
मासूम बच्चों के क़त्ल पर आमादा सिस्टम
आपको हैरत नहीं होती यह जानकर कि बच्चों का ख़ौफ़, बच्चों की जान की आफ़त सुनने के लिए सिस्टम के किसी ज़िम्मेदार के पास वक़्त नहीं है! तो यक़ीन मानिए आपकी संवेदना मर चुकी है। राजस्थान के झालावाड़ में स्कूल भवन गिरने से पहले ख़तरे की शिकायतें थी, जब छत गिरना शुरू हुई तब भी बच्चों ने दौड़कर शिक्षकों को बताया, लेकिन मलबे में बच्चों के दब जाने तक किसी के कान पर जूं न रेंगी। ये हादसे अचानक नहीं हो रहे हैं। ये हादसे टाले जा सकते थे, अब भी रोके जा सकते हैं लेकिन ‘साहबों’ ने कानों में जाने कैसी रूई ठूंस रखी है कि नन्ही आवाज़ें तक उन तक चलकर आती हैं, तब भी अनसुनी रह जाती हैं।
शुक्रवार को झालावाड़ में स्कूल की छत गिर जाने से आधा दर्जन से ज़्यादा बच्चों के मारे जाने और दो दर्जन से ज़्यादा बच्चों के घायल होने की ख़बरें हैं। जब झालावाड़ में यह हादसा हो रहा था, तब मध्य प्रदेश के इंदौर में सिस्टम ऐसे या इससे भी बड़े हादसे की प्रस्तावना बनता हुआ नज़र आया।
इंदौर में एक सरकारी स्कूल के दर्जनों बच्चे 15 किमी पैदल चलकर कलेक्टर साहब को यह बताने पहुंचे थे कि ‘हमारा स्कूल कभी भी धराशाई हो सकता है और हमारी जान जा सकती है’। लेकिन आपकी इंसानियत और नागरिक भावना को यह सुनकर ज़रूर आहत होना चाहिए कि इन बच्चों की शिकायत सुनने के लिए कलेक्टर आशीष सिंह के पास पांच मिनट भी नहीं थे। वह मीलों पैदल चलकर आये इन बच्चों से मिले तक नहीं। वहां मौजूद लोगों ने इन बच्चों की शिकायत को राजनीतिक रंग देने की कोशिश भी की।
ऐसे मामले को एक तरफ़ मुख्यधारा के मीडिया से जबकि कोई सपोर्ट नहीं मिलता है, तब इंदौर के अनुभवी पत्रकार अर्जुन रिछारिया ने इसे रिपोर्ट किया। अपने निजी सोशल मीडिया हैंडल से उन्होंने इंदौर के इन स्कूली बच्चों का दर्द बयान करते हुए सिस्टम और किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके नागरिकोंं को झिंझोड़ने की कोशिश की।
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खतरनाक हैं मप्र के सरकारी स्कूल!
अप्रैल 2025 में दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में 8वीं तक के 83,249 सरकारी स्कूलों में से 59,000 में यह हाल है कि कक्षाओं को तत्काल मरम्मत की ज़रूरत है। तपती गर्मी गुज़र गयी और आफ़त की बारिश का मौसम तक आ चुका है लेकिन ‘तत्काल’ का अर्थ समझने के लिए प्रशासन ने अब तक किसी डिक्शनरी का इंतज़ाम नहीं किया।
अभी एक हफ़्ते पहले ही एनडीटीवी की एक रिपोर्ट है ‘क्लासरूम आफ़ ब्रोकन प्रॉमिसेज़’, जो खुलकर कहती है कि मध्य प्रदेश में सरकारी स्कूलों का सिस्टम न केवल पतन की ओर है बल्कि ध्वस्त हो चुका है। यूनेस्को के आंकड़ी देती यह रिपोर्ट राज्य की पूरी शिक्षा व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर देती है और साफ़ शब्दों में कहती है कि आंकड़ों के खेल से लगातार नाकामी की रीब्रांडिंग करने में ही सिस्टम सारी प्रतिभा ख़र्च कर रहा है।
पिछले एक साल में प्रदेश में कितने स्कूलों के भवन ढहे हैं? गूगल पर सर्च करने पर कोई आधिकारिक डेटा नहीं मिलता, लेकिन ग्वालियर, धार, नरसिंहपुर जैसे अनेक ज़िले के सरकारी स्कूलों में ऐसे हादसे होने के समाचार दिखायी देते हैं।
फ़ंड जा कहां रहा है?
पिछले क़रीब 7 सालों से मध्य प्रदेश सरकार ने शैक्षिक सिस्टम के लिए बजट लगातार बढ़ाया है। 2016-17 में जो बजट 16,226.08 करोड़ रुपये था, वह 2023-24 में 29,468.03 करोड़ रुपये हो गया। इसके बावजूद एजुकेशन सिस्टम की हालत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखता। जनवरी 2025 की एनडीटीवी की ही एक और रिपोर्ट कहती है बजट के इन आंकड़ों के बावजूद कई सरकारी स्कूल मूलभूत संरचना और सुविधाओं का टोटे से जूझ रहे हैं।
इतना बजट लगातार जा कहां रहा है? बच्चों की शिकायतें सुनने का वक़्त अफ़सरों के पास नहीं है, ‘तत्काल’ मरम्मत की ज़रूरतें पूरी होने की कोई समयसीमा नहीं है, बच्चों की जान ख़तरे में डालने वाले सिस्टम की कोई जवाबदेही तय नहीं है… जिस दौर में ज़रा ज़रा सी बात पर पूरा समाज इस तर्क के साथ सड़कों पर उग्र हो जाता है कि उसकी सांप्रदायिक या जातीय भावना आहत हुई, उस समाज की नागरिक भावना, राष्ट्र भावना, बच्चों के प्रति अभिभावकीय भावना कितनी मौतों के बाद आहत होगी?
—आब-ओ-हवा डेस्क