सेक्युलर विवाद, secular word debate

सेक्युलर, समाजवाद... शब्दों की लाश पर वबाल क्यों?

              असल बात नीयत की है। जब संविधान बन रहा था, तब जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव आंबेडकर दोनों प्रस्तावना के शब्दों को लेकर फ़िक्रमंद थे। ‘सेक्युलर’ (धर्मनिरपेक्ष) और ‘समाजवादी’ दो शब्दों को प्रस्तावना में रखे जाने की पेशकश तब केटी शाह ने की थी लेकिन नेहरू और आंबेडकर राज़ी नहीं हुए। राज़ी न होने का अर्थ यह नहीं कि वे इन विचारों के हक़ में न थे। बल्कि इन विचारों को तो संविधान की बुनियाद बनाया ही गया।

न्याय, अधिकार, कर्तव्य, व्यवस्था आदि में सांप्रदायिकता के लिहाज़ से कोई भेदभाव न हो, भारत का संविधान अपनी मूल भावना में यह सुनिश्चित करता है। संविधान के बुनियादी उसूल में यह भी है कि पूंजी का संकेंद्रण न हो, समान श्रम/कार्य के समान भुगतान की व्यवस्था हो। यानी संविधान पंथनिरपेक्षता और समाजवाद को अपनाता है। इस तरह की व्यवस्थाओं एवं संकल्पनाओं के सबूत अनुच्छेद 14, 15, 16, 19, 31 आदि में सहज रूप से मिलते हैं।

नेहरू और आंबेडकर दोनों लोक हित, लोक की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के असरदार और व्यापक स्वरूप के क़ायल थे। दोनों ही लोकतंत्र के पक्ष में थे। आंबेडकर का सोचना था, संविधान की बनत में ही ये विचार हैं पर इन शब्दों को प्रस्तावना में रखने का ​औचित्य इसलिए नहीं है क्योंकि ये आने वाले कल में हालात के हिसाब से नीतियों व सामाजिक ताने-बाने में संकीर्णता ला सकते हैं। नेहरू को भान था कि भारत उन मायनों में ‘सेक्युलर’ नहीं है, जिनमें पश्चिम। 14 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में वल्लभभाई पटेल के शब्द थे:

“मैं स्पष्ट कर चुका हूं कि आज़ाद भारत के, सेक्युलर स्टेट के संविधान के स्वरूप के साथ सांप्रदायिक आधार पर किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जा सकेगी।”

अपनी विचारधारा के मुताबिक़ संवैधानिक भावना से छेड़छाड़ का मौक़ा सत्ता के हाथ न लगे, संविधान निर्माताओं की मंशा यही थी। फिर भी, इंदिरा गांधी सरकार में आपातकाल के समय 42वें संविधान संशोधन के तहत दो शब्द ‘सेक्युलर’ और ‘समाजवादी’ जोड़ दिये गये। उस वक़्त क्या मंशा रही? पूर्व राष्ट्रपति के विशेष अधिकारी रह चुके एस.एन. साहू ने लिखा है, यह इंदिरा गांधी की दूरदृष्टि थी ताकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विभाजनकारी सोच के प्रभाव से संविधान की रक्षा की जा सके।

इस नज़रिये को ख़ारिज किया जा सकता है और माना जा सकता है कि वह फ़ैसला इंदिरा गांधी की तानाशाही थी। तब भी सवाल यह है कि इन दो शब्दों के जोड़े जाने से क्या संविधान की मूल भावना आहत हुई? और अब 50 बरस बाद इन्हें हटा दिये जाने से होगी क्या? लेकिन 50 बरस पहले और अब, क्या संविधान में परिवर्तन सत्ता प्रायोजित विचारधारा की वजह से होता रहेगा? जो संविधान निर्माताओं की मंशा न थी। नेहरू, आंबेडकर, पटेल… मंशा यही थी कि लोकतंत्र सर्वोपरि रहे, लगातार और मज़बूत हो। लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है?

लोकतांत्रिक संस्थाओं को लचर करना रहा हो, विपक्ष की छवि देशद्रोही जैसी बनाने की रणनीति रही हो, राष्ट्र रक्त में मज़हबी नफ़रत घोलना रहा हो, पूंजीपतियों के हित में ​नीति निर्माण रहा हो या फिर ‘गांधी विचार’ के बरअक्स ‘गोडसे आचरण’ को संरक्षण और मान्यता देना रहा हो… समानता के अधिकार वाला अखंड भारत, मज़बूत लोकतंत्र क्या सर्वोच्च प्राथमिकता में है? अब अगर जवाब है ‘नहीं’ तो ‘सेक्युलर’ और ‘समाजवाद’ शब्दों का औचित्य बचता क्या है? जब आप संविधान में निहित मूल विचार के पक्ष में हैं ही नहीं तो शब्द-मात्र को किसी प्रस्तावना में रखा जाये, न रखा जाये, फ़र्क क्या पड़ता है? शब्दों, अर्थों की लाश पर वबाल मचाने की सियासत से क्या हासिल? असल बात है कि यक़ीनन फ़ैसले तो वही करेगा, जो सत्ता में होगा लेकिन देश को इनकी नीयत पर नज़र रखना होगी। ज़िम्मेदार नागरिक को हर बार आत्ममंथन करना और पूछना भी होगा कि क्या यह वही नीयत है, जिसके तहत फ़ैसले लेने के लिए सत्ता सौंपी गयी। बोलो दोस्तो, हम बोलेंगे।
आपका
भवेश दिलशाद

भवेश दिलशाद

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

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