जन संस्कृति मंच

‘फासीवादी विभाजनकारी प्रवृति के ख़िलाफ़ एकता’ का आह्वान

…इस थीम पर केंद्रित होगा जन संस्कृति मंच का 17वां राष्ट्रीय सम्मेलन, 300 लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी रांची में जुटेंगे

 

                जन संस्कृति मंच (जसम) का 17 वां राष्ट्रीय सम्मेलन 12 व 13 जुलाई को रांची (झारखंड) के सोशल डेवलपमेंट सेंटर में आयोजित हो रहा है। इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली, उत्तराखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना, मुम्बई (महाराष्ट्र) आदि राज्यों से 300 से अधिक लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी शामिल होंगे। इनमें स्त्री रचनाकारों की अच्छी खासी संख्या होगी। सम्मेलन की थीम है ‘फासीवाद की विभाजनकारी संस्कृति के खिलाफ जनता की एकता के लिए’। दो दिवसीय सम्मेलन में इसी थीम को केन्द्र कर चर्चा होगी और भविष्य के सांस्कृतिक आंदोलन को दिशाबद्ध किया जाएगा।

यह जानकारी जसम के राष्ट्रीय महासचिव मनोज सिंह के द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से दी गई। उन्होंने बताया कि सम्मेलन का उद्घाटन जानी-मानी सोशल एक्टिविस्ट नवशरण सिंह करेंगी। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रोफेसर रविभूषण करेंगे। इस सत्र में फिल्मकार संजय काक तथा अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज का भी संबोधन होगा। ये दोनों सम्मेलन में विशेष अतिथि के बतौर शिरकत करेंगे। बिरादराना संगठनों के प्रतिनिधियों का भी वक्तव्य होगा।

सम्मेलन के दूसरे दिन महासचिव के प्रतिवेदन पर विभिन्न राज्यों और कला व संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों द्वारा चर्चा होगी तथा आगे के कार्यभार तय किए जाएंगे। यह सम्मेलन जसम के पदाधिकारियों और नई कमेटी का गठन करेगा। कला और संस्कृति के विविध क्षेत्रों को लेकर निकाय बनाए जाएंगे। महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा को लेकर जेन्डर सेल का भी गठन होगा।

दोनों दिन शाम में बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल आदि राज्यों की सांस्कृतिक टीमों और कलाकारों के द्वारा गीत-गायन, काव्य व नाटक सहित विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे।

गौरतलब है कि जसम की राष्ट्रीय परिषद की ओर से भारतीय फासीवाद की खासियत, उसके चाल-चरित्र, सांस्कृतिक चुनौतियों तथा सम्मेलन की वैचारिक दिशा को लेकर एक आधार पत्र जारी किया गया है। इसमें कहा गया है “भारत में वर्तमान सत्ता ने धीरे धीरे लोकतंत्र के सब कपड़े उतार फेंके और फ़ासीवादी असलियत के साथ हमारे सामने है। बकौल मुक्तिबोध, ‘मानव के सब कपड़े उतार वह… रीछ एकदम नग्न हुआ’। फिर भी धर्मान्धता की धुंध, बहुमतवाद के आतंक, अस्थिपंजर में बदलते किन्तु सांस ले रहे लोकतांत्रिक ढाँचे की मौजूदगी और विकास के ढोंग के चलते अभी भी बहुतों के सामने यह फासिस्ट नग्नता उजागर नहीं है।”

‘फासीवाद हमेशा पीछे देखता है’

आधार पत्र के अनुसार, “भारतीय विशेषताओं वाली फासिस्ट सत्ता महज राजनीतिक नहीं हैं – वह पूँजी की सत्ता, धर्म की सत्ता, वर्ण और जाति की सत्ता, पितृसत्ता को मजबूत बनाते हुए और जन-चेतना में इन विषमताओं को सहज, स्वीकार्य – यहां तक कि काम्य बनाने का सांस्कृतिक समर छेड़े हुए है। यह कोई परिणति तक पहुंची वस्तु नहीं, वरन एक सतत प्रक्रिया है जिसका अभ्यास 100 सालों से चल रहा है। आज़ादी की लड़ाई और समाज सुधार आन्दोलनों की जिस विरासत ने हमें समता, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल्य दिये, उस पूरी विरासत को मिटाकर, तहस-नहस करके पूरे समाज को एक अंधी सुरंग में ले जाया जा रहा है।

फ़ासीवाद सदैव ही अतीतोन्मुखी होता है, भले ही वह भविष्य की लाख कसमें खाता रहे। समाज और संस्कृति के सतत विभाजन और उनसे उत्पन्न वैमनस्य उसकी सत्ता की खुराक है, जिसे वह इतिहास और स्मृति को विकृत करने के विराट अभियान से हासिल करता है। यह अभियान भीषण दमन के बगैर सफल नहीं हो सकता। देश की शिक्षा-व्यवस्था को फ़ासिस्ट मंसूबों के अनुकूल आमूल-चूल बदलने और उच्चतर शिक्षा संस्थाओं को विचारहीन, विकल्पहीन करने की मुहिम जारी है।

आज सत्ता की तमाम जांच एजेंसियां और कानूनी मशीनरी फ़ासीवादी एजेंडा के खिलाफ उठे हर संगठन, समूह, व्यक्ति या आवाज़ पर कहर बन कर टूट पड़ी हैं। मीडिया इनके इशारे पर नफ़रत फैलाने और विरोध की हर आवाज़ को बदनाम करने का औजार बन चुका है। चुनाव आयोग समेत, मानवाधिकार, महिला, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों के हितों की हिफाज़त के लिए बनी न जाने कितनी ही संवैधानिक संस्थाएं न केवल खोखली कर दी गई हैं, बल्कि उन्हें अब उन हितों के खिलाफ हथियार बनाया जा रहा है, जिनकी हिफाज़त के लिए वे बनाई गयी थीं। राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद चुनी हुई विपक्षी सरकारों को न चलने देने और उनके विरुद्ध माहौल बनाने का उपकरण बने हुए हैं।

संविधान को दरकिनार कर संविधान-विरोधी क़ानून बनाने और सर्वोच्च न्यायालय पर नकेल कसने और अंततः उसे अपना संवैधानिक दायित्व पूरा करने से वंचित करने के षडयंत्र रोज़-ब-रोज़ किए जा रहे हैं। 80 करोड़ भारतवासी पेट भरने के लिए सरकारी अनाज पर निर्भर हैं और कारपोरेट बिलिनेयर्स की संख्या बढ़ती जाती है। आदिवासियों और किसानों ही नहीं, बल्कि धार्मिक संस्थानों की ज़मीन भी कारपोरेट के हवाले करने के लिए हर तरह के कानूनी और गैर-कानूनी हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। बेरोज़गारी आज़ादी के बाद से अपने सबसे चरम स्तर पर है। शासकों के पास इनका हल नहीं, लिहाजा निर्बाध दमन का बुलडोजर चलाकर और जन-चेतना की नदी में उन्माद और नफ़रत का ज़हर हर दिन धर्माचार्यों और नेताओं के नफरती भाषणों, व्हाट्सएप्प, फिल्मों और सोशल मीडिया के ज़रिये प्रवाहित कर वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अपना विशिष्ट भारतीय फ़ासिस्ट प्रकल्प पूरा करने में जुटे हुए हैं।

हमारा देश विभिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं, प्रांतीय, जनजातीय और लैंगिक समूहों का महासमुद्र है जिसने साम्राज्यवाद से लड़ते हुए अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को पाया था। इस विविधता को परस्पर वैमनस्य में बदलकर और उसमें निहित एकता को भीतर से तार-तार कर उसके ऊपर भ्रामक, षड्यंत्रकारी सांस्कृतिक एकरूपता की चादर फ़ासीवादी निज़ाम ताकत के ज़ोर से चढ़ाना चाहता है। देश के तमाम इलाकों के किसान, मज़दूर, नौजवान, अल्पसंख्यक, आदिवासी, पिछड़े और दलित तबके, कलाकार और बुद्धिजीवी जिस हद तक इसकी भीषणता को समझ रहे हैं, उसका हर संभव प्रतिकार कर रहे हैं। जन संस्कृति मंच अपना 17वां राष्ट्रीय सम्मेलन जनता की इसी फ़ासीवाद-विरोधी एकता के निर्माण के लिए समर्पित करता है। इस उद्देश्य के लिए हर किसी लोकतांत्रिक ताकत के साथ एकजुटता का इज़हार करता है।”

— प्रेस विज्ञप्ति

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