
- June 30, 2025
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उमराव जान अदा: पतनशील लखनऊ का कष्ट-काव्य
“उमराव जान अदा” एक मशहूर नॉवल है। पहली बार 1899 में प्रकाशित हुआ था। कुछ लोग उसे उर्दू ज़बान का पहला विधिवत नॉवल भी कहते हैं। इसमें लखनऊ के समाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक पहलुओं की झलक तो है ही, साथ ही यह एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित नॉवल भी है।
कहानी फ़ैज़ाबाद से अपहरण की हुई लड़की अमीरन की है, जो बाद में उमराव जान अदा के नाम से प्रसिद्ध हुई। किस तरह वह तवाइफ़ की ज़िंदगी बसर करने लगी और क्या-क्या घटनाक्रम अमीरन की ज़िंदगी में आये, इनका दिलचस्प विवरण है। देशकाल 19वीं सदी के लखनऊ का है। वहां की जीवन शैली का सजीव चित्रण किया गया है कि उस दौर का लखनऊ हमारी आँखों के सामने जीवंत हो जाता है।
उमराव जान अपनी ख़ूबसूरती, शोख़ अदाओं और नाच गानों के साथ अपनी शायरी के लिए बहु प्रसिद्ध थी। हर शाम उसका कोठा घुंघरुओं की झनक, शराब के पियालों की खनक और शे’र-ओ-शायरी की आह और वाह से गूंज उठता। ख़ानदानी रईस, जोशीले नवाबज़ादे, गुंडे मवाली, शराबी-कबाबी सभी वहां आते। इस ज़माने में तवाइफ़ों को समाज का अभिन्न हिस्सा माना जाता था। अमीरों का वहां जाना और दौलत और दबंगई की नुमाइश एक फ़ैशन था। मिस्सी प्रथा, आम भाषा में नथ उतराई की रस्म थी। मिस्सी तवाइफ़ों की परिभाषा में यह शादी का जश्न था। तवायफ़ें मिस्सी यानी चने और आटे का मिश्रण शरीर पर मलने लगती थीं। एक बड़ा जश्न होता और जो व्यक्ति भारी रक़म अदा करने में सक्षम होता वो कुंवारी तवायफ़ का कौमार्य नष्ट करने का अधिकारी होता था। इसके लिए मालदार नवाब काफ़ी रक़म ख़र्च कर देते थे और कोठे की मालकिन को बड़ी आमदनी हो जाती थी। जिस्मफ़रोशी एक संगठित कारोबार था। शरीफ़ घरों की बच्चीयों को अगवा करके कोठों पर बेच देने की घटनाएं आम थीं। तवाइफ़ों का सिक्का चलता था। हद तो ये है कि कोठों को शिष्टता और संस्कृति सीखने का केंद्र बना दिया गया था और शरीफ़ज़ादे वहां आदाब सीखने के लिए भेजे जाते थे।
इसे समग्र रूप से लखनऊ के पतनशील समाज का कष्ट काव्य कह सकते हैं। लेखक ने सुधार के सुझाव भी दिये हैं और साबित किया है कि औरत की अस्ली ज़िंदगी वैवाहिक और परिवारिक है। घर की चार-दीवारी ही औरतों के सम्मान और पवित्रता की गारंटी हो सकती है। कोठे की ज़िंदगी, यौवन और शरीर के आकर्षक बने रहने तक बरक़रार रहती है। बाद में रुस्वाई और दर-दर भटकना ही नियति बन जाती है।
जहां तक किरदारों की बात है तो मुख्य किरदार ख़ुद उमराव जान अदा का है। इसके अतिरिक्त इतने अन्य किरदार हैं जो शायद ही किसी नॉवल में हों। मगर सभी महारत और सच्चाई के साथ पेश किये गये हैं। अहम किरदार हैं, ख़ानम, बिसमिल्लाह जान, ख़ुरशीद जान, गौहर मिर्ज़ा, नवाब सुल्तान, नवाब छबन वग़ैरा। प्लॉट सीधा सादा और प्रवाही है। निरंतरता बनी रहती है। एक ही क़िस्सा है मगर इससे संलग्न कई क़िस्से समानांतर चलते हैं। हर किरदार अपने प्रोफ़ेशन की नुमाइंदगी करता हुआ संवाद करता है। जा-ब-जा शायरी की महफ़िलों को पेश करने का अंदाज़ दिलकश है, जिससे पढ़ने में दिलचस्पी बनी रहती है।
1981 में मुज़फ़्फ़र अली ने इसी नाम से फ़िल्म बनायी थी, जिसमें रेखा ने अदाकारी से उमराव जान अदा को ज़िंदा कर दिया था। 2006 में भी एक फ़िल्म बनी। पाकिस्तान में भी 1972 में इस पर फ़िल्म बन चुकी थी। एक टीवी सीरियल भी बना।
मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा लखनवी
पैदाइश 1857 में लखनऊ में। पिता मिर्ज़ा मुहम्मद तक़ी थे। पूर्वज ईरान से हिन्दोस्तान आये थे। रुस्वा की प्रसिद्धि शायर और नॉवलनिगार (उपन्यासकार) के रूप में है। उन्हें उर्दू, फ़ारसी, अरबी, इब्रानी, अंग्रेज़ी, लातीनी, यूनानी भाषाओं में महारत थी। विलक्षण व्यक्ति थे। बहुत-सी कलाओं में पारंगत: मनोविज्ञान, ज्योतिष, हकीमी, रसायनशास्त्र, संगीत के अलावा शायरी में सिद्धहस्त। यह भी कहा जाता है उन्होंने शॉर्ट हैंड और टाइप का बोर्ड बनाया था। कम अर्से में कई नॉवल लिखे, “इफ़शा-ए-राज़”, “ज़ात शरीफ़”, “शरीफ़ ज़ादा”, “अख़तरी बेगम”। देहांत 21 अक्तूबर 1923 हैदराबाद में।

डॉक्टर मो. आज़म
बीयूएमएस में गोल्ड मेडलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।
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