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(विधाओं, विषयों व भाषाओं की सीमा से परे.. मानवता के संसार की अनमोल किताब -धरोहर- को हस्तांतरित करने की पहल। जीवन को नये अर्थ, नयी दिशा, नयी सोच देने वाली किताबों के लिए कृतज्ञता का एक भाव। इस सिलसिले में लगातार साथी जुड़ रहे हैं। साप्ताहिक पेशकश के रूप में हर सोमवार आब-ओ-हवा पर एक अमूल्य पुस्तक का साथ यानी 'शुक्रिया किताब'... -संपादक)

सार्वभौमिक और सार्वकालिक 'द जंगल'

                                                          — शशि खरे

          बर्नार्ड शॉ ने अप्टन सिंक्लेयर को एक पत्र में लिखा था- “तथ्यों के विवरण इतिहास नहीं होते। वे तब तक महज़ इतिवृत्तात्मक ब्यौरे होते हैं जब तक कोई कलाकार-कवि-दार्शनिक उनके घटित होने की वास्तविक प्रक्रिया की अबोधगम्य अव्यवस्था से उनका उद्धार न कर दे।”

अप्टन सिंक्लेयर ने यही किया- उस काल का शिकागो देखा और वहांँ मांस पैकिंग करने वाले मज़दूरों का नर्क देखा। उन्नीसवीं सदी की साम्राज्यवादी भूख, लूटमार, बर्बर ग़ुलामी देखी, सर्वहारा क्रांतियों की पराजय और पूंँजीवाद का प्रसार देखा और वे लगातार रिपोर्टिंग करते रहे अपने उपन्यासों में। खोजी पत्रकारिता के अन्यतम उदाहरण है, उनके उपन्यासों की यह शृंखला- द मेट्रोपोलिस, द मनी चेंजर्स, द मशीन, बॉस्टन, नो पैसारान।

इनमें ‘द जंगल’ शिकागो के स्टॉकयार्ड के यातनादायी घोर अमानवीय स्थितियों में काम करने वाले मज़दूरों के बारे में धारावाहिक रूप में लिखा गया था। उस अख़बार की बिक्री के रिकार्ड टूट गये। जितनी लोकप्रियता मिली ‘द जंगल’ को, उतना अधिक उसे दबाया गया। बुर्जुआवादी पत्रों ने इसे अंधकार और संत्रास की खुली अभिव्यक्ति और धनिकों से नफ़रत का लेखन बताया।

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‘द जंगल’ के हिंदी अनुवादक सत्यम ने इसे “ये सादा रुखड़ा, निर्मम गद्य” कहकर संबोधित किया। यह वह कोलाज है, जिसमें ज़िबह होने वाले पशुओं और ज़िबह करने वाले मनुष्यों की असहाय अवस्था में कोई अंतर नहीं है। यह अमानवीय रंग चटख होकर उभर आया है।

आंँकड़ों सहित आंँखों देखा हाल की रिपोर्टिंग की तरह यह उपन्यास जितना सीधा-सपाट लिखा गया है, उतनी ही अधिक बेचैनी, त्रास और पीड़ा जनित थरथराहट मन में पैदा करता है। सिंक्लेयर के लेखन का आरंभिक दौर एमिल ज़ोला फ्रैंक नोरिस से प्रभावित था। पूँजीवादी शोषण, ग़ुलामी, बेरोज़गारी, अक्षय दैन्यता के पंजों से स्वतंत्र करने की उत्कंठा एवं सर्वहारा वर्ग के प्रति निष्ठा होने पर भी अप्टन सिंक्लेयर किसी एक तरफ़ कट्टर नहीं थे। वे अनुभववाद को मानते थे।

उन्हीं के शब्दों में “जीवन का मेरे लिए मतलब है एमिल ज़ोला के फ़ॉर्म में पर्सी शेली के कंटेंट को रखना।”

1900 वीं सदी के आरंभ से पूरी दुनिया में सर्वहारा साहित्य व पुनर्जागरण काल के दार्शनिकों के लेखों ने समाज के मध्यवर्गीय व दबे-कुचले लोगों में जागरूकता की लहर पैदा कर दी थी। गोर्की, जैक लैंडन, अप्टन सिंक्लेयर के कथा साहित्य बुर्जुआ अतिचारों, मेहनतकशों के कष्टों, बेगारी, ग़ुलामी और धर्म के पाखंडों को उजागर कर रहे थे। सामंती समाज कसमसा रहा था।

1908 में ‘दि आयरन हील’ पर प्रतिबंध लगाया गया, उसकी प्रति रखने पर अनेक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। इस क्रांतिकारी लेखन ने दुनिया में तहलका मचा दिया था, पूंजीवाद झुंझला रहा था। रूज़वेल्ट ने एक भाषण में इन लेखकों के बारे में कहा- “हाथ में कूड़ा छांटने, बीनने का कसिया (मकरेक) थामे ये आदमी जो कहीं नहीं, बस नीचे की ओर देख सकता है मकरेकर ही तो है।”

समाजवादी क्रांतिकारी लेखकों का यह अपमान समाज का कूड़ा-कर्कट साफ करने के अर्थ में सम्मान देने वाला बन गया।

‘द जंगल’ ने ट्रेड यूनियन आंदोलन, अमेरिकन मज़दूरों को प्रेरणा दी। राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने भी उपन्यास पढ़कर लिखा- ‘उपन्यास के द्वारा समाजवाद के पक्ष में किये गये प्रचार से असहमत हैं किन्तु मानते हैं कि मांस पैकिंग उद्योगों की नारकीय स्थितियों को सुधारना होगा।’ इस प्रकार ‘द जंगल’ की आवाज़ से अमेरिका में प्योर फूड ड्रग्स एक्ट और मीट इंस्पेक्शन एक्ट लागू हुआ।

शिकागो की पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह उपन्यास सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। पात्रों और स्थानों के नाम बदलकर दुनिया के किसी भी क्षेत्र में बसे शोषक और शोषितों का अक्स है यह। यही नहीं, यह पुस्तक लोकप्रियता के मामले में भी चमत्कार है। आम तौर पर भावभीने रोमानी या मार्मिक कथानक जनप्रिय होते हैं। जबकि यह एक रिपोर्ट थी, सीधी साफ़, कोई कलाकारी नहीं। तब इसकी सादगी की शक्ति अप्रत्याशित है, जिससे जनसैलाब उमड़ा और शक्तिशाली सत्ता को झुका दिया। यह किताब बड़ी है, रूखी है और उतनी ही चुंबकीय है।

(क्या ज़रूरी कि साहित्यकार हों, आप जो भी हैं, बस अगर किसी किताब ने आपको संवारा है तो उसे एक आभार देने का यह मंच आपके ही लिए है। टिप्पणी/समीक्षा/नोट/चिट्ठी.. जब भाषा की सीमा नहीं है तो किताब पर अपने विचार/भाव बयां करने के फ़ॉर्म की भी नहीं है। [email protected] पर लिख भेजिए हमें अपने दिल के क़रीब रही किताब पर अपने महत्वपूर्ण विचार/भाव – संपादक)

Shashi

शशि खरे

ज्योतिष ने केतु की संगत दी है, जो बेचैन रहता है किसी रहस्य को खोजने में। उसके साथ-साथ मैं भी। केतु के पास मात्र हृदय है जिसकी धड़कनें चार्ज रखने के लिए लिखना पड़ता है। क्या लिखूँ? केतु ढूँढ़ता है तो कहानियाँ बनती हैं, ललित लेख, कभी कविता और डायरी के पन्ने भरते हैं। सपने लिखती हूँ, कौन जाने कभी दुनिया वैसी ही बन जाये जिसके सपने हम सब देखते हैं। यों एक कहानी संकलन प्रकाशित हुआ है। 'रस सिद्धांत परम्परा' पुस्तक एक संपादित शोधग्रंथ है, 'रस' की खोज में ही। बस इतना ही परिचय- "हिल-हिलकर बींधे बयार से कांटे हर पल/नहीं निशाजल, हैं गुलाब पर आंसू छल-छल/झर जाएंगी पुहुप-पंखुरी, गंध उड़ेगी/अजर अमर रह जाएगा जीवन का दलदल।

4 comments on “सार्वभौमिक और सार्वकालिक ‘द जंगल’

  1. जंगल किताब का मुखपृष्ठ , शुक्रिया किताब के खूबसूरत रूपांकन के साथ बहुत खूबसूरत लग रहा है।

    बहुत बढ़िया डिजाइन किया गया है।
    बधाई संपादक जी।

  2. बहुत सुंदर पहल. किताबों में जीवन बदल देने की क्षमता होती है. शशि जी की लेखनी में गहन अध्ययन की गंभीरता है तो विषय को सहजता से लेने का सामर्थ्य भी है.
    इस किताब का परिचय आपके अंदर जिज्ञासा पैदा करता है कि आप समाज़ की इस सच्चाई को भी जानें. सार्थक हुआ आपका , इससे किताब को सामने लाना.

  3. इतनी गहनता से कोई डूबकर पढ़ने वाला ही लिख सकता है। आपकी टिप्पणी संदर्भित किताबों की आत्मा तक को छूती है। आपकी बैचेनी भी साफ झलकती है। यह बेचैनी बनी रहे।

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