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स्थानीयता का विश्व-स्वर.. हार्ट लैम्प

            बानू मुश्ताक़ का कहानी-संग्रह हार्ट-लैम्प, जिसे अंतर-राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, भारतीय भाषाओं के साहित्य के लिए एक उत्साहवर्धक उपलब्धि है। इस संग्रह की कहानियाँ कन्नड़ से अंग्रेज़ी में दीपा भास्ती ने अनूदित की हैं।

यह संग्रह बानू की लगभग 50 कहानियों में से चुनी गयी 12 कहानियों को प्रस्तुत करता है। हालाँकि कहानियों की पृष्ठभूमि घोषित रूप से ‘दक्षिण भारतीय मुस्लिम समाज’ है, इन्हें केवल उस दायरे में सीमित कर देखना अनुचित है क्यूंकि कहानियाँ धार्मिक अस्मिता को पहलू की तरह इस्तेमाल नहीं करतीं। अधिकतम यह बस उनके किरदारों का बुनियादी, प्राथमिक तथा सामाजिक व्यवहार का परिचय हैं। संग्रह की दो कहानियों को छोड़ दें तो बानू की इन कथाओं में लैंगिक असमानता और घरेलू हिंसा ही स्पष्टतः केंद्रीय विषय हैं। ये कथाएँ अक्सर जानी-पहचानी दिखती हैं क्योंकि उर्दू, हिंदी, पंजाबी, बाँग्ला तथा निश्चित ही अन्य भाषाओं में भी इस तरह की कहानियाँ और कथानक नज़र में भरपूर आते रहे हैं। बानू मुश्ताक़ का कथा संसार उनके रोज़मर्रा के संसार से उपजता है। वह एक्टिविस्ट हैं, वकील हैं तथा ‘बन्दाया आंदोलन’ का हिस्सा रही हैं। उनकी शुरूआती कथाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों का एक चलन वाला डायनामिक्स रहा है लेकिन कालांतर में वह इन संबंधों के जटिल पहलुओं को सामने लाती हैं।

‘फ़ायर रेन’ कहानी का ‘मुतवल्ली’, घर के भीतर बराबरी के दायित्वों से पलायन करता है, बहन जायदाद में अपना हिस्सा माँग रही है- पलायन के लिए वह साम्प्रदायिक उन्माद का सहारा तक लेता है कि बंटवारे और हक़ के सवाल उसके इर्द-गिर्द न घूमें। ‘स्टोन स्लैब फॉर शाइस्ता महल’ और ‘हाई हील्ड शू’ जैसी कहानियाँ ये भी दिखाती हैं कि किस तरह पुरुष अपनी पत्नियों के लिए सुख की अवधारणा खुद गढ़ते हैं, थोपा हुआ सुख, जो नियंत्रण चक्र तैयार करता है।

‘दि अरेबिक टीचर एंड गोभी मन्चूरी’ कहानी दिलचस्प और विचित्र है। इसमें सनक और हिंसा समानांतर चलते हैं। बच्चों को अरबी और क़ुरआन पढ़ाने वाला एक मुदर्रिस ‘गोभी मन्चूरी’ नाम के एक व्यंजन को बनाने और खाने के प्रति सनक दिखता है। कभी वह शादी के लिए देखने गयी लड़की से गोभी मन्चूरी बनाने की माँग करता है कभी शादी के बाद घरेलू हिंसा कि वह ‘गोभी मन्चूरी’ नहीं बना सकती। अरबी और क़ुरआन सीखने वाले बच्चों की माँ एक हाथ में गोभी मन्चूरी बनाने की विधि और एक तरफ़ मुदर्रिस का केस पढ़ती है। वह कभी इस सनक को मासूमियत समझती है कभी हिंसक। यह कहानी बानू मुश्ताक़ के लेखन के ‘व्यंग्य’ पक्ष की भी बानगी है।

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इन कहानियों में स्थानों की स्पष्ट भौगो-लिकता भले ही न हो, पर भाषा और संबंधों की स्थानीयता गहराई से मौजूद है। अनुवादक दीपा भास्ती ने इस बहुभाषी भारत के संदर्भ में, भाषायी विविधताओं और उनके सामाजिक संदर्भों को अनुवाद में गंभीरता से समझा है। उर्दू, दकनी, कन्नड़ बोलने वाले किरदारों का उच्चारण कैसे बदलता तथा स्थानीयता से प्रभावित होता है, अनुवाद में उसके प्रति संजीदगी बरती गयी है। कथाएँ हमारे लिए कुछ परिचित भले ही हों। इस अनुवाद का हमारे बीच भरपूर स्वागत है।

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निशांत कौशिक

1991 में जन्मे निशांत ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली से तुर्की भाषा एवं साहित्य में स्नातक किया है। मुंबई विश्वविद्यालय से फ़ारसी में एडवांस डिप्लोमा किया है और फ़ारसी में ही एम.ए. में अध्ययनरत हैं। तुर्की, उर्दू, अज़रबैजानी, पंजाबी और अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित। पुणे में 2023 से नौकरी एवं रिहाइश।

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