
- April 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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जिया सो गाया
पर्दा नहीं जब कोई ख़ुदा से, बंदों से पर्दा करना क्या
मनस्वी अपर्णा
‘जब प्यार किया तो डरना क्या…’ फिल्म मुग़ले-आज़म और हिंदुस्तानी सिनेमा के सफ़र का वह गीत, जो मील का पत्थर साबित हुआ। इस फ़िल्म के हवाले से यह लेख गीतकार शकील बदायूंनी के नाम। जैसा उनके नाम से ज़ाहिर है शकील साहब का त’आल्लुक़ उत्तर प्रदेश के बदायूं से रहा। आपने मुशायरों के ज़रिये हिंदी सिनेमा के दिल पर दस्तक दी और बड़े ख़ुलूस से दाख़िला भी पाया…
शकील बदायूंनी के रचे गीतों से, हिंदी सिनेमा के ख़ज़ाने में ऐसे नायब मोती आये, जिनका आज भी कोई सानी नहीं है। यूॅं तो शकील साहब ने हर मिज़ाज के गीत फ़िल्म की मांग के हिसाब से लिखे, लेकिन वो गीत जिन्होंने उन्हें अमर कर दिया, वो हैं मुहब्बत की दिलकश मंज़रकशी के गीत। उनके गीतों में मौजूद रूमानियत को जहां एक अलग ही मुकाम हासिल है वहीं विरह को बड़ा अज़ीम रुतबा। उनके गीतों में चांद, झीना-सा एक पर्दा, शर्म-ओ-हया और नक़ाब किसी किरदार की तरह मौजूद हैं।
ज़हीन, नफ़ीस और बेहद सलीक़ेदार अल्फ़ाज़ से सजे उनके गीत, मुहब्बत की रंगीनी की तरह नहीं दिखाते बल्कि उस के हवाले से जज़्बात से लबरेज़ किसी और ही दुनिया में ले जाते हैं। जैसे चौदहवी का चाॅंद हो, मद्धम और मादक। जैसे झीने से पर्दे के दर्मियाॅं से होता महबूब का नज़ारा। शकील साहब ने महबूबा के चंद फ़ासले पर मौजूद होते हुए भी न होने के हालात को बार-बार उकेरा है। फिर ‘मुग़ले आज़म’ के गीत हों, या ‘चौदहवीं का चांद’ के या ‘मेरे महबूब’ के। ये सब गीत किसी ज़हीन शायर के झिझकते हुए लेकिन रूमानी ख़्वाबों से पुरनूर दिल की क़िस्सागोई जान पड़ते हैं।
ऐसा लगता है जैसे, शकील बदायूंनी ने हर बार, हर रूमानी गीत में अपने आप को ही या कि अपनी मुहब्बत के क़िस्से को ही उकेरा है। दरअस्ल उनकी शादी उस दौर की शादी है, जब बहुत पर्देदारी का चलन था और घर के बुज़ुर्गों के सामने मियां का अपनी ही बीवी को देखना तक नामुमकिन था। बातचीत तो ख़ैर दूर की कौड़ी थी ही। इक शायर के दिल में उस पर्दे के पार की दुनिया को लेकर उमड़ रहे ख़यालात का सैलाब ही उनकी शायरी और गीतों की नींव बना, जिसने हज़ारों दिलाें में उठे मुहब्बत के सैलाब को अल्फ़ाज़ दिये।
अपने कैरियर में उन्होंने क़रीब 90 फ़िल्मों के लिए गीत लिखे, ज़्यादातर संगीत-कार नौशाद साहब और रवि के लिए। ये शकील की ग़ज़ल “ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया” ही थी, जो बेग़म अख़्तर की गायी हुई बेहतरीन ग़ज़लों में आज भी शुमार है। और ये ग़ज़ल जैसे शकील बदायूंनी की अपनी ही ज़िंदगी की क़िस्सा बन गयी..! टीबी से लड़ते हुए इस अज़ीम शायर ने 20 अप्रैल 1970 में दुनिया को अलविदा कह दिया।

मनस्वी अपर्णा
18/02/1979 को मुलताई (म.प्र.) में जन्मी अपर्णा पात्रीकर की पारिवारिक रुचियां साहित्य और संगीत की रहीं तो यह सहज रुझान रहा, जिसका लेखकीय स्वरूप पिछले एक दशक में सामने आया। एम.ए. इकोनॉमिक्स और पी.जी. डिप्लोमा इन मास कम्युनिकेशन के साथ फ्रीलांस स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर ईटीवी, म.प्र. माध्यम, जनसंपर्क और वन्य प्रकाशन के लिए काम किया। इन दिनों ग़ज़ल, कविता और समसामयिक विषयों पर लेख। पहली कृति "ज़ुबान-ए-बेज़ुबानी" उर्दू अकादमी की ओर से 2025 में प्रकाशित। हंस, अभिनव इमरोज़, कला समय, सदीनामा, हिंदुस्तानी ज़ुबान आदि पत्रिकाओं, ट्रिब्यून, हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका आदि समाचार पत्रों तथा अश्रुतपूर्वा एवं आब-ओ-हवा ई पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
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