Pedagogy of the Oppressed, उत्पीड़ितों का शिक्षा शास्त्र
(विधाओं, विषयों व भाषाओं की सीमा से परे.. मानवता के संसार की अनमोल किताब -धरोहर- को हस्तांतरित करने की पहल। जीवन को नये अर्थ, नयी दिशा, नयी सोच देने वाली किताबों के लिए कृतज्ञता का एक भाव। इस सिलसिले में लगातार साथी जुड़ रहे हैं। साप्ताहिक पेशकश के रूप में हर सोमवार आब-ओ-हवा पर एक अमूल्य पुस्तक का साथ यानी 'शुक्रिया किताब'... -संपादक)

पुस्तक 'अर्थों का ताबूत' | पुस्तकालय 'शब्दों का श्मशान'

                                       (पाओलो फ़्रेरे की कृति पर एक चिंतनात्मक समीक्षा)
पाओलो फ़्रेरे की कालजयी कृति Pedagogy of the Oppressed (उत्पीड़ितों का शिक्षा शास्त्र) एक समय परिवर्तन की मशाल थी। इसने दुनिया के शैक्षिक ढाँचों को झकझोरा, शिक्षकों को शिक्षार्थियों से जोड़ने और शिक्षा को सत्ता-चक्र से मुक्त करने का सपना दिखाया। पर आज— जैसा कि शीर्षक दर्शाता है— यह पुस्तक “अर्थों का ताबूत” बन चुकी है और पुस्तकालय, जो कभी विचारों के ज्वलंत केंद्र होते थे, अब “शब्दों का श्मशान” प्रतीत होते हैं।
“जब विचारों के शव उठने लगते हैं, तब किताबें क़ब्रगाह बन जाती हैं।
जब शब्दों के पीछे का संघर्ष थम जाता है, तब पुस्तकालय श्मशान हो जाते हैं।”

शब्दों की मुक्ति बनाम शब्दों की समाधि

फ़्रेरे ने भाषा को मुक्ति का माध्यम माना था। वे कहते हैं कि उत्पीड़ित को सबसे पहले अपनी आवाज़ वापस चाहिए — सोचने, बोलने, प्रतिरोध करने की क्षमता। पर आज की शिक्षा व्यवस्था ने भाषा को फिर से सत्ता की ग़ुलामी में जकड़ दिया है। “संवाद” जो फ़्रेरे के लिए क्रांति का बीज था, अब औपचारिकता और परीक्षा के प्रश्न-पत्रों में बंद हो गया है। शिक्षा का संवादहीन तंत्र ही उसे अर्थहीन बना रहा है।

शिक्षा: जब शब्द ‘शस्त्र’ नहीं रहे

पाओलो फ़्रेरे की इस पुस्तक में शिक्षा कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। यह उत्पीड़न से मुक्ति का, आत्म-चेतना से क्रांति तक पहुँचने का मार्ग है। पर आज की शिक्षा, जिसे फ़्रेरे “बैंकिंग मॉडल” कहकर धिक्कारते हैं, फिर से उसी मुद्रा में लौट आयी है — जहां शिक्षक ईश्वर है और छात्र निष्क्रिय पात्र।

विचार अब उपदेश हैं, शब्द अब आदेश हैं।

फ़्रेरे कहते हैं– “Man’s ontological vocation is to become more fully human.” पर आज शिक्षा मनुष्य को कम मानवीय बना रही है – एक डेटा पॉइंट, एक उपभोक्ता, एक आज्ञाकारी तकनीकी इकाई।

संवाद: अब कोई नहीं पूछता “तुम कौन हो?”

फ़्रेरे का संपूर्ण दर्शन “संवाद” पर टिका है। वह संवाद, जिसमें शिक्षक और छात्र दोनों सह-निर्माता होते हैं। आज शिक्षा संवाद नहीं, प्रसारण है— एकतरफ़ा, एकदिश। पुस्तकें बोलती नहीं, छात्र सुनते नहीं। पुस्तकें अब ‘विचार’ नहीं रचतीं, वे अब ‘सिलेबस’ बन चुकी हैं।

Pedagogy of the Oppressed, उत्पीड़ितों का शिक्षा शास्त्र

शब्दों की क़ब्र उन्हीं पन्नों पर है, जिनमें क्रांति कभी गूंजती थी। आज वही पन्ने मौन हैं। जैसे किसी महान योद्धा के शव को सजा कर रखा हो — सम्मान सहित, पर जीवनहीन।

पुस्तकालय : एक सामूहिक विस्मरण का संग्रहालय

पुस्तकालय अब ‘ज्ञान’ का नहीं, ‘ज्ञान का निष्क्रिय संग्रह’ बन गया है। फ़्रेरे की किताब वहाँ मिल जाएगी, पर वह पढ़ी नहीं जाती, केवल दर्ज है। वह संघर्ष, जो लैटिन अमेरिका की गलियों से उठा था, अब पीएचडी थीसिस के फ़ुटनोट में सिमट गया है। कभी जो विचार सड़क पर चलते थे, अब केवल अलमारी में बंद हैं।

यह “अर्थों का ताबूत” इसलिए है क्योंकि हम उसमें अर्थ डालना बंद कर चुके हैं। हमने शब्दों को ‘शब्द’ बना दिया — अनुभवों से काटकर।

उत्पीड़न : अब वह स्पष्ट नहीं, पर और गहरा है

फ़्रेरे ने जिन उत्पीड़नों की बात की — आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक— वे अब और जटिल हो गये हैं। आज का उत्पीड़न “स्वीकार्य” बना दिया गया है। अब कोई यह महसूस ही नहीं करता कि वह उत्पीड़ित है।

स्वीकार्यता का यह भ्रम, शिक्षा के द्वारा ही तो पैदा किया गया है — और यही सबसे ख़तरनाक शोषण है।

फ़्रेरे कहते हैं: “To speak a true word is to transform the world.” पर आज ‘सच’ बोलना भी व्यर्थ लगता है, क्योंकि सुनने वाला ही नहीं बचा। हमने न केवल बोलने की क्षमता खोयी है, हमने सुनने की चाह भी खो दी है।

क्या यह ताबूत खुल सकता है?

क्या यह केवल आलोचना है? नहीं।

यह समीक्षा शोकगीत नहीं, सावधान गीत है। शब्द तभी पुनर्जीवित होंगे जब हम उन्हें फिर से अनुभव से जोड़ेंगे। पढ़ने की क्रिया तब क्रांतिकारी होगी जब उसमें जिज्ञासा, आत्म-प्रश्न और प्रतिरोध होगा।

पाओलो फ़्रेरे की पुस्तक कोई ज्ञान का स्रोत मात्र नहीं है। वह एक चुनौती है— पाठक को, शिक्षक को, समाज को। उस चुनौती को फिर से सुनना होगा। तब जाकर अर्थों का ताबूत टूटेगा और पुस्तकालय फिर से विचारों की आग में जल उठेगा।

अंतिम पंक्तियां:
शब्द मृत नहीं होते,
वे बस सो जाते हैं —
जब कोई उन्हें अपनी साँस से नहीं जगाता।

क़ब्र के नीचे की चिंगारी

हालाँकि यह समीक्षा निराशावादी लग सकती है, पर ‘ताबूत’ शब्द का चुनाव यह भी दिखाता है कि अर्थ अभी पूर्णतः मृत नहीं हुए हैं — वे केवल दफ़न हैं। आवश्यकता केवल उन पाठकों, शिक्षकों और आंदोलनकारियों की है, जो उस ताबूत को फिर से खोल सकें, विचारों में गर्मी भर सकें और पुस्तकालय को फिर से ‘विचारों के युद्धक्षेत्र’ में बदल सकें।

मेरे लिए तीन लेखकों ने सबसे अधिक आकर्षित किया है- कार्ल मार्क्स, पाओलो फ़्रेरे और सब कमांडेंट मार्कोस। इन तीनों ने मेरे जीवन जीने के ढंग, दृष्टिकोण और दुनिया को बदलने के तरीक़ों को समझने और बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इसमें कोई शक नहीं कि ये तीनों ही अपने तरीक़े से दुनिया को बेहतर बनाने की जद्दोजहद करते हैं और बनाते भी हैं। जेप्तिस्ता आंदोलन के लीडर सब कमांडेंट मार्कोस को पढ़ना कार्ल मार्क्स से आगे की राह थी और पाओलो फ़्रेरे को पढ़ना शब्दों के पीछे की ताक़त को समझने की दिशा थी।

बावजूद इनके अब दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है और इन तीनों का लेखन क़ब्रगाहों में बतौर ताबूत बंद है। इनमें कीलें हमने ही ठोकी हैं इसलिए वक़्त का इंतज़ार करना होगा जब कोई जीवन इन्हें ताबूतों से बाहर खुली हवा में लेकर आएगा।

पाओलो फ़्रेरे की पुस्तक ‘उत्पीड़ितों का शिक्षा शास्त्र’, सब कमांडेंट मार्कोस की ‘अवर वर्ड इज़ अवर वेपन’, और मार्क्स की ‘पूंजी अब हमारे हाथों में है’- क्या हम उन्हें श्मशान से वापस ला सकते हैं? या कोई भी पुस्तक जो आपके हाथों में है, उसे श्मशान से वापस ला सकते हैं?

(क्या ज़रूरी कि साहित्यकार हों, आप जो भी हैं, बस अगर किसी किताब ने आपको संवारा है तो उसे एक आभार देने का यह मंच आपके ही लिए है। टिप्पणी/समीक्षा/नोट/चिट्ठी.. जब भाषा की सीमा नहीं है तो किताब पर अपने विचार/भाव बयां करने के फ़ॉर्म की भी नहीं है। [email protected] पर लिख भेजिए हमें अपने दिल के क़रीब रही किताब पर अपने महत्वपूर्ण विचार/भाव – संपादक)

संजीव कुमार जैन

संजीव कुमार जैन

लंबे समय से साहित्य के स्वाध्याय एवं अध्यापन से जुड़े संजीव शासकीय महाविद्यालय, गुलाबगंज में हिंदी के सह प्राध्यापक हैं। आपकी अभिरुचि पढ़ना लिखना है लेकिन अधिक प्रकाशन से आप गुरेज़ करते हैं।

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