
- June 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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शिक्षा नीति को समझें
औपचारिक शिक्षा व्यवस्था की पूरी इमारत खड़ी ही इस आधार पर है कि वह नयी पीढ़ी में बदलते समय के अनुकूल क्षमताओं या क़ाबिलियत का विकास कर सके। हर विद्यार्थी बीज रूप में भिन्न क्षमताओं व संभावनाओं को ख़ुद में समेटे हुए होता है। शिक्षा का काम खाद, हवा, पानी, मिट्टी देकर इन्हें विकसित करना है। पूरी प्रक्रिया में भले ही बच्चे की रुचि, पसंद, मनोविज्ञान या क्षमता का केंद्रीय स्थान हो, पर शिक्षा व्यवस्था की पूरी कार्यप्रणाली और पाठ्यचर्या ही इसे व्यावहारिक रूप से सम्भव बनाती है। आख़िर कौन होगा जो एक पढ़े-लिखे व्यक्ति से प्रभावशाली संवाद कला में माहिर होने, समस्या समाधान प्रस्तुत करने, तार्किक और संवेदनशील नज़रिया रखने और व्यवहार कुशल होने की अपेक्षा न रखता हो! क्या शिक्षा ऐसा करती है या कर पाती है? यह एक बड़ा और ज़रूरी सवाल है।
लगभग चार दशक बाद आयी नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में विद्यार्थियों में क्षमताओं या क़ाबिलियत के विकास पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इसी शिक्षा नीति को आधार बनाकर आयी ‘विद्यालयी शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2023’ में तो इस पर विस्तार से बात की गयी है। स्कूली शिक्षा के पाँच प्रमुख उद्देश्य इस दस्तावेज़ में दर्शाये गये हैं- तर्कसंगत विचार और स्वतंत्र सोच, स्वास्थ्य और कल्याण (वेल-बीइंग), लोकतांत्रिक और सामुदायिक भागीदारी, आर्थिक भागीदारी और सांस्कृतिक भागीदारी। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए कुछ ज़रूरी मूल्यों व स्वभाव (डिस्पोज़िशन) और क्षमताओं के विकास को ज़रूरी माना गया। हमारे स्कूलों को इन्हें आधार बनाकर ही अपनी पूरी प्रक्रिया को संपन्न करना होगा।
मूल्य किसी भी समाज में उचित या अनुचित को लेकर विकसित हुई समझ दर्शाते हैं। नयी शिक्षा नीति में वर्णित उद्देश्यों को पूर्ति के लिए कुछ ज़रूरी मूल्यों के निर्माण, विकास और बढ़ावा देने की बात की गयी है। इनमें भी अपनी विरासत और परंपरा से निकले, मानवतावादी और संविधान प्रदत्त मूल्यों को स्रोत माना गया है। इस सूची में एथिकल और नैतिक मूल्य (सेवा, स्वच्छता, अहिंसा, सत्य, निष्काम कर्म, सहिष्णुता, आदर आदि), लोकतांत्रिक मूल्य (आज़ादी, समानता, न्याय, समावेश, विविधता के प्रति सम्मान आदि), ज्ञानशास्त्रीय मूल्य (वैज्ञानिक चेतना आदि) को शामिल किया गया है। इसी के साथ ही कुछ स्वभावगत स्थितियों (डिस्पोज़िशन) के विकास की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया गया है जो शिक्षा के उद्देश्यों को पूर्ति के लिए ज़रूरी हैं। ये स्वभावगत स्थितियां हमारे रवैये और धारणाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। दस्तावेज़ में सकारात्मक कार्य नैतिकता या एथिक (जैसे ईमानदारी, सततता, न्यायपूर्ण तौर तरीक़ों को अपनाना आदि), जिज्ञासा और आश्चर्य, भारतीय जड़ों के प्रति गर्व की भावना जैसे डिस्पोज़िशन पर जोर दिया गया है।
अब क्षमताओं की बात। दस्तावेज़ में इसको प्रक्रियात्मक ज्ञान के तौर पर देखा गया है, यानी ‘जानना कि कैसे।’ जैसे- यह जानना कि कैसे संवाद करना है, कैसे आलोचनात्मक चिंतन करना है या कोई काम किस तरह से हो पाएगा। योग्यता और कौशल इसके ज़रूरी उप अंग हैं जो समझ आधारित कार्य करने के क़ाबिल बनाते हैं। क्षमताओं को कई छोटे-छोटे कौशलों में तोड़ा जा सकता है इसलिए कौशलों को क्षमताओं का उपतत्व कहा जा सकता है।
दस्तावेज़ में कई क्षमताओं की बात है। इनमें शामिल हैं- अन्वेषण, संचार, समस्या समाधान और तार्किक सोच, सौंदर्यात्मक व सांस्कृतिक क्षमताएं, कार्य, स्व प्रबंधन, स्वास्थ्य की क्षमताएं, भावात्मक आयाम के साथ साथ सामाजिक संलग्नता की क्षमता। सवाल उठता है कि इन क्षमताओं का विकास कैसे हो? यह दस्तावेज़ इसका रास्ता सुझाते हुए कहता है, “इन क्षमताओं को जान-बूझकर और सचेत तरीक़े से भागीदारी और अभ्यास के द्वारा ही विकसित किया जा सकता है।” (पृष्ठ 50)
दस्तावेज़ में उकेरी गयी इन आकां-क्षाओं और कार्ययोजनाओं को अपनाकर ही वर्तमान शिक्षा संस्थान व विद्यालय अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह सही ढंग से कर सकते हैं। पर इसके लिए ज़रूरी है कि समाज में, परिवारों में, शिक्षकों में, अभिभावकों में और अन्य हितधारकों में इस पर व्यापक विमर्श और संवाद हो, समझ का निर्माण हो। यह लेख इसी दिशा में एक प्रयास है।

आलोक कुमार मिश्रा
पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।
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