं उन तमाम दीवारों को धूल में मिलते देखना चाहता हूँ— वे दीवारें जो एक व्यक्ति, एक परिवार, एक कुल, एक गोत्र, एक जाति, एक रंग, एक भाषा, एक विचार, एक दृष्टि के अहंकार को पालती हैं। ये क़िलेबंदियाँ, जो सिर्फ़ एक की रक्षा करती हैं और बाक़ियों को कुचलती हैं, मेरे लिए बंधन हैं। मैं इनके टूटने का स्वप्न देखता हूँ— हर उस बेड़ी का, जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करती है, हर उस व्याख्या का, जो एकमात्र सत्य होने का दंभ भरती है।
ये दीवारें कोई पत्थर-ईंट की नहीं; ये तो विचारों की, शब्दों की, विधाओं की, दृष्टियों की बनी हैं। ये एक रंग को उजला बताती हैं, एक भाषा को श्रेष्ठ, एक विचारधारा को अंतिम। मैं चाहता हूँ कि ये सब चूर-चूर हों, और उनके मलबे से एक नया आलम उगे- जहाँ हर रंग, हर रूप, हर स्वर, हर अर्थ अपनी जगह पाये।
अगर यह बग़ावत अपराध है, तो मैं यह अपराध बार-बार करूँगा। मेरी क़लम इस विद्रोह की साक्षी बनेगी, मेरे शब्द इस आग को हवा देंगे। मैं उस दिन का इंतज़ार करता हूँ, जब ये क़िलेबंदियाँ ध्वस्त होंगी और मनुष्यता का आलम सिर्फ़ प्रेम और समानता की नींव पर खड़ा होगा।
क्रमश:
(पूर्वपाठ के अंतर्गत यहां डायरी अंशों को सिलसिलेवार ढंग से सप्ताह में दो दिन हर शनिवार एवं मंगलवार प्रकाशित किया जा रहा है। इस डायरी की पांडुलिपि लगभग तैयार है और यह जल्द ही पुस्तकाकार प्रकाशित होने जा रही है। पूर्वपाठ का मंतव्य यह है कि प्रकाशन से पहले लेखक एवं पाठकों के बीच संवाद स्थापित हो।)

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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मन की उहापोह और बेचैनी का सार्थक दस्तावेज जो प्रश्नों को साथ पाठक को प्रभावित करता है ।बधाई ।
रोचक