
- May 19, 2025
- आब-ओ-हवा
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मैंने आत्महत्या क्यों नहीं की ?
(‘एकालाप‘ का संदर्भ : बादल सरकार लिखित और निखिल महाजन निर्देशित टेलिथिएटर ‘बाक़ी इतिहास‘… इस नाटक में एक पात्र है सीतानाथ जो आत्महत्या कर लेता है। अख़बार में समाचार तो छपता है लेकिन आत्महत्या का कारण नहीं। एक लेखक दंपति इस कारण की कल्पना करते हुए कहानियां लिखता है। कहानी को रोचकता और सार्थकता देने में लेखक पति, सीतानाथ के चरित्र को कलंकित कर देता है। फिर इस लेखक के चारित्रिक संकट खड़े होते हैं, सीतानाथ का पात्र इस लेखक के भीतर अंतर्द्वंद्व रचता है और अंतिम प्रश्न सीतनाथ पूछता है, शेखर तुमने आत्महत्या क्यों नहीं की!)
मैंने आत्महत्या क्यों नहीं की? बहुत देर से यह आवाज़ मेरे भीतर गूंज रही है। यह प्रश्न आईना बनने पर आमादा है। साफ़ कह देता है कि तुम मुखौटा लगाकर आ रहे हो। मैं कोई चेहरा या लिबास पहनकर जाऊं, कह देता है कि तुम ‘तुम’ बनकर नहीं आये। आईना ही क्या यह प्रश्न हम्माम बन रहा है, जहां लिबास बेमानी और बेईमानी ही है। यह प्रश्न साफ़ कह रहा है कि आत्महत्या पर तुमने बड़े-बड़े प्रवचन दे डाले, इसे क़ायराना कह डाला और न जाने कितना ज़ह्र उगला, लेकिन जवाब दो। यह प्रश्न एक ड्रिलिंग रॉड की तरह मेरे भीतर धंसता जा रहा है। डर, शर्मिंदगी, ईगो, तर्क… परत-दर-परत दीवार को भेदता, तोड़ता हुआ।
मैंने आत्महत्या क्यों नहीं की? बड़ी बेतुकी बात लगती है, क्यों नहीं की! कोई मरा क्यों नहीं? मौत कोई ड्यूटी है कि की ही जाये! क्यों नहीं की… क्यों की आत्महत्या? पूछा तो यही जाता है, है ना.. लेकिन प्रश्न तो यह बेतुका है क्योंकि जिसने कर ली, वो बताएगा क्या! लेकिन जिसने कर ली है, वो यह प्रश्न तो कर ही सकता है कि तुमने आत्महत्या क्यों नहीं की। प्रश्न करने वाले को पता है ना कि उत्तर देने ही नहीं, सुनने में भी मुश्किल होगी!
आत्महत्या क्यों नहीं की, क्या कहूं? कहां से शुरू करूं? तुमने तो कर ली है ना, तो यह तो जानते हो कि आत्महत्या क्या होती है। जानते ही होगे। अब तुम मुझे जानो, तभी जान सकोगे कि मैंने क्यों नहीं की। मैं, एक स्तर पर तुमसे अलग तो नहीं हूं। हां, चेहरा, नाम फ़र्क है। समाज, परिवेश, वर्ग, समस्याएं, चुनौतियां, स्थितियां… ऐसे कितने ही स्तर हम दोनों के एक-से होने के कारण हैं। शायद मन और चेतना के स्तर पर हममें भिन्नताएं हैं। लेकिन मैं यहां भी चौंक रहा हूं कि हमारी भिन्नता हमारे बीच कितनी कम असमानता पैदा कर पाती है!
मैं क्या हूं? एक अभावग्रस्त परिवार की पैदाइश। अति सामान्य और दोयम दर्जे की शिक्षा का प्रोडक्ट। शोषक और दोग़ले व्यावसायिक जगत का एक मामूली हिस्सा। अपनी कला और प्रतिष्ठा के क्षेत्र का मात्र एक दिवास्वप्नदर्शी। रूढ़ियों, मान्यताओं, धारणाओं जैसी मज़बूत ज़ंजीरों से बंधे समाज का एक क़ैदी। उत्पीड़नों के बीच एक आश्वस्त नागरिक… क्या मुझे आत्महत्या नहीं कर लेनी चाहिए? ये तो तुम्हारी भी जानी हुई बेजान परतें हैं, लेकिन मेरे अपने स्तर पर प्रश्न बड़ा है कि इन स्थितियों के बीच ऐसा क्या है, जो मुझे आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं कर सका!
कोई आत्महत्या क्यों करता है? एक डर इतना घर कर जाता है कि उसके आगे मंज़िल तो दूर, कोई रास्ता नहीं दिखता। लेकिन डर के पीछे भी तो कारण होते हैं। एक असहनशीलता होती हो शायद। किसी दुख या अपमान या किसी कठिन स्थिति को बर्दाश्त कर पाना असंभव हो जाता हो। मन ही नहीं होता हो बर्दाश्त करने का। या फिर कोई शर्मिंदगी, ज़िल्लत इतनी हो जाती हो कि हर नज़र, ख़ुद की भी नज़र, कपड़ों क्या बदन तक को चीरकर खाल तक नंगा कर देती हो। कोई ग्लानि, कोई अपराध बोध भीतर तक कचोटता हो। इतना कि ख़ुद को निर्जीव ही महसूस होने लगे। इन हालात में आत्महत्या किसी को करने की क्या ज़रूरत है? यह तो अपने आप में लाश हो जाना है ही।
फिर भी एक ज़िद है कि हम काल के ख़िलाफ़ लड़ें, बहती धार के ख़िलाफ़ हाथ पैर मारें। सो उम्मीद यही की जाती है कि हम आत्महत्या की हर बेजोड़ वज्ह को ख़त्म कर दें। और कोई यह न कर पाये, बेमतलब की दुनिया को न अपनाये, अपनी इच्छा को न मारे, तो उसे नाकाम, पराजित और डरपोक कह दिया जाये। कह दिया जाये कि उसने आत्महत्या कर ली! जैसे सीतानाथ तुमने कर ली और मुझे नंगा करने के लिए प्रश्न छोड़ गये कि मैंने क्यों नहीं की। प्रश्न सही है, लेकिन इसका कोई भी उत्तर सही हो, इसका यक़ीन क़तई नहीं।
मैं एक डरा हुआ व्यक्ति रहा हूं। बचपन से। मुझे अपने आस-पास हमेशा ख़ुद से ज़्यादा बलवान दिखते रहे। फिर वो चाहे हालात रहे, भाग्य या नियति रही या लोग। कोई तन से तो कोई मन से या कोई धन से। अपनी कितनी ही असफलताओं का ठीकरा इन्हीं के सिर फोड़ा। एक व्यवस्था दोष की तरह मैं इनकी आलोचना करता रहा, अलग बात है, लेकिन मैं एक डरा हुआ आदमी बनता चला गया। पिता के क्रोध का डर, टीचरों की लताड़, साथियों की मारपीट, बड़ों की हिंसा, मित्रों की ईर्षा-द्वेष-हास्य, परिवेश के उलाहनों, व्यावसायिक दुनिया में छल-कपट, अन्याय, प्रतिष्ठा क्षेत्र में चूक का डर… मुझे हर स्कूल में एक डरा हुआ आदमी बनने की भरपूर ख़ूराक दी गयी और पाठ दिया गया कि निडर बनो। नहीं बन पाया। मैं सुनता तो रहा लेकिन समझ नहीं पाया कि डर के आगे जीवन है। यही जाना कि डर के आगे और एक डर होता है।
डरे हुए आदमी के जीवन का सबसे बड़ा सच अपमान है। इस अपमान से भीतर जाने क्या-क्या नहीं घट जाता। संस्कार से लेकर संस्कृति और व्यवहार से लेकर विकृति तक मैं इस अपमान के हाथों ठगा जाता रहा। तुम तो समझ सकते हो, मेरे पास कोई कारण नहीं है कि मैं क्यों यह सब बर्दाश्त किये जा रहा हूं। कोई उम्मीद अगर हो भी तो वह क्या है, मुझे पता नहीं। शायद मैं किसी क़िस्म का कोई बदला लेने का सही मौक़ा तलाश रहा हूं, बस..।
तुम हंस रहे होगे कि मैं ख़ुद को कहां तक विक्टिम की तरह पेश करने वाला हूं। मैं इन इल्ज़ामों की तरफ़ भी सच कहता हूं कि मैंने दूसरों के अधिकारों पर डाका डाला है। कभी अनचाहे, कभी साज़िश करके भी। मैं चाहता रहा हूं कि औरों के मन-वचन-कर्म पर हुक़ूमत कर सकूं। इस कोशिश में कई बार बहुत नीचे तक गिर चुका हूं। सियासी नहीं, बहुत निजी स्तरों पर। मां से लेकर बच्चों तक और रिश्तों से लेकर अजनबियों तक, कितनी बार मैं लुटेरा या आक्रांता रहा हूं, मैं इसका सही हिसाब रखने और देने से कतरा ही सकता हूं, बस..।
किसी तिजोरी क्या, ज़रा सी जेब पर नज़र डालने से नहीं चूका। किसी ने भांप लिया तो तपाक से उसे संभलने की हिदायत दे डाली। किसी का हक़ चुराया है, किसी का स्थान तो किसी का निवाला। चोरी के इन्हीं सुखों ने मुझे बहुत लिजलिजा बनाया। मैं किसी एक रिश्ते में भी ईमानदार रह सका, यह दावा करने में भी मुझे हैरत हो रही है। जब सच का साथ देने में पीछे हट गया, तो मैं चिंतक बन गया। यह भी सच है, जब बिस्तर पर हारा तो हिंसक हो गया। जब किसी से असंगत लाभ चाहा तो अपनी ताक़त की दुहाई दी। मदद कर नहीं पाया तो ख़ुद एक याचक बन गया। तुम जान सकते हो मैं अपने सीने पर कितने पहाड़ ढो रहा हूं।
फिर भी मैंने आत्महत्या नहीं की, क्यों? एक मन कहता है कि ये सब हालात हैं, नासमझी से या मनोविकृतियों/मन:स्थितियों से घटता रहा कुछ है। नियति के हाथों का खिलौना बनकर मैं कौन होता हूं कि अपने लिए मौत चुन सकूं! जब मैंने जीवन का चुनाव नहीं किया, तो मौत का क्यों करूं! दूसरा मन टोक रहा है कि अपराधी तो हो…
लेकिन कैसे?
हो कि नहीं?
होउंगा, लेकिन इतना बड़ा भी नहीं।
कैसे?
छोटे-मोटे गुनाह किसी विशेष स्थिति में हुए होंगे। कोई गंभीर तो नहीं।
अच्छा! धोखे दिये हैं?
हां।
तरह-तरह से हिंसा तो ख़ूब की है?
मतलब शब्द, भाव और शरीर बल, हां।
और प्रतिभाओं के साथ अन्याय किया है? अपने से बेहतर जानते हुए भी उनका अधिकार छीना है? पक्षपात, हनन किया है?
बहुत बड़े स्तर पर तो नहीं, लेकिन अपने स्तर पर तो किया ही है।
अब सोचकर बोलो, बलात्कार किया है?
किया होता, तो समाज और क़ानून से बचा रह पाता?
या तो सोचकर बोलो या बोलो मत, सिर्फ़ सोचो।
तुम क्या चाहते हो, मैं क्या बोलूं..? क्या सोचूं..? वह प्रेम था, हां कुछ जंगली रहा होगा, कोई हठ रही होगी, थोड़ी हिंसा भी हो शायद… पर प्रेम ही था। तुम मेरे दिमाग़ के साथ खेल रहे हो? जो नहीं हुआ, तुम चाहते हो कि सच कहने की रौ में, वह सब भी मान लूं मैं। नहीं मानूंगा। नहीं, तुम यह नहीं कह सकते कि मेरे मानने, न मानने से क्या होता है… मैं कह रहा हूं कि जो हुआ ही नहीं, वह क़बूल नहीं करवाया जा सकता। थर्ड डिग्री टॉर्चर भी करो, मैं क़बूल नहीं करूंगा.. एक मिनट! तुम किसी और बलात् कर्म की बात तो नहीं कर रहे हो? इस समय शब्द क्रीड़ा का कोई मतलब नहीं। मैं बलात्कार का आरोप ख़ारिज करता हूं… कर रहा हूं, कर सकता हूं… उफ़्फ़! ठीक है, मैं अपराधी हूं। लेकिन कोई हत्या तो नहीं की। नहीं की..!
एक ठीक प्रश्न कितना खोखला कर देता है! डर और अपमान के हाथों तुलता रहा मैं, ग्लानि और अपराध बोध की तराज़ू पर झूठ और आधे झूठ के बीच का कांटा भर बनकर रह गया। कितना शर्मिंदा हूं, तुम्हारे सामने मुझे अब हैरत हो रही है कि मैंने आत्महत्या क्यों नहीं की? ‘आत्महत्या कमज़ोर, डरे हुए, बेबस, हारे हुए लोग करते हैं। संघर्ष करना चाहिए। आदर्श स्थापित करना चाहिए। सकारात्मक, ऊर्जावंत, आशावादी बनना चाहिए।’ हाहाहा… यह कह-कहकर मैं बस ख़ुद को ही ढांढ़स बंधाता रहा शायद कि यह मृत्युलोक ही है। कोई जीवित है ही कहां? आत्मा की हत्या संभव है क्या? देखो इसलिए मैंने आत्महत्या नहीं की। देखा… मैं जब सच का सामना नहीं कर पाता, दार्शनिक और चिंतक होने लगता हूं।
मेरे मूल्य, जीवन के आधार इतने नीचे जा चुके हैं कि मुझे आत्महत्या कर लेने का ट्रिगर इतने असंतोष के बाद भी नहीं मिल रहा… शायद इस प्रश्न का एक ऐसा उत्तर तलाशने की आशा है, जो इस चुनौती का सामना कर सके, इस प्रस्ताव का विरोध करने का कारण दे सके। कुछ पाने की हवस है। या ठहरो, शायद आत्महत्या कर ही चुका हूं! या बस, कर ही लूंगा… लेकिन न करने से क्या ही हो गया कि करने से होगा? यानी मुझे आत्महत्या से भी कुछ हासिल करने का लालच है!
आत्महत्या क्यों नहीं की? इसके हर कारण को वाजिब ठहराने वाली हर उम्मीद, हर लालच में इंतज़ार कब तक! यह प्रश्न अचानक मेरे सामने ले आये तुम सीतानाथ, वर्ना किस उम्र में इस प्रश्न के सामने मैं ख़ुद को नंगा करता? खिन्न और विक्षिप्त लोगों की भीड़ का हिस्सा होकर, बिसूरते चेहरों की मातमी वीथिका के चित्र की तरह, किसी उम्मीद के रंग लाने का इंतज़ार करता रहता, अपने आप मर जाने या हत्या होने तक। अंतिम सांस तक जान नहीं पाता कि जीवन की तमाम वीरगाथाएं पीतल पर सुनहरी पॉलिश भर हैं, “बाक़ी इतिहास” तो इसी प्रश्न का साहसिक उत्तर ही है। और यह बहुत क्रूर है। हत्यारा है… आत्महत्या कर लेने वाले सीतानाथ, अब अगला प्रश्न मत पूछना, ‘तुमने आत्महत्या तो की नहीं, फिर मेरी हत्या क्यों की?’

भवेश दिलशाद
क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।
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