
- May 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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ज़ालिम को रुसवा हम भी देखेंगे
तरक़्क़ी-पसंद तहरीक के इब्तिदाई दौर का अध्ययन करें, तो यह बात सामने आती है कि तरक़्क़ी-पसंद शायर और आलोचक ग़ज़ल विधा से मुतमइन नहीं थे। उन्होंने अपने तईं ग़ज़ल की पुर-ज़ोर मुख़ालफ़त की, उसे जानबूझकर नज़र-अंदाज़ किया। शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी, तो ग़ज़ल को काव्य विधा की हैसियत से मुर्दा करार देते थे। विरोध के पीछे अक्सर दलीलें होती थीं कि ग़ज़ल नये दौर की ज़रूरतों के लिहाज़ से नाकाफ़ी ज़रिया है। कम अल्फ़ाज़, बहरों-छंदों की सीमा का बंधन खुलकर कहने नहीं देता। लिहाज़ा उस दौर में उर्दू अदब में मंसूबाबंद तरीके़ से नज़्म आयी। फै़ज़, अली सरदार जाफ़री, साहिर, कैफ़ी, वामिक़ जौनपुरी और मजाज़ वगैरह शायरों ने एक से बढ़कर एक नज़्में लिखीं। इनने ग़ज़लें भी लिखीं, लेकिन मजरूह ने सिर्फ़ ग़ज़ल लिखी।
मजरूह सुल्तानपुरी उन शायरों में शामिल रहे, जिन्होंने ग़ज़ल की हमेशा तरफ़दारी की और इसे ही अपने जज़्बात के इज़हार का ज़रिया बनाया। ग़ज़ल के बारे में उनका नज़रिया था, ‘‘मेरे लिए यही एक मोतबर ज़रिया है। ग़ज़ल की ख़ुसूसियत उसका ईजाज़-ओ-इख़्तिसार और जमइय्यत व गहराई है। इस ऐतिबार से सबसे बेहतर सिन्फ़ है।’’ अली सरदार जाफ़री के अल्फ़ाज़ में कहें, तो ‘‘मजरूह ग़ज़ल के आँगन में किसी सिमटी सकुचाई दुल्हन की तरह नहीं, बल्कि एक निडर, बेबाक दूल्हे की तरह दाख़िल हुए थे।’’ ग़ज़ल की जानिब मजरूह की ये बेबाकी और पक्षधरता आख़िर समय तक क़ायम रही। अलबत्ता रिवायती ग़ज़ल के घिसे-पिटे मौज़ूअ और तर्ज़-ए-बयान को उन्होंने अपनी तरफ़ से बदलने की पूरी कोशिश की। कामयाब भी हुए। मजरूह की शायरी में रूमानियत और इंक़लाब का बेहतरीन संगम है।
अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें
उसे भुला के ग़म-ए-ज़िंदगी का नाम करें
मजरूह की हमेशा ना-इत्तिफ़ाक़ी रही कि मौजूदा ज़माने के मसायल के लिए ग़ज़ल नामौज़ूँ है, बल्कि उनका तो साफ़ मानना था, ‘‘कुछ ऐसी मंज़िलें हैं, जहाँ सिर्फ़ ग़ज़ल ही शायर का साथ दे सकती है।’’ एक नहीं, उनकी कई ऐसी ग़ज़लें हैं, जिनमें विषय से लेकर उनके कहन का अंदाज़ निराला है:
सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ
अपनी कुलाहक़ज़ है उसी बाँकपन के साथ
मजरूह दीगर शायरों से किस तरह से जुदा और ख़ास थे, इसे जानना है तो उनके समकालीन अली सरदार जाफ़री की इस बात पर गौर फ़रमाएं। मजरूह की तारीफ़ में उन्होंने लिखा था, ‘‘एक और ख़ुसूसियत जो मजरूह को आम ग़ज़ल-गो शायरों से मुमताज़ करती है, यह कि उसने समाजी और सियासी मौज़ूआत को बड़ी कामयाबी के साथ ग़ज़ल के पैराया में ढाल लिया। आम तौर पर ग़ज़ल-गो शायर समाजी और सियासी मौज़ूआत के बयान में फीके-सीठे हो जाते हैं या अंदाज़-ए-बयाँ ऐसा हो जाता है कि नज़्म और ग़ज़ल का फ़र्क़ नहीं रहता। मजरूह के यहाँ यह बात नहीं है।’’ उनकी एक नहीं, ऐसी कई ग़ज़लें हैं जिनमें उन्होंने बग़ावती तेवर, समाजी और सियासी मौज़ूआत को कामयाबी से उठाया। आज़ादी की तहरीक में ये ग़ज़लें, नारों की तरह इस्तेमाल हुईं।
सितम को सर-निगूं, ज़ालिम को रुसवा हम भी देखेंगे
चल ऐ अज़्म-ए-बग़ावत चल, तमाशा हम भी देखेंगे
मजरूह वामपंथी विचारधारा के थे और अपनी इसी विचारधारा की वजह से उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके कभी विचारधारा से समझौता नहीं किया। गु़लाम भारत में वह अंग्रेज़ हुकूमत से टक्कर लेते रहे, तो आज़ादी के बाद भी सत्ता और सत्ताधारियों की ग़लत नीतियों के प्रति आलोचनात्मक रुख़ बरकरार रहा। अपनी एक नज़्म में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के ख़िलाफ़ तल्ख़ टिप्पणी तक कर दी थी:
मन में ज़हर डॉलर के बसा के फिरती है भारत की अहिंसा
खादी के केंचुल को पहनकर ये केंचुल लहराने न पाये
ज़ाहिर है इस टिप्पणी से उस वक़्त हंगामा मच गया। महाराष्ट्र सरकार ने मजरूह को मुंबई की आर्थर रोड जेल में डाल दिया गया। उनसे कहा गया वह सरकार से माफ़ी मांग लें, तो रिहा कर दिया जाएगा। लेकिन मजरूह बिल्कुल नहीं झुके, साफ़ कह दिया जो लिख दिया, सो लिख दिया। माफ़ी मांगने का सवाल ही नहीं उठता।

जाहिद ख़ान
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।
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