
- April 26, 2025
- आब-ओ-हवा
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गूंजती आवाज़ें
आभासी दुनिया और इलियास राहत
सलीम सरमद
नसीरुद्दीन शाह के किसी इंटरव्यू में सुना था- “अगर आप थिअटर आर्टिस्ट हैं और कोई बड़ा प्लेटफ़ॉर्म नहीं मिल रहा है, तो चार हमख़याल दोस्त पकड़ो, मोबाइल कैमरा लो, कोई स्क्रिप्ट उठाओ और किसी कमरे में परफ़ॉर्म कर दो… कौन रोकने वाला है।” सच तो यही है कि आज प्रतिभा कोई खोज नहीं रहा है। टैलेंट हंट के नाम पर व्यापार ज़रूर हो सकता है लेकिन प्रतिभावान इस पचड़े में क्यों पड़े? उसके लिए अवसर खुले हैं। सिंगर हो तो गाओ रील्स हैं, यू ट्यूब है, फेसबुक है… शायर के लिए हर पोस्ट निजी मैगज़ीन है, व्हाट्सएप ग्रुप हैं, इंस्टाग्राम है और तमाम ऐसे एप्स हैं, इस तरह पूरी दुनिया एक स्टेज है। जिसे लोग आभासी दुनिया कहते हैं, वो अब क़िस्मत का ताला बन चुकी है। फ़ेसबुक पर मेरे मित्र हैं शमीम हयात, उनका एक शेर है-
अगर मेहनत से मिल पाती तो ये मज़दूर को मिलती
यहां जिसको मिली है बस मुक़द्दर से मिली दुनिया
शायरी क्या है? जिसके लिए क़िस्मत के इस ताले को खोला जाये… कौन-सी ऐसी चाबी है, जिसे लोग वाक़ई शायरी कहें? आस-पास नज़र दौड़ाएं, देखें कि शहर की सड़कों पर कैसे छोटे-बड़े वाहन मांझे की तरह उलझते हैं? इंसानों का रेला किस ओर बहता है? धर्म-उत्सव के प्रतीक लाउडस्पीकर-डीजे क्यों बने हैं? क्यों एक बेहूदा-सा शोर समाज की धड़कनों का अपहरण करने पर उतारू है? किस तरह दुनिया भर की सत्ताएं न्याय और मीडिया के दम पर अट्टहास करती हैं? कब तक सांप्रदायिकता का ज़ोर रहने वाला है? इन्हीं सवालों के दरमियान तय करें कि शायरी की दिशा और शायर का उद्देश्य क्या होना चाहिए? शमीम हयात का शेर है-
आँखें खोलो पागल लड़की इतनी मत उम्मीद रखो
जिसने पायल पहनाई है ज़ंजीरें भी डालेगा
शायर शेर क्यों कहे? उद्देश्य के साथ-साथ लोकप्रियता भी ज़रूरी है लेकिन लोकप्रियता के पीछे भागना फ़िज़ूल है। भीड़ क्या सुनना चाहती है और वो क्या सुनाना चाहता है, इसके बीच शायर एक पुल बना सकता है, जिसके लिए उसे हर हाल में आम ज़बान में शायरी करनी होगी हालांकि उस पुल पर ख़याल का बोझ रखना आसान नहीं है, जनता की नब्ज़ को पकड़कर चलना आसान नहीं है और उससे धकधक करती संवेदना की नाज़ुक-सी गाड़ी निकालना आसान नहीं है, फिर भी प्रयास तो करना होगा। शमीम हयात का शेर है-
ज़िंदा रहे तो धूप में जलते बदन रहे
मरने के बाद लाश पे साया किया गया
जाने कितने शायर अपनी तमाम कोशिशें करते रहे मगर उनका नाम न हुआ, थक-हार के बैठ गये पर किसी ने पुकारा तक नहीं, वक़्त से पहले सो गये और किसी ने याद भी नहीं किया… लेकिन उससे फ़र्क़ क्या पड़ता है? टैलेंट तो क़ब्रों से भी बाहर निकल आता है। शायर इस आभासी दुनिया में दुबारा लौटेंगे। प्रतिभावान आभासी दुनिया के दर पे दस्तक देंगे और क़िस्मत का ताला खोल देंगे। शमीम हयात के उस्ताद जनाब इलियास राहत साहब की एक ग़ज़ल-
मुद्दतों में जब मिले तो पास आ कर रो पड़े
खिल उठे थे वो अचानक मुस्कुरा कर रो पड़े
उनसे पूछा मैंने जब तर्क-ए-तअ’ल्लुक़ का सबब
वो मुझे हीरों जड़े कंगन दिखा कर रो पड़े
जो मिरी बर्बादियों की साज़िशें करते रहे
वो फ़सादी क्यों मिरा छप्पर जला कर रो पड़े
तुमसे कुछ कहना है मुझको रोज़ कहलाते थे वो
मिल गये तो बस लबों को कंपकंपा कर रो पड़े
वक़्त-ए-रुख़्सत तो कहा हँसकर ख़ुदा-हाफ़िज़ मगर
सब्र का जब बाँध टूटा दूर जा कर रो पड़े
हाल जब पूछा तो ‘राहत’ हो न पाया ज़ब्त-ए-हाल
दफ़अ’तन आँचल में वो चेहरा छुपा कर रो पड़े

सलीम सरमद
1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।
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