सफ़र बड़ा है सोच से..

हम बोलेंगे

सफ़र बड़ा है सोच से..

भवेश दिलशाद

याद आते हैं पिता, जिनकी संगठनात्मक क्षमता, जिजी-विषा, निडरता बेमिसाल थी। मेरे हिस्से में उनके बाक़ी गुण भले बहुत सीमाओं के साथ हों पर दुआ रहती है कि पिता का जीवट, उनका तेवर नये विस्तार के साथ पा सकूं। याद आ रहा है पहले ‘आब-ओ-हवा’ के लिए साल भर पहले लिखा संपादकीय। तब लिखा था हम अभिव्यक्ति के जोखम लेते हुए अदब और कला जगत में वक़्त की नब्ज़ टटोलेंगे और कुछ रचनात्मक ढंग से आगे बढ़ेंगे… अब एक साल में लगता है, जो सोचा था, जो चाहा था, ‘आब-ओ-हवा’ ने कुछ हद तक तो हासिल किया, पर अभी..

हुनर बड़ा है उम्र से, दुख से बड़ा जुनून

सफ़र बड़ा है सोच से, दिल को कहां सुकून

एक लंबे सफ़र का एक मोड़ है, पल भर को ठहरना भर है। एक आंधी वक़्त की रेत उड़ा ले जाएगी, सो एक नज़र पलटकर देख लेने की हसरत। जो दूरी तय हुई, उसमें हमसफ़र रहे क़दमों को निहारने की चाहत। तलवों में चुभे कांटों पर मुस्कुराने, एक सांस की फ़ुरसत लिये बैठकर अपनी भूलों को याद करने और उनके लिए ख़ुद को मुआफ़ करने का वक़्त भी है ताकि और शिद्दत से आगे बढ़ा जा सके।

इस एक साल में अनेक प्रतिसाद, सुझाव आपसे मिले, कई साथियों ने रचनात्मकता में साथ दिया, ‘आब-ओ-हवा’ के विचार और मक़सद में जिस-जिसने विश्वास जताया.. सभी को दिल की तहों से न सिर्फ़ शुक्रिया कहना है बल्कि दुआएं देना है। यह अहसास भी कि हम महत्वाकांक्षी सफ़र को सार्थक बनाकर ही रहेंगे। अभी बहुत काम करने हैं। भाषा के पुल की रस्सियां बांधना शुरू किया है, उन्हें थामे रखना है; साहित्य, कला, समाज के बीच पुल बांधने की कोशिश की है, अभी बंधना है; एक-दो माध्यमों से बात रखी है, मल्टीमीडिया की तरफ़ बढ़ना है…

तुम्हारा नाम गर लिक्खा है क़िस्मत

हमारा नाम इरादा लिक्खा जाये

इरादों की ख़ूबसूरती वादे या दावे में नहीं है। कोशिशों में है। हमारे पास संसाधन भले सीमित हों, लेकिन इरादे बेहद हैं। यह यक़ीन भी कि रास्ते जो बन्द हैं, जल्द खुलेंगे, खुलते जाएंगे क्योंकि हमारी नीयत भी नेक है। हम किसी ‘प्रौपैगैंडा’ या ‘एजेंडा’ वाले गुटों से विलग, ईमानदारी के साथ बात रखने की दिशा में हैं। साहित्य, समाज और समय की बात।

प्रतिक्रियावादी समय अजीब ढंग से आपको गिरफ़्त में लेता है। यह या वह? इस तरफ़ या उस तरफ़? कुछ एक विद्वानों ने परामर्श की आड़ में चाहा भी कि ‘आब-ओ-हवा’ उनके पक्ष-पोषण का मंच बन सके। सार्थक विचारों का हमेशा स्वागत है लेकिन बहुत विनम्रता के साथ कहना चाहते हैं कि प्रौपैगैंडा की गुटबन्दी के जाल के प्रति सजग रहने की ज़रूरत हम समझते हैं। दिल-दिमाग़ के संतुलन, रूह से निकलती आवाज़ के साथ खड़े होना बेहतर है। अपनी रचनात्मकता के आयाम तलाशना बेहतर है। हम अपनी कोशिशों से दुनिया को, आने वाले वक़्त को जितना बेहतर बना सकते हैं, उस तरफ़ सोचना है। दावों के बजाय ‘आब-ओ-हवा’ बेहतर के सफ़र के लिए तैयार है, इस पर अग्रसर भी।

तमाम मजबूरियों को, तमाम हीले-हवालों को और पिछली तमाम जकड़नों को छोड़कर अपने ही साथ चलिए। आपका ऐसा करना ही हमारा साथ देना है। ‘आब-ओ-हवा’ का कैनवास जल्द बड़ा हो रहा है, लगातार बढ़ने की उम्मीद है। हमें अनेक सृजन-धर्मियों का साथ चाहिए। साहित्य, कला और समाज के जुड़ाव का एक बड़ा सपना हम देख रहे हैं, इस सपने को साकार करने के लिए ख़ुद को झोंकने का। एक मुनासिब मक़सद के लिए ख़ुद को सौंपने वालों का साथ देने और उन्हें हमराह करने का.. फिर याद आ रहा है वह शेर, जो पहले ‘आब-ओ-हवा’ की प्रस्तावना में दर्ज किया था, उसी के साथ यहां बात मुल्तवी करता हूं:

हवाएं तेज़ हैं मुंहज़ोर हैं ख़िलाफ़ भी हैं

ये इब्तिदा है मुनासिब किसी सफ़र के लिए

भवेश दिलशाद

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

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