एक थे परवीन कुमार अश्क..

एक थे परवीन कुमार अश्क..

         एक थे परवीन कुमार अश्क, पंजाबी टोन में बात करते थे। जब भी फ़ोन आता, दिल धक से हो जाता, कम से कम दो घंटे गये। बुज़ुर्ग थे, सीधा कौन बोलता है कि बहुत देर हो गयी है… हाँ-हाँ करके मैं उनसे बातें करता रहता। बात-बात पर कहते, मैं ये हूँ, वो हूँ। ये बशीर बद्र मेरे आगे, वो निदा, वो फ़लाना कुछ नहीं, मैं बस जी-जी करता।

जिससे नदिया रूठ गयी है
हम हैं ऐसे घाट के पत्थर

आज मिट्टी का दिया भी नहीं जलता उन पर
जिन मुँडेरों से कभी चांद उगा करते थे

मौसम सूखे पेड़ गिराने वाला था
किसी किसी में फूल भी आने वाला था

        एक बार मुंह से प्रवीण साहब, निकल गया। झुंझला के बोले ये हिंदी वालों की तरह मेरा नाम न लिया करो। जब भी बात करते, कुछ ग़ुस्से में लगते… मैंने शेर कहा- किसी भी उम्र में लड़की ये बूढ़ी हो नहीं सकती/ग़ज़ल को आता है हर दौर में सजना संवर जाना। उनका जब फ़ोन आया तो उन्हें ख़ुश करने के लिए बोल दिया। मैंने लड़की आप के एक शेर से चुरा ली है। हालांकि बशीर बद्र साहब के किसी शेर में लड़की लफ़्ज़ पढ़ा था, वहीं से पहले मेरी स्मृति में और फिर वो लड़की मेरे शेर में आ गयी थी, लेकिन शेर सुनकर वह मेरी तारीफ़ करने के बजाय बिफर गये। देखो सलीम ऐसा न किया करो। चोरी करना कोई अच्छी बात है क्या?

दीवार-ओ-दर पे शहर के लड़कों ने लिख दिया
हर लड़की बेवफ़ा है, ग़ज़ल तेरे शहर में

वो लड़की कबकी मर गयी याद आया
मैं किसको आवाज़ लगाने वाला था

इक लड़की ने किया ख़राब
वरना अश्क तो साधू था

दीवाना लड़का क्या जाने
हर लड़की हरजाई होगी

         मैंने फ़ेसबुक के मित्र-शायरों के शेरों को किताबी शक्ल में छपवाया था, किताब उनको भी भिजवायी थी। मुझसे कहते यार सलीम मेरी किताब छपवा दो, मैंने भी हामी भर ली, उन्हें अपने नाम की तलाश थी, जो उनके हाथों से ही छिटककर कहीं गुम हो गया था।

गुलाब सबके मुक़द्दर में तो नहीं होते
तू ज़र्द पत्तों से गुलदान को सजा रखना

जो नदी के किनारे सूख गया
आ तुझे वो शजर दिखाऊँ मैं

जो दाना ढूंढने निकला था घर से
वो पंछी आज तक लौटा नहीं है

भटक न जाऊं कहीं तीरगी के जंगल में
दिया दुआ का मेरे वास्ते जला रखना

इसलिए धरती से रिश्ते तोड़कर बैठा हूँ अश्क
इक फ़रिश्ता आएगा और चांद पर ले जाएगा

         शायर क्यों लिखता है? क्यों अपनी रातों की आंखों में चुभन भरता है? बहुत दिन से उनका कोई फ़ोन कॉल नहीं आया। फिर अचानक फ़ेसबुक पर किसी की पोस्ट से पता चला कि वह अब नहीं रहे।

एक मूरत बनायी थी मैंने
काट डाले मेरे ख़ुदा ने हाथ

क़ब्र में घर बना लिया मैंने
हाँ ज़मींदार हो गया हूँ मैं

       परवीन कुमार अश्क फ़ेसबुक पर मिले थे और यहीं बिछड़ गये। उन्होंने अपनी दो किताबें मुझे भेजीं, एक हिंदी और दूसरी उर्दू में… वो बड़े आदमी थे।

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

3 comments on “एक थे परवीन कुमार अश्क..

  1. मज़ा आया परविन कुमार अश्क पर लिखा आलेख पढ़कर। कहन की रोचकता ने आनंदित किया।बधाई सलीम भाई। उद्धृत शेर उम्दा हैं।

  2. कुछ लोग दिल से शायर तो होते हैं परंतु जैसी उम्मीद खुद से होती है वैसा बयान नहीं कर पाते ; उस बेचैनी और टीस को बहुत बारीकी से उभारा है आपने ।परवीन कुमार अश्क जी को भी आज अच्छा लग रहा होगा।

  3. कुछ लोग दिल से शायर तो होते हैं परंतु जैसी उम्मीद खुद से होती है वैसा बयान नहीं कर पाते ; उस बेचैनी और टीस को बहुत बारीकी से उभारा है आपने ।परवीन कुमार अश्क जी को भी आज अच्छा लग रहा होगा।

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