सुशील कुमार, sushil kumar

पुस्तक समीक्षा : विरल अनुभूति के कुशल शिल्पी सुशील कुमार

             वर्ष-2024 में आलोचक-कवि सुशील कुमार का संग्रह आया-“पानी भीतर पनसोखा”। इसके पहले विचारशिल्पी कवि के 04 संग्रह और प्रकाशित हुए हैं-हाशिए की आवाज़(2020), जनपद झूठ नहीं बोलता(2012), तुम्हारे शब्दों से अलग(2011) और कितनी रात उन घावों को सहा है (2004)। सहज निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सुशील कुमार की काव्ययात्रा सदी के दस्तक देने के समानांतर आरम्भ हुई और सदी के चरित्र को गहन संकल्प के साथ जांचती-परखती हुई आगे बढ़ रही है।

“पानी भीतर पनसोखा” उनकी प्रौढ़ और मंझी हुई कृति है, जिसमें उठाये गये विषय अधिक स्पष्टता, अर्थवत्ता और कीमतीपन के साथ प्रकट हुए हैं। पहली कविता-अथ श्रीकथा की दो पंक्तियां लीजिए:
लड़ाई खत्म नहीं हुई है
डरावनी शांति के शोर में
कई लड़ाइयाँ शेष हैं अभी।

सुशील कुमार विषय के बाह्य तक सीमित नहीं रहते, न ही विषय के स्थूल प्रभाव से बंधे रहते हैं, बल्कि कल्पना और संवेदना की डोर थामे विषयों के अलक्षित मर्म में गोता लगाते हैं और नये भावों के मोती चुनकर लाते हैं। “बहने दो” कविता में कवि की पुकार रुकावट डालने के विरुद्ध है। जो बहना चाहता है, उतरना और उड़ना चाहता है, मुक्त होना चाहता है,उसे रोको मत। आज़ादी केवल मनुष्य के लिए बहुमूल्य नहीं, जीव जानवर, पक्षी, पशु, हवा, पानी, रौशनी सबके लिए अनिवार्य है। समय, जीवन, सृष्टि की चाल अप्रत्याशित, अज्ञात और रहस्यपूर्ण है। जबकि हमारी आदत है, उसे अपने विचार, रुचि, परिभाषा में बांधना। जैसे नदी पर बांध खड़ा कर सकते हैं, किन्तु नदी के बहने के स्वभाव पर लगाम नहीं लगा सकते। वैसे ही समय, सृजन और प्रकृति की चाल है- अबाध, असीम और बेदिशात्मक।
गन्तव्य की ओर जाने दो
हर रचना को,स्वयं को
उन सबों को भी
जो जाना चाहते हैं
तुम्हारी इच्छाओं से अलग
अपनी तय दिशाओं में।

संग्रह में दु:ख श्रृंखला की पाँच कविताएं हैं। सच तो यह है कि रचनात्मक दुख की अंतर्ध्वनि पूरे संग्रह में सुनायी देती है। कभी अपनी तकलीफ़ बनकर, कभी अपनों की पीड़ा बनकर, कभी अन्य के दर्द के बहाने भी। सुशील कुमार को गौतम बुद्ध प्रभावित किये हुए हैं और कार्लमार्क्स भी। किन्तु हृदय के नज़दीक तो बुद्ध ही हैं, जबकि बौद्धिकता उद्वेलित रहती है- मार्क्स के कारण। दुख का दर्शन बौद्धिज्म का आधार है। याद कीजिए, प्रथम आर्यसत्य- “जीवन दुखमय है।” यहाँ कवि ने दुख का साक्षात्कार अपने अंदाज़ में किया है।दुख की गहराई को अपने पैमाने से नापा है, दुख का स्वाद अपने भीतर चखा है इसीलिए दुखपरक कविताएं जीवंत शब्दों की तासीर से लबरेज़ हैं। दुख के वैविध्य का साक्षात्कार करना, उसे अपने अनुभवों की कसौटी पर परखना किसी उपलब्धि से कम नहीं। अपने मनुष्य की पूर्णता, परिपक्वता और चमक के लिए दुख का गहरा साक्षात्कार अनिवार्य है।

“दुख” की ही तरह “रोना” शृृंखला की पाँच कविताएं। रोना मनुष्य होना है, रोना जीवित रहने की शर्त है, रोना सरल होना है, रोना तरल होना है। रोना मनुष्यता का पानीपन है, रोना हिंसा के ख़िलाफ़ होना है। रोना सृष्टि से मिली सबसे अनमोल क्षमता है। जब हम रोना चाहते हैं, किन्तु रो नहीं पाते तो रोने की ज़रूरत तीव्र हो जाती है, जिसे हम बयां नहीं कर सकते। कवि की पंक्तियां:
रोना दुख से उबरना है
रोना हूक से उबरना है
पिछली बार हम कब रोये
हमें याद नहीं
हमको मां की याद आ रही है
उनसे लिपटकर हम
बहुत रोये थे, बचपन में।

कवि को आंसू चाहिए,ताकि रो सके। कवि को आंसू चाहिए ताकि रच सके। कवि को आंसू चाहिए, ताकि सोच सके। कवि को आंसू चाहिए, ताकि खुद की मनुष्यता प्रमाणित कर सके। कवि का दोटूक आत्मस्वीकार भी है:
रोने से बची है हमारी ज़िंदगी
पहाड़ों से दुखों के बीच से
गुज़रते हुए।

संग्रह की दुर्लभ कविता है-“टूटना : एक ज़रूरी क्रिया।” यह भी पाँच खंडों में। एक ही विषय के प्रति जुदा-जुदा मनोभावों को कवि ने एक माला में पिरो दिया है। सृजन और विनाश दो नहीं, एक हैं। रात और दिन, अच्छा और बुरा, सफल और सफल, शिखर और धरातल, विश्वास और संदेह, प्रेम और घृणा भी दो नहीं, एक ही हैं। बस रूप, रंग, आकार, तेवर और स्वाद बदल लेते हैं। सभ्यताएं जन्म ही लेती हैं एक दिन मिटने के लिए। इस असहनीय किन्तु अनिवार्य सत्य का विलक्षण आभास कवि को है:
टूट-फूटकर मलबों में
तब्दील हो जाती हैं
सभ्यताएं एक दिन
हमारे भीतर भी कोशिकाएं टूटती हैं
रोज़मर्रा की थकान से।

सिद्धार्थ गौतम, तथागत, बुद्ध एक ही मानक पुरुष के तीन नाम, किन्तु मानव-मानस के क्षितिज पर छाने वाला नाम “बुद्ध” है। एक सांसारिक से संसार-मुक्त होने की अनोखी अंतर्यात्रा, एक शरीरी युवा के शरीर-नियंत्रक होने की असाधारण कहानी, एक मृत्युगामी यात्री के मृत्युपार हो जाने की ऊंचाई। जीवन पढ़कर जीवन का पाठ पढ़ाने वाले परम शिक्षक का नाम है- बुद्ध। अधिकतम मानव के भीतर अधिकतम गहराई तक पैठ लगाने वाले गोताखोर का नाम है- बुद्ध। कवि ने बुद्ध पर लिखा नहीं है, बल्कि अपनी कलम पर चढ़ा हुआ ऋण उतारा है, जैसे अगली तैयारी के लिए प्रमाणपत्र की प्रार्थना कर रहे हों। 10 खंडों में बंटी यह कविता संग्रह की धुरी है। दरअसल बुद्ध बनना साधना की सतत प्रक्रिया का शिखर है। बुद्ध न बुद्धि में सीमित हैं, न हृदय में, न विवेक, न ही चेतना में। बल्कि अपने परम स्वरूप को सृष्टि में विलीन करने का नाम बुद्ध है। सिद्धार्थ गौतम कहते थे-“तुम मेरे ऊपर कांटे फेंकते हो, वे मेरे मौन में गिरकर फूल बन जाते हैं।” उन्हीं का दूसरा मंत्र सुनिए- “तुम किसी पथ पर तब तक नहीं चल सकते, जब तक तुम स्वयं वह पथ न बन जाओ।” असाधारण शब्द भी जिसके क़द के आगे साधारण लगे, ऐसे व्यक्तित्व पर सुशील कुमार की कविता देखिए:
कंक सा कृशकाय शरीर
खोज मगर जारी रखी तुमने
वैराग से नहीं डिगे तुम
न लौटे फिर कभी
कपिलवस्तु की लकदक में!
फिर सुजाता की खीर….
वह बोधिवृक्ष
शिष्यों ने तुम्हें पथभ्रष्ट कहा
पर तुम रुके नहीं
और एक दिन तुम खुद में विलीन हो गये
(जल में नमक की तरह)
उस अनस्तित्व में समा गये
जहाँ तुमको जाना था।

“प्रलय में लय” कवि के विचार को आधार देने वाली कविता है। जो पूरी तरह मानव जीवन के सत्य को खोलकर रख देती है। कवि यहाँ अपने प्रति और मनुष्य की नियति के प्रति स्पष्ट है। अपने वर्तमान और भावी यथार्थ का सामना करना सबके लिए आसान कहाँ होता है? किन्तु जो तार्किक है, चिंतनशील है, सत्यप्रिय है और खुद से बाहर जाने का साहस रखता है, वह अपने यथार्थ का साक्षात्कार करने में सफल होता है। इस साक्षात्कार में अधिकांश या तो टूट जाते हैं या डर जाते हैं या फिर निराश। ऐसे बहुत विरल होते हैं, जो अपने कठिन यथार्थ को स्वीकार कर आत्मजागृति की राह पकड़ते हैं। जैसे-बुद्ध, कबीर, महावीर, नानकदेव, ओशो।
राख हो जाएगी देह
एक न एक दिन
ये सपने ये रंग
ये दुकान ये मकान
ये बनाए हुए भविष्य
सब बिला जाएंगे
जो बचा रहेगा अंत तक
वह यह जीवन है
कैक्टस की तरह इस धरती पर
असंख्य आपदाओं के बीच।

मज़दूर अर्थात बहुजन खुशियों की शर्त, मजदूर का मतलब हमारे सुकून की नींव,मजदूर का अर्थ है-वह शख्स,जो सबसे अनिवार्य योद्धा का प्रतिरूप है।मजदूर है तो हमारा मकान है,मजदूर है,तो हमारी सड़कें हंसती हैं,मजदूर है तो आकाश नीला लगता है,धरती हरी हो जाती है,खेत भर जाते हैं,पक्षियों को दाना मिलता है और पशुओं को दाना,पानी,चारा।मजदूर को केवल मेहनतकश मत समझिए।वह आपके,हम सबके खून में घुला हुआ श्रम का नमक है। देखिए कवि के शब्द,”मजदूर” कविता के बहाने-
नैतिक अपराध है
उसकी नितांत मजबूरियों से खेलना
उस पर पेंटिंग बनाना,भाषण देना
उसे इश्तेहारों की तरह
अखबार में इस्तेमाल करना
इंटरनेट की दीवारों पर उसे चिपकाना
बेशर्मी की उस हद को पार कर जाना है।

असल बात तो यह कि अभाव,गरीबी,संघर्ष,पीड़ा,दर्द भरा चेहरा ग्लैमराइज करने की चीज नहीं है क्योंकि उससे हम तो खुद का नाम,काम तो चमका लेते हैं,उन संघर्षशीलों का चेहरा बुझा ही रह जाता है। हमने नारे लगाए,गरीबी मिटी नहीं। हमने पोस्टर चिपकाए,उनका जीवन अभावमय ही रहा। हमने उनके हित में किताबों के पहाड़ खड़े किए,किन्तु उनका जीवन मामूली,गुमनाम और अपमानग्रस्त ही रहा इसलिए जितना जल्द हो सके,हमें धरती से इस नियति को मिटा देना चाहिए कि मेहनतकश के जीवन में सुकून और चैन का सूरज नहीं उगता।

“लौट जाओ विकास-पुरुष” आज बिल्कुल आज के समय पर जोरदार व्यंग्य है। यहाँ कवि की पक्षधरता भी मुखर हुई है। आजकल विकास अपने अर्थ के ठीक विपरीत हो चुका है।हमारे सुखवादी विस्तार का नाम है-विकास। इस तथाकथित विकास के नाम,विकासहीन जन की बलि दी जाती है। कवि भौतिक विकास को विकसित कहलाने का पैमाना मानने से इंकार करता है। अक्सर भौतिक विकास भीतर एक गहरी गरीबी लेकर आता है। सोच की गरीबी,संवेदना की, स्नेह, त्याग और ईमानदारी की गरीबी। देखिए चंद पंक्तियां :
जब तुम संवेदना की बात करते हो
तो नदियों का जल कांपने लगता है
पेड़ और पक्षी उदास हो जाते हैं
पहाड़ मौन हो जाता है
किसान के दिल में हूक समा जाती है।

कवि सुशील कुमार के अंत:व्यक्तित्व को समझने के लिए अनिवार्य कविता है-“हृदय-पांखी”। अपनी शेष उर्जा,शक्ति, संभावना को पाने की अदम्य छटपटाहट है इसमें। यह बेचैनी कविता के भविष्य के लिए जरूरी है। यह आकुलता सृजन की जमीन बनती है,यही आकुलता कलम को गहराई देती है। यही बेचैनी हमारे भीतर कवित्व को ज़िंदा रखती है।
बहुत छोटा होते हुए भी
साधारण नहीं है एक पंख
इसमें शक्ति है
पृथ्वी के आकर्षण बल को छोड़ने की
तोड़कर वायुवेग के साथ उड़ने की।

नयी सोच, नये प्रश्न, नयी प्रतिबद्धता का आहृवान करती यह नयी सदी है। अभी तक वस्तु,व्यक्ति,व्यवस्था,सत्ता और सृष्टि के प्रति हमारा जैसा और जो भी नजरिया रहा,उसमें अपूर्व बदलाव आना जरूरी है। मिट्टी सिर्फ़ मिट्टी नहीं,हवा सिर्फ़ सांसें देने का कारण नहीं।वस्तु मरी हुई चीज नहीं। वस्तुएं न पुरानी होती हैं,न निर्जीव। वे जीवित सत्ता हैं,प्राण में बसी,हृदय से चिपकी हुए,मन से बंधी हुई,चित्त को बांधे हुए। वस्तुएं आत्मा की निर्मिति का जरूरी आधार हैं। वस्तुएं चुम्बक हैं,जो भाव को संवारती हैं,प्रेम जगाती हैं,आंसू भी ला देती हैं,अपने मोह में।
घर की अनुपयोगी पुरानी चीजें जैसे
प्लास्टिक की टूटी बाल्टी
चप्पलें,पालीथीन के झोले
रद्दी कागज,चिमटी वगैरह
बड़े सहेजकर रखते हैं।

प्रकृति के सीमातीत, शब्दों से परे सौंदर्यबद्ध निनाद का नृत्यगान करती हुई कविता है-“आधी रात।” यह कविता प्रकृति के सर्वव्यापी मौन से एकांत, सघन, एकनिष्ठ और आत्मीय बतकही करती है। देखते हैं, कुछ पंक्तियां-
रात ठहर गयी थी स्वप्न में
मन डूब रहा था रात में
मन डूब रहा था रातरानी में
मन डूब रहा था चांदनी में
मन डूब रहा था,घनघोर बारिश में।

“सब कुछ रेडियोएक्टिव है” कविता अपने शीर्षक में ही अनोखापन लिये-दिये है। यह कवि के कल्पनाशील मस्तिष्क की आहट भी है। एक साथ कितनी दिशाओं, कितने स्तरों, रूपों और घटनाओं में कवि की कल्पना आवाजाही करती है, यह बताने की लिए एक यह कविता काफी है। 05 खंडों में विभाजित यह कविता पुनः कवि की सघन वैचारिक रुचि का पुख़्ता प्रमाण है।
जीवन रीता नहीं,परिपूर्ण है
स्पन्दन है इसमें गति है
ठहरा हुआ जल नहीं है
बहता हुआ नीर है।

समय अपरिभाषेय है। वह सिर्फ़ एहसास पर राज करता है। उसे न छू सकते हैं, न देख सकते हैं, न दिखा सकते हैं, न ही रोक सकते हैं। निरंतर बहता रहता है समय, चारों ओर अदृश्य, किन्तु अबाध। समय से शक्तिशाली कुछ भी नहीं। न वर्तमान, न भूत, न भविष्य।ये तीनों समय के आगे नतमस्तक। बाहरी परिवर्तन, घटनाएं, जन्म-मृत्यु, उत्थान-पतन समय के होने की आहट मात्र देते हैं। समय ही सौंदर्य है, समय ही असौंदर्य। समय ही मित्रता है, समय ही शत्रुता। समय अनुकूल तो हमें प्रेम हो जाता है। समय प्रतिकूल हुआ तो प्रेम को दुश्मनी में बदल देता है। कवि की पंक्तियां-
पिंड से ब्रह्मांड तक
समय ही तो है केवल,जो धड़कता है
जिसमें निबद्ध है समूची सृष्टि
सारे रसरंजन खेल
सारी क्रूरताएं,सारी करुणा
सब कुछ समय के भीतर है
समय के बाहर कुछ भी नहीं
न तुम,न मैं,न दुनियादारी।

तो आइए अब कवि की “विदा” कविता की मीमांसा करें। विदा एक मजबूरी है, एक बेबसी, एक टीस, कसक, पीड़ा, स्थायी अभाव और कभी न सूखने वाले नेह की परीक्षा।हम रोज रोज किसी न किसी को विदाई देते हैं या विदाई लेते हैं। जहाँ मिलन,वहीं बिछुड़न, जहाँ साथ, वहीं वियोग, जहां निकटता, वहीं दूरी का दर्द। परन्तु अंतिम विदा की टीस सबसे अलग, सबसे अलहदा और सबसे गहरी। ऐसे क्षण जमी हुई पीड़ा न शब्दों में, न आंसुओं में, न मौन में, न सृजन में व्यक्त की जा सकती थी।
विदा दिन,विदा रात
विदा सुबह,विदा सांझ
विदा अपने जीवन के सारे मूल्य
सारी महत्वाकांक्षाएं
कुछ नहीं चाहिए
कुछ भी अमर नहीं
सब मरता है,सब मरेगा एक दिन।

“पहाड़ी लड़कियाँ” संग्रह की सबसे वजनदार कविता है वर्गप्रधान कविता है,जिसे पढ़ना पहाड़ की युवतियों का संघर्ष जान लेना है।पहाड़ी लड़की का सच मैदान में रहने वाली युवती से कितना भिन्न और अविश्वसनीय है,यह कविता स्पष्ट कर देती है। साथ ही ध्यान देने योग्य है-कविता में रचा,बसा पहाड़ी लड़कियों के मनोस्तर का तानाबाना,जो उनके दैनिक श्रम में, उनके व्यवहार, उनकी बोली-ठिठोली और दबी मुस्कान के अलक्षित मौन में प्रकट होता है। जैसे देश के पहाड़ संकट में हैं, वैसे ही पहाड़ी लड़कियों का वजूद, उनकी लगनशीलता भी। कवि की चिंता तर्कसंगत है:
जैसे सूखती जा रही हैं,पहाड़ी नदियां
कम पड़ती जा रही हैं,लोगों की जमीनें
बैल-बकरी,कुत्ते,सूअर,गायें
वैसे ही पहाड़ी लड़कियां भी
दिन-दिन घटती जा रही हैं।

सुशील कुमार, sushil kumar

समग्रतः चिंतन-मनन करने पर निष्कर्ष यह निकलता है कि सुशील कुमार यथार्थ की अभिव्यक्ति का दायित्व उठाने वाले कवि हैं। वे मनोविलास के लिए लिखने को पलायन मानते हैं इसलिए उनके शब्दों में वक्त का ताप है, जमीन का स्वाद, रस, गंध और रंग है। सुशील जी कलावादी के बरअक्स लोकवादी, वर्तमानवादी और आत्मखोजी हैं। महत्वपूर्ण यह भी कि वे अपनी कविता को पसंद की बंधी-बंधायी परिधि में लेकर नहीं चलते, बल्कि स्वतंत्रचेता सर्जक की तरह चौतरफा दृष्टि घुमाते हैं और जहाँ जिस पर मन रम जाता है, उसी को प्रगाढ़ भावात्मक कल्पना की सान पर चढ़ा देते हैं। वे ऐसे कवि हैं, जिनको पढ़कर मन पहले समृद्ध होगा, कविता का टिपिकल आलोचक बाद में।

भरत प्रसाद, bharat prasad

डॉ. भरत प्रसाद

हिंदी विभाग में प्राध्यापक, पूर्वांगन के अध्यक्ष और देशधारा वार्षिकी के संपादक भरत प्रसाद के नाम पर क़रीब डेढ़ दर्जन साहित्यिक पुस्तकें दर्ज हैं। इनमें काव्य संग्रह, उपन्यास, आलोचना, कहानी और वैचारिकी आधारित किताबें हैं। अनेक प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित हैं। आप अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाज़े जा चुके हैं और कुछ पत्रिकाओं के विशेषांकों का संपादन भी आपने किया है।

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