अरुणा दुबे

गीत अब

हमें स्वार्थ के लिए
तोड़कर ऐसा बाँटा है
ऐन पसलियों बीच
धँसा-सेही का काँटा है

जान गये एका की ताकत,
इसीलिए है तोड़ा
धर्म-जाति का मुद्दा, तिस पर
धन का सख्त हथौड़ा
चिड़ियों के मनचले झुण्ड
पर चीलझपाटा है

खोटा सिक्का उठा सभा के
बीच उछाल दिया
डाल फिटकरी दूध
सहज हो ख़ूब उबाल दिया
साबित किया वजूद
तुम्हारा-उखटा माठा है

अवसर पाकर भी जो
ख़ुद को सिद्ध न कर पाते हैं
अक्सर उनके ही हाथों
ये सूत्र दिये जाते हैं
होना था कोलाहल
पर पसरा सन्नाटा है

अंतस् को खदबदा रही
है यह भीषण चुप्पी
लपट बग़ावत की उठती है
ज्यों भभके कुप्पी
थकी देह, पर मन
भिड़न्त को अब भी पाठा है

अरुणा दुबे

अरुणा दुबे

1955 में जन्म। गीत, नवगीत, दोहा, मुक्तछंद, आलेख, निबंध, समीक्षा आदि विधाओं में रचनात्मक लेखन। अँजुरी भर नेह (प्रतिनिधि काव्य संग्रह) 1996, गीत जिये जाते हैं (नवगीत संग्रह) 2000, बागी हुई दिशाएं (गीत संग्रह) 2007। इसके अलावा एक आलोचना पुस्तक 'रामकिशोर मेहता के साहित्य में स्त्री विमर्श' 2021 में प्रकाशित।

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