
- June 26, 2025
- आब-ओ-हवा
- 5
व्यंग्य:- अशांत ट्रंप बनाम शांति का नोबेल
किसे शक है कि ट्रंप को नोबेल नहीं मिलना चाहिए? आज की दुनिया की सबसे बड़ी ज़रूरत यही तो है साहब। इस बंदे ने भारत-पाकिस्तान का युद्ध रुकवा दिया। नहीं नहीं, यह मज़ाक़ नहीं है (बिहार चुनाव में एक कार्टून चल रहा है- मोदी जी ट्रंप की गोद में बैठे हैं)। आप बताइए भारत ने इस दावे को नकारा क्या! दोबारा अमरीकी राष्ट्रपति बनने से पहले ही ट्रंप के कहा, राष्ट्रपति बनते ही रूस और यूक्रेन के बीच जंग 24 घंटे में रुकवा दूंगा। इज़राइल के शिकार ग़ाज़ा में अब यह बंदा शांति से कारोबार फैलाने की भी हवस रखता है। माने शांति के लिए इस बंदे का कमिटमेंट क्या ग़ज़ब का है। और जाने कितने ही युद्धों में यह बंदा ‘स्वयंभू मसीहा’ की तरह प्रकट हुआ।
अगर आप ट्रंप को नोबेल के पक्ष में नहीं हैं तो आप बिल्कुल सकारात्मक नहीं हैं। जैसे हंसल मेहता साहब! फ़िल्मकार हंसल क्या बोले, ‘भाई इस बकैत की बकवास बंद करवाना ज़रूरी है, नोबेल देने से बंद हो जाती है तो दे ही दो, सौदा बुरा थोड़े है’। बताइए यह कोई बात हुई! आप कहेंगे सही तो है, ट्रंप रो रहा था, ‘मैंने भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध-विराम करवाया, कोसोवो और सर्बिया के बीच युद्ध रुकवाया मगर देखो यार, मुझे कोई नोबेल नहीं दे रहा है’। फिर आप यह भी कहेंगे कि देखिए, हंसल ने यह कटाक्ष किया और उसके फ़ौरन बाद अमरीका ख़ुद युद्ध में कूद गया।
आप ऐसा क्यों सोचते हैं? ऐसा क्यों नहीं कि ट्रंप न होता तो जंग कैसे रुकती। आप कहेंगे इज़राइल-ईरान के बीच युद्ध चल रहा था तो अमरीका ने ईरान पर हमला क्यों कर दिया। आप भूल जाते हैं इसमें बेचारे ट्रंप का क्या क़सूर। अमरीका के हमले कोई हमले कहां थे, भूल-चूक थी और भूल-चूक तो आप जानते हैं, लेनी-देनी। ट्रंप का बड़प्पन तो यह देखिए कि उसने इज़राइल को कितना डांटा, कितना डांटा और ईरान के ख़िलाफ़ चल रहे इस युद्ध पर भी विराम लगवा दिया, नहीं!
और आप यह क्यों नहीं सोचते कि इतना बड़ा आदमी, माने दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्रपति रो रहा है, गिड़गिड़ा रहा है कि उसे नोबेल चाहिए। अरबों-खरबों की संपत्ति के मालिक को बस 8 करोड़ रुपये का लालच है क्या! आप कहेंगे वह इतिहास में अपने गुनाहों को ढंकना चाहता है लेकिन मुआफ़ कीजै आप बहुत नकारात्मक हैं साहब। आप इतने बड़े आदमी का बाल-मन नहीं देख रहे। ऐसे आप आध्यात्मिक होते हैं, तो कहते रहते हैं अपने भीतर के बच्चे की हिफ़ाज़त कीजै। दुनिया का सबसे बड़ा ओहदेदार बाल-हठ कर रहा है, तो आप उसके इस अंतरराष्ट्रीय हठ-योगा को भी समझ नहीं पा रहे।
अच्छा लगता है इतना बड़ा आदमी अपनी ही दुनिया में एक शौक़ पूरा न कर सके? अपनी पसंद का खिलौना वह छीन भी सकता है लेकिन बिलख-बिलखकर मांग रहा है और आप हैं कि क्रूर बने बैठे हैं कि चुप रहो, नहीं देंगे। जैसे एक क्रूरता अलेग्ज़ेंडर ने की और ट्रंप को नोबेल दिये जाने के लिए जो अर्ज़ी सात-आठ महीने पहले भरी थी, वापस ले ली। बोला, ‘यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध रुकवाने की कूवत ट्रंप में है नहीं, पहले मुझे लगा था लेकिन अब मुझे उससे कोई उम्मीद नहीं रही’। माने एक खिलौने के लिए बच्चा रो रहा था और आपने उसके हाथ का लॉलीपॉप और छीन लिया।
अब पाकिस्तान और बडी कार्टर के नामांकन को भी आप या तो बेमानी कहेंगे, प्रायोजित बताएंगे या फिर इनका भी मज़ाक़ उड़ा देंगे। आप सकारात्मक क्यों नहीं हो सकते? अरे आप तो समझदार हैं, अगर ट्रंप को नोबेल देने में ख़तरा महसूस कर ही रहे हैं, तो एक बच्चे को बहलाने के लिए कोई तरक़ीब तो निकाल ही सकते हैं ताकि आप भी सकारात्मक दिखें। चलिए एक आइडिया देता हूं आपको।
नोबेल को आप एक दिलचस्प खिलौना बना दीजिए (रुकिए तो, यह न कहिए कि और है क्या)। देखिए, रोते हुए बच्चे को आपने खिलौना दिया। लेकिन शर्त रख दी कि देखो, अब तुमने कोई भी बदमाशी की तो हम वापस ले लेंगे। जैसे इधर, ईरान और इज़राइल युद्ध-विराम का ऐलान क्या हुआ, पलक झपकते ही बडी ने ट्रंप को नोबेल की सिफ़ारिश करने वाली अर्ज़ी दाख़िल कर दी। मान लीजिए कल फिर ट्रंप युद्ध करने लगा तब बडी क्या करेगा? अर्ज़ी वापस ले लेगा? फिर विराम हो जाएगा तो फिर अर्ज़ी लगा देगा?
यही खेल तो हमें खेलना है बस! दुनिया को इस समय युद्ध नहीं मनोरंजन की ज़रूरत है। इससे बेहतर मनोरंजन क्या होगा कि दुनिया के सबसे बड़े अवॉर्ड को दुनिया के सबसे बड़े आदमी के लिए सबसे मज़ेदार खिलौना बना दिया जाये। आज दे दीजिए, कल छीन लीजिए, फिर थमा दीजिएगा और फिर कोई बदमाशी हो तो फिर झपट लीजिएगा। जैसे भूल-चूक होती है लेनी-देनी, वैसे ही नोबेल हो जाये तो क्या हर्ज है! आख़िर दुनिया की सबसे बड़ी कुर्सियों पर जो लोग नेता-नेता बोलकर डटे हैं, वो भी तो भूल-चूक से ही हैं।
ख़ैर यह सब एक तरफ़, मैं सच में सकारात्मक हूं और यह भी चाहता हूं कि सिर्फ़ शांति का ही क्यों और भी नोबेल ट्रंप को क्यों न दिये जाएं। और कौन से..? हां, अब आप आये कुछ सकारात्मक मूड की तरफ़। बताता हूं।
सोचिए यह तो ट्रंप का कितना शुद्ध और निश्छल बाल-मन है कि वह सिर्फ़ शांति का नोबेल मांग बैठा है। बनता तो अर्थशास्त्र का नोबेल भी है उसके लिए। न-न, ‘टैरिफ़ वॉर’ जैसे शब्द अपने ज़ेह्न में बिल्कुल न आने दीजिए, बस यह सोचिए कि ऐसी बातें भर करके उसने दुनिया के अर्थशास्त्र को कितने मोड़ दे दिये। भारत-पाकिस्तान का तो युद्ध ही उसने अर्थशास्त्रीय परिकल्पनाओं से रुकवा दिया। ग़ाज़ा को वह निजी पूंजी का खेत बनाना चाहता ही है। चीन के साथ टैरिफ़ की बहस पर कितनी जल्दी एक हल तक पहुंचकर ट्रंप ने दुनिया को एक और युद्ध, ख़ासकर बड़े इकोनॉमिक वॉर से बचा लिया। माने वह अड़ जाता तो पूरी दुनिया की इकोनॉमी का क्या होता? आप पॉज़िटिवली सोचेंगे तो ट्रंप आपको, दुनिया जो जुआ खेल रही है, उसमें ट्रंप का इक्का ही नज़र आएगा।
अब यह भी विचारिए ज़रा कि केमिस्ट्री का नोबेल भी ट्रंप को क्यों नहीं मिलना चाहिए। न सिर्फ़ देशों के बीच बल्कि पूरे के पूरे क्षेत्रों की केमिस्ट्री को नियंत्रित, प्रभावित और परिवर्तित करने में उसकी भूमिका को आप कम मत आंकिए। कौन-सा देश किससे लड़े, कब तक लड़े, किससे न लड़े, कब तक न लड़े और कब गले मिले, कितनी देर के लिए… यही नहीं, पूंजीपतियों, उद्योग घरानों के साथ सिस्टम की केमिस्ट्री को लेकर भी ट्रंप के अभूतपूर्व योगदान का सही मूल्यांकन करना चाहिए। (विनोद त्रिपाठी के नाम से कार्टून मूवमेंट पर साझा कार्टून साभार)
अब आप कहेंगे कि यह तो अर्थ का अनर्थ वाली बात हो गयी। बात घुमा देने वाली बात हो गयी। और मैं कहूंगा कि यही तो सकारात्मकता का सही अर्थ है। आपको इस दुनिया में शांति से जीना है तो बात को घुमाते रहना पड़ेगा वर्ना जंग हर पल ताक में बैठी है। साहिर ने कहा था ना, ‘जंग टलती रहे तो बेहतर है’। उस नज़्म में बाक़ी सब इधर-उधर की बातें हैं साहब, असली लाइन यही है। साहिर को पता था अम्न मुमकिन नहीं है, शांति नाम की कोई चिड़िया है ही नहीं, वास्तव में कुछ है तो बस जंग है और सकारात्मकता बस इतनी-सी है कि इसे टाला जाता रहे। एक आप हैं कि जंग टालने वाले किसी शख़्स को नोबेल नहीं दे सकते? चलिए तो यह समझिए कि किसी को नोबेल देने से जंग टल सकती है क्या! अगर हां, तो दे दीजिए.. एक क्या सारे नोबेल दे दीजिए, जिस-जिस को देने से टलती है, उस-उस को दे दीजिए। आपको, हमको.. दुनिया को और चाहिए क्या, जंग टलती रहे बस।

भवेश दिलशाद
क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।
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एक बात तो यह है कि जिन बातों के पीछे मकसद क्या है हमारे जैसे आम आदमी जानते नहीं थे न ही ध्यान दिया ;वे भी इन बातों के पीछे की चालों को प्रस्तुत व्यंग्य के माध्यम से समझ पाए।
इसे हम व्याख्यात्मक व्यंग्य कह सकते है।
हम जिन खबरों को उड़ती नजर डाल कर चल आगे की फुनगी पर’ का दृष्टिकोण रखते हैं ; उनके पीछे कितनी सोची-समझी चालें हैं इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित करने में सफल हुआ है लेखन।तीखी टिप्पणियों में भी सतत् हास्य और विनोद भाव का निर्वहन है।
व्यंग्य में चुटीलेपन का यह अंदाज़ निराला है –
अमेरिका के हमले कोई हमले कहांँ थे, भूल-चूक थी, भूल-चूक लेनी देनी।ट्रंप का बड़प्पन तो देखिए उसने इजरायल को कितना डाँटा , कितना डाँटा ।
दुनिया की सबसे बड़ी कुर्सियों पर जो लोग नेता नेता बोलकर डटे हुए हैं वे भी तो भूल चूक से ही हैं।
अंत में व्यंग्य का दूसरा पक्ष संवेदनशील, गंभीर, विचारणीय रूप उभर कर सामने आया है जो आपकी शैली को सर्वथा अलग बनाता है।जो कारुणिक भी है और मर्मस्पर्शी भी —
एक क्या सारे नोबेल दे दीजिए जिस जिस को देने से टलती है जंग हमको क्या दुनिया को और क्या चाहिए जंग टलती रहे बस।’
अद्भुत , बहुत सराहनीय।
एक बात तो यह है कि जिन बातों के पीछे मकसद क्या है हमारे जैसे आम आदमी जानते नहीं थे न ही ध्यान दिया ;वे भी इन बातों के पीछे की चालों को प्रस्तुत व्यंग्य के माध्यम से समझ पाए।
इसे हम व्याख्यात्मक व्यंग्य कह सकते है।
हम जिन खबरों को उड़ती नजर डाल कर चल आगे की फुनगी पर’ का दृष्टिकोण रखते हैं ; उनके पीछे कितनी सोची-समझी चालें हैं इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित करने में सफल हुआ है लेखन।तीखी टिप्पणियों में भी सतत् हास्य और विनोद भाव का निर्वहन है।
व्यंग्य में चुटीलेपन का यह अंदाज़ निराला है –
अमेरिका के हमले कोई हमले कहांँ थे, भूल-चूक थी, भूल-चूक लेनी देनी।ट्रंप का बड़प्पन तो देखिए उसने इजरायल को कितना डाँटा , कितना डाँटा ।
दुनिया की सबसे बड़ी कुर्सियों पर जो लोग नेता नेता बोलकर डटे हुए हैं वे भी तो भूल चूक से ही हैं।
अंत में व्यंग्य का दूसरा पक्ष संवेदनशील, गंभीर, विचारणीय रूप उभर कर सामने आया है जो आपकी शैली को सर्वथा अलग बनाता है।जो कारुणिक भी है और मर्मस्पर्शी भी —
एक क्या सारे नोबेल दे दीजिए जिस जिस को देने से टलती है जंग हमको क्या दुनिया को और क्या चाहिए जंग टलती रहे बस।’
अद्भुत , बहुत सराहनीय।
शुक्रिया शशि जी
बहुत सही कहा आपने आदरणीय
बहुत उम्दा व्यंग्यात्मक आलेख भवेश जी।