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पुल बनाने का वक़्त

            सैकड़ों पुल बने फ़ासले भी मिटे
           आदमी आदमी से जुदा ही रहा – रौनक़ नईम

नाउम्मीदी का यह सुर चीखों की पुकार है। एक तरफ़ मंगल पर कॉलोनी, अंतरिक्ष पर्यटन और दूसरी तरफ़ अपनी ही ज़मीन पर ख़ून से सनी एक दुनिया, जहां जंग की हवस में हज़ारों बच्चे, औरतें, मासूम इंसान भूख से, प्यास से, बेघरी से, बीमारी से मारे जा रहे हैं। जंग की हवस, इंसानियत के, हमदर्दी के सारे पुल तक तोड़े दे रही है।

इस जंग के ख़िलाफ़ एक लड़ाई चलती रहती है पर कामयाब कितनी हो पाती है? किताबें, संगीत और अन्य कितनी ही कलाएं समाजों, देशों, संस्कृतियों और दिलों को जोड़ती हैं। फ़िल्मकार किरण राव ने शंघाई फ़िल्मोत्सव में कहा, ‘सिनेमा संस्कृतियों के बीच एक पुल बनाता है’; एशियाई ओलिंपिक परिषद ने दोहराया, ‘कूटनीति का सर्वोत्तम उपाय खेल हैं’; जो भी कुछ इस ​दुनिया में जोड़ने का ज़रिया बनता है, वह पुल है। पहला काम पुलों को बचाना है और दूसरा, नये पुल बनाना।

यहां बारिश का मौसम है। जगह-जगह पुल टूट रहे हैं। लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। यह सब अचानक क़तई नहीं हो रहा है। नये भारत में न जाने कितने पुल इतने पुराने हैं कि ढहने की बाट जोह रहे हैं। पुलों की मरम्मत में चवन्नी न देने वाली सरकारें मौतों के बाद नये पुलों के लिए भारी बजट चुटकी में मंज़ूर कर रही हैं। बेशक नये पुल बन रहे हैं। लेकिन इनमें भी कुछ जानलेवा ही साबित हो रहे हैं। बार-बार साबित होता है निर्माण में भ्रष्टाचार कूट-कूटकर भरा है और नीतियां दूरंदेश नहीं हैं।

कुछ और पुलों की बात भी.. दूर की सोच रखकर लिये जाने वाले फ़ैसलों के लिए एक शब्द है कूटनीति। यह शब्द कई दिनों से लगातार चर्चा में है। युद्ध की गौरवगाथा सिद्ध करने के मक़सद से भारत सरकार ने सांसदों के भारी-भरकम दल दुनिया भर में भेजे। उससे पहले से लेकर अब तक भारत की कूटनीति के संदर्भ में जानकार फ़िक्रमंद हैं। पाकिस्तान के साथ कुछ घंटों की जंग के बाद देश और दुनिया में यही गिनती की जा रही है कि दुनिया के कितने मुल्क भारत के साथ खड़े रहे और कितने पाकिस्तान के साथ। भारत की कूटनीति क्या रंग ला रही है? पड़ोस से लेकर शीर्ष वैश्विक शक्तियों के साथ… कितने पुल दरक चुके हैं और कितनों में दरारें गहराती जा रही हैं?

अब देखिए, घर-आंगन के भीतर की दरारें भी किससे छुपी हैं। जो बातें दबी ज़ुबान में हम दीवारों से करने में सकुचाते थे, आज लाउडस्पीकर वो सब खुलेआम भौंक रहा है। भावनाएं जैसे हर घड़ी भड़कने के लिए तैयार हैं। नफ़रत एक डायनामाइट है। समाज के उस पुल को तोड़ने के लिए बिछाया जाता है, जो अपनेपन, साथ और साझा सफ़र की बुनियाद पर खड़ा है।

दुनिया को घर मानने वाली विचारभूमि में आज घर-घर में अपनेपन, आपसी भरोसे और सहारे के पुल ध्वस्त हैं। घर-घर की कहानी है कि घर का अर्थ ढह रहा है और एक टूटन घर कर रही है।

राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों ने एक और ख़ौफ़नाक तस्वीर ​बतायी है। देश में हर साल जितने युवा ख़ुदकुशी कर रहे हैं, उनमें से सबसे ज़्यादा इसलिए कि वो अपने परिवार या संबंधों की समस्याओं से हार जाते हैं। परिवार नाम की संस्था ख़त्म है। विलुप्त होने के ख़तरे में। हम देश और दुनिया को एक परिवार कहते भले ही रहें, पर यह शब्द अब एक भरम या छल मात्र सुनायी नहीं देता?

संबंधों की हालत और ख़स्ता है। बात चाहे एक दो बीएचके की हो या सरहदें साझा करने वाले हमारे आस-पास के सात मुल्कों की या दुनिया भर की… संबंध में सबसे अहम है संवाद, स्वस्थ संवाद, खुला और गुणवत्तापूर्ण संवाद। असहमतियों के बावजूद समाधानमूलक संवाद। संचार की दिन दूनी-रात चौगुनी सहूलतों के बावजूद संवाद संकट में है। जो ढह रहा है, क्या वह पुल यह संवाद ही है? बहुत पहले एक नज़्म में मैंने कहा था-
मुहब्बत की हवाएं कहती हैं
कि पुल सिर्फ़ बनते हैं,
जो टूट जाते हैं, उन्हें पुल नहीं कहते

अब यही सवाल कौंधता रहता है जिनकी नियति टूट जाना ही है, क्या उन्हीं को पुल कहते हैं? फिर भी, कहीं एक उम्मीद है कि बहुत पहले की इसी शायरी वाली फ़ैंटैसी ही कोई रंग ला सकती है और दोस्तो, जब तक नहीं लाती है, बोलो कि पुलों को बचाने – नये पुल बनाने के लिए हम बोलेंगे।
आपका
भवेश दिलशाद

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और हां –

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भवेश दिलशाद

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

2 comments on “पुल बनाने का वक़्त

  1. सैंकड़ों पुल बने फ़ासले भी मिटे
    आदमी आदमी से जुदा ही रहा
    – रौनक़ नईम

    क्या ख़ूब कहा है! और कैसी विडंबना है यह – और पुलों की तरह इंसानों के बीच के पुल भी एक के बाद एक टूटते ही जा रहे हैं। बल्कि अब तो यूँ लगता है, फ़ासले मिटाने की बजाय, उनको बढ़ाने पे ज़्यादा ज़ोर है!
    वक़्त आ गया है ऐसे पुल बनाने का, जिन्हें पुल कह सकें… जो कभी टूट न पाएं…

  2. बेज्ञद उम्दा, पुल के बहाने बहुत सारी सामयिक बातें और बातें के बहाने कटाक्ष। बहुत खूब भाई ।
    इस अवसर पर इंदौर के शायर महेंद्र शर्मा का एक शेर याद आ गया –
    अब नदी पर पुल बनाने की ज़रूरत न रही
    मैंने अपने यार को उस पार से लौटा दिया।
    (मतला- बे-सलीके से नहीं तो प्यार से लौटा दिया
    मैंने अपनी शोहरतो को द्वार से लौटा दिया। )

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