
- June 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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तरह : तरह-तरह से
ग़ज़ल कड़े अनुशासन की पक्षधर है। यहाँ ज़रा-सी कमी होने पर गाड़ी पटरी से उतर जाती है। सबसे बड़ी चुनौती है छंद के अनुपालन की। ग़ज़ल का हर शे’र तयशुदा वज़्न में होना चाहिए। इस वज़्न को निभाने में सहयोग के लिए कई छूटें भी मिलती हैं। इन्हीं में एक छूट है- एक ही शब्द के एकाधिक वज़्न मान्य होना। ऐसे कई शब्द हैं जो प्रचलित मानकों के अनुसार एकाधिक वज़्न पर बरते जाते हैं। यहां ध्येय उन सभी का विवरण देना नहीं है। यह विवरण तो ग़ज़ल के व्याकरण से संबंधित प्रत्येक पुस्तक में संकलित है।
फ़िलहाल “तरह” शब्द के बारे में विवेचन प्रस्तुत है। “तरह” भी उन भाग्यशाली शब्दों में से एक है जिसके दो वज़्न प्रचलित हैं। ये दोनों वज़्न हम उर्दू ग़ज़ल की परंपरा से अपनाते हैं। दो वज़्न उच्चारण में भिन्नता के कारण हैं। “तरह” को जब “त रह” बोलते हैं तो उसका वज़्न 12 होता है जबकि “तर ह” (तर्ह) उच्चारित करते हैं तब इसे 21 के वज़्न पर लिया जाता है। उर्दू ग़ज़ल में इन दो वज़्न के अतिरिक्त कोई तीसरा वज़्न इस शब्द के लिए मेरे देखने में नहीं आया है। वहीं हिन्दीभाषी ग़ज़लकार कई जगह तीसरे ही नहीं चौथे वज़्न में भी “तरह” को बरतते हैं। पहले ये शे’र देखिए:
मैं शाख़ से टूटे हुए पत्ते की तरह हूं
आ जाऊं न पैरों के तले इतनी दुआ कर
मेरे अश्कों की वो भाप थी दोस्तो
एक ‘एंटीक’ की तर्ह बिकती रही
पहले शेर में “तरह” 12 के मात्रा भार पर बरता गया है जबकि दूसरे शेर में 21 के मात्रा भार पर। ये दोनों मात्रा भार ठीक हैं क्योंकि “तरह” और “तर्ह” दोनों उच्चारण प्रचलन में हैं। ग़ज़लकार अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार दोनों मात्राभार का उपयोग करते हैं। बोलने वाले इस शब्द को “तरहा” भी बोलते हैं और “तरे” भी। यही ज़ुल्म “जगह” के साथ भी होता आ रहा है- कभी “जगहा” तो कभी “जगे” बोलकर। मात्राभार उच्चारण के आधार पर तय होता है अतः कभी-कभी ग़ज़लकार इन उच्चारणों के अनुसार ही मात्राभार ले लेता है। ये शे’र देखिए:
कभी जहाज़ कभी कश्तियां बनाते हैं
नदी से इस (तरह) नज़दीकियां बनाते हैं
ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस (तरह) सीता को जनक रखता था
इन दोनों अशआर में “तरह” 11 के वज़्न में है। “तरह” का वज़्न 12 है और इस उच्चारण के कारण मात्रा पतन करते हुए 11 नहीं किया जा सकता क्योंकि “तरह” में “रह” शाश्वत दीर्घ है। उपर्युक्त दोनों अशआर में ग़ज़लकार ने अवश्य ही पहले “तरह” को ‘तरे’ उच्चारित किया और फिर मात्रा पतन की छूट लेकर 12 को 11 किया। यह मात्रा पतन नहीं “मात्रा हनन” है। “तरह” का यह वज़्न उर्दू शायरी में प्रचलित नहीं है लेकिन अगर कोई तद्भव थ्योरी का सहारा लेकर ऐसा करता है तो क्या किया जा सकता है?
ग़ज़लकार की कलाकारी और हुनरमंदी का एक उदाहरण देखिए जब वह निर्धारित नियम क़ायदों का पूरा सम्मान करते हुए “तरह” को 11 पर बरतता है।
आंसुओं की (तरह आंखों) में जड़ा हूं लोगो
दर्द का काँचमहल लेके खड़ा हूँ लोगो
– ज्ञानप्रकाश विवेक
यहां “तरह” वास्तव में 12 के उच्चारण के साथ ही है लेकिन “आंखों” के “आ” के साथ जोड़कर पढ़ने के कारण इस शब्दयुग्म का उच्चारण “तरहांखों” जैसा होगा। इस “तरहांखों” में “तर” के दोनों अक्षर “अ” की मात्रा के साथ (मुतहर्रिक) होने के कारण, “तर” का मात्रा भार एक दीर्घ (2) नहीं वरन दो लघु (11) होगा। इस प्रकार “तरह आंखों” (12 22) को “तरहांखों” की तरह उच्चारित करें तो मात्रा भार 1122 में परिवर्तित हो जाएगा। यह ट्रिक है। ग़ज़ल के व्याकरण की बहुत ही दिलकश प्रक्रिया है- वस्ल अर्थात संधि। कई बार आलोचक इसे शब्दों के साथ खिलवाड़ मानते हुए नापसंद करते हैं। मेरा मशवरा है कि “ग़ालिब” को पढ़िए। वस्ल के उदाहरण जितने “ग़ालिब” के यहां हैं उतने शायद ही अन्य किसी ग़ज़लकार के यहां होंगे। हिन्दी में भी ग़ज़लकार इसे मान्य समझते हैं।
प्रत्येक भाषा में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां बोलचाल में शब्द अपने साथ अन्य निरर्थक शब्दों की लाठी लिये घूमते रहते हैं। “तरह” पर चर्चा छिड़ी है तो लगे हाथ एक और फ़िनॉमिना देखिए। भाषा में शुद्धता के आग्रही “तरह” के साथ “से” के प्रयोग को अनावश्यक मानते हैं लेकिन बोलचाल में शैली या विधि को इंगित करना हो तब “से” धड़ल्ले से उपस्थिति दर्ज कराता रहा है। कुछ उदाहरण:
सूरत दिखाये अपनी, देखें वो किस (तरह से)
आवाज़ भी न हमको जिसने कभी सुनायी
-ज़ौक़
हमारे साथ ही पैदा हुआ है इश्क़ ऐ नासेह!
जुदाई किस (तरह से) हो जुदा तवअम भी होते हैं
-दाग़
तू इस (तरह से) मिरे साथ बेवफ़ाई कर
कि तेरे बा’द मुझे कोई बेवफ़ा न लगे
-क़ैसर उल ज़ाफरी
मैं चाहता हूँ कि तुम ही मुझे इजाज़त दो
तुम्हारी (तरह से) कोई गले लगाये मुझे
-बशीर बद्र
तो ये हैं “तरह” को “तरह-तरह से” बरतने के कुछ उदाहरण। जब भी कहीं भ्रम हो तो उस्ताद शायरों के कलाम का अनुसरण कीजिए।

विजय कुमार स्वर्णकार
विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
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