
- July 7, 2025
- आब-ओ-हवा
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(विधाओं, विषयों व भाषाओं की सीमा से परे.. मानवता के संसार की अनमोल किताब -धरोहर- को हस्तांतरित करने की पहल। जीवन को नये अर्थ, नयी दिशा, नयी सोच देने वाली किताबों के लिए कृतज्ञता का एक भाव। इस सिलसिले में लगातार साथी जुड़ रहे हैं। साप्ताहिक पेशकश के रूप में हर सोमवार आब-ओ-हवा पर एक अमूल्य पुस्तक का साथ यानी 'शुक्रिया किताब'... -संपादक)
चकित करते व्यक्तित्व का अद्भुत कृतित्व
यह पुस्तक आश्चर्यचकित भी करती है, प्रेरित भी करती है, आंदोलित भी करती है और कुछ कर गुज़रने के लिए मार्गदर्शित भी। जिस व्यक्तित्व के नाम हिंदी साहित्य का एक युग हो, वह किस तरह अपना साहित्य रचता है और कैसे अपनी भाषा की विविधता और जनपक्षधरता को रेखांकित करता है, यह इस पुस्तक से समझा जा सकता है।
हिंदी के आधुनिक स्वरूप के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र का रचना संसार बहुत व्यापक है। बहुत संक्षिप्त जीवन में इतना सब कुछ करना आश्चर्य में डालता है। भारतेंदु ने जितना कार्य अकेले अपने जीवन में किया, उस कार्य को आज कई संस्थाएं मिलकर भी नहीं कर पा रही हैं।
यह पुस्तक 1200 से अधिक पृष्ठों में समाहित है। इसके पहले खंड में भारतेंदु की काव्य रचनाओं को स्थान दिया गया है जिनकी संख्या 73 है। दूसरा खंड 24 नाटकों पर केंद्रित है। तीसरा खंड गद्य रचनाओं पर आधारित है। इसके अंतर्गत ऐतिहासिक रचनाएं भी हैं, अमर चित्रों की कहानी भी है। महत्वपूर्ण क्षेत्रों का इतिहास भी है, जो बहुत रोमांचित करता है। इसी के दूसरे खंड में धार्मिक रचनाएं हैं जो 50 से अधिक हैं। इसके अतिरिक्त भारतेंदु की विविध रचनाएं भी इसमें सम्मिलित हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र के जीवन से जुड़े प्रमुख चित्र भी इसमें प्रदर्शित किये गये हैं।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
इस पुस्तक को पढ़ना अपनी भाषा की समृद्धि से परिचित होना भी है। भारतेंदु ने हिंदी को तो आकार दिया ही, उर्दू में भी अपनी रचनाएं लिखीं और अंग्रेज़ सरकार को समझाने के लिए अंग्रेज़ी में भी अपना वार्तालाप किया।
यह पुस्तक इसीलिए महत्वपूर्ण प्रतीत होती है कि इसमें एक संक्षिप्त जीवन में बहुत गहन अनुभव और लेखन का वैविध्य नज़र आता है। हिंदी साहित्य को यदि समझना है तो इस पुस्तक से शुरूआत करना ही बेहतर होगा। यही कारण है कि आज भी मैं जब इस पुस्तक से गुज़रता हूं तो हर पृष्ठ से कुछ न कुछ सीखकर ही बाहर निकलता हूं।
(क्या ज़रूरी कि साहित्यकार हों, आप जो भी हैं, बस अगर किसी किताब ने आपको संवारा है तो उसे एक आभार देने का यह मंच आपके ही लिए है। टिप्पणी/समीक्षा/नोट/चिट्ठी.. जब भाषा की सीमा नहीं है तो किताब पर अपने विचार/भाव बयां करने के फ़ॉर्म की भी नहीं है। [email protected] पर लिख भेजिए हमें अपने दिल के क़रीब रही किताब पर अपने महत्वपूर्ण विचार/भाव – संपादक)

आशीष दशोत्तर
ख़ुद को तालिबे-इल्म कहते हैं। ये भी कहते हैं कि अभी लफ़्ज़ों को सलीक़े से रखने, संवारने और समझने की कोशिश में मुब्तला हैं और अपने अग्रजों को पढ़ने की कोशिश में कहीं कुछ लिखना भी जारी है। आशीष दशोत्तर पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते हैं और आपकी क़रीब आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं।
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