
- April 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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कला से आशय आख़िर है क्या?
कला है क्या? आज की बात इस मूल प्रश्न से आरंभ करेंगे। इस विषय में अन्य चिन्तकों ने अपने-अपने मत प्रस्तुत किये हैं, मैं भी अपना मत पाठकों के सामने रख रहा हूँ।
यहाँ मेरा मत दृश्य कलाओं (चित्रकला, मूर्तिकला) के संदर्भ में है। मुझे लगता है मन को भाने/मन में आने, मन से निकलने, मन तक पहुँचने की घटना को कला की संज्ञा दी जा सकती है।
इसे और स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ.. हमारी दृष्टि प्रतिक्षण इस सृष्टि में विद्यमान अनेक दृश्यों, जीवों और पदार्थों पर पड़ती है और हम उन्हें देखकर अनदेखा करते हुए कुछ और देखने लगते हैं। परन्तु कभी कुछ ऐसा दिखायी देता है, जहाँ दृष्टि ठहर जाती है। और दृष्टि के माध्यम से वह दृश्य, जीव या वस्तु मन को भाने लगता है तथा मन में आने लगता है। मन को भाने का मतलब हमारे मन-मस्तिष्क पर सुखद प्रभाव पड़ना और मन में आने से तात्पर्य है मन-मस्तिष्क को किसी भी प्रकार से प्रभावित करना।
मन में आने का मतलब एक और भी होगा- देखने के बाद मन-मस्तिष्क में होने वाली प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न मनोभाव और उन मनोभावों में सूझते रंग-रूप-आकार अथवा सहज स्वस्फूर्त मनोभावों से उत्पन्न रंग-रूप-आकारों का आना। मन से निकलने का तात्पर्य है मन-मस्तिष्क पर पड़े प्रभाव और उत्पन्न मनोभावों से सूझते रंग-रूप-आकारों का किसी किसी माध्यम से बाहर आना अर्थात कोई एक स्थूल रचना होना।
मन तक पहुँचने का आशय है उस रंग-रूप-आकार वाली रचना का दर्शक के मन-मस्तिष्क पर पड़ने वाला प्रभाव।
यहाँ मन, मनोभाव, मन पर पड़ने वाला प्रभाव और मन में होने वाली प्रतिक्रियाएं तथा सामने दिखायी देने वाले दृश्य/जीव या वस्तु और इनके मेल से घटित कलाकृति इतने घटक हैं। इनमें दिखायी देने वाले दृश्य, जीव, जड़ वस्तुएं और कलाकृति स्थूल घटक हैं, शेष रहे मन-मस्तिष्क, मनोभाव, मन पर होने वाले प्रभाव और मन में होने वाली क्रिया- प्रतिक्रियाएं सब अदृश्य अर्थात सूक्ष्म घटक हैं।
स्थूल में निहित सूक्ष्म तत्व का प्रभाव जब मन-मस्तिष्क पर होता है, तब मन में जो सूक्ष्म क्रिया-प्रतिक्रियाएं होती हैं उनके स्थूल आकार लेने में ही कला निहित है। इस क्रिया के सुसंगत नियोजन से कलाकृति बनती है।
इसे कम शब्दों में कहूँ तो सूक्ष्म का सूक्ष्म से होकर स्थूल पर अवतरण ही कला है। किसी दिखायी देते घटक का सूक्ष्म गुण मन में उतरे, तो मन उस पर आ जाता है अर्थात् स्थूल आकार में मन रम जाता है और उस रमण के प्रभाव को किसी स्थूल माध्यम पर उतारने की क्रिया ही कला है।

धृतिवर्धन गुप्त
मूर्तिकार , चित्रकार, लेखक, सम्पादक। 1947 में जन्मे धृतिवर्धन ने 1977 में ललित कला महाविद्यालय ग्वालियर से स्नातक किया। 1976 से 2001 तक ग्वालियर, देहली, मुंबई में मूर्ति एवं चित्रों की दस एकल प्रदर्शनियां। अन्तिम एकल प्रदर्शनी जहांगीर आर्ट गैलरी, मुंबई में। जापान, इण्डो-ताइवान एग्ज़ीबिशन आदि में चित्र प्रदर्शन सहित अमरीका, कनाडा में कृतियों का संग्रह। प्रदेश सरकार एवं अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं से सम्मानित धृतिवर्धन मानते हैं जब उनके गुरु श्री मदन भटनागर ने अपने मूर्तिकला के औज़ार उन्हें सौंपे और चित्रकला के शिक्षक श्री देवेन्द्र जैन ने अपने संग्रह के लिए उनका एक चित्र खरीदा, वह सबसे बड़े सम्मान थे। 2005 में 'संगत:कुछ दोहे कुछ और' काव्य संग्रह प्रकाशित। अनेक कला एवं सामाजिक संस्थाओं से संबद्धता एवं सक्रियता
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