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पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-7
बासी औऱ ताज़ा का द्वंद्व
17 जनवरी, 2020
सुबह जब मैं लाल चाय की चुस्कियों के साथ खिड़की से बाहर देख रहा था– अमरूद पेड़ के उस ओर, शायद किसी उड़ती हुई चिड़िया की चाह में तो मन में एक विचार कौंधा- “मनुष्य को पलक झपकते ही बासी बना देता है समय।” पहले भी कहीं पढ़ी थी यह पंक्ति, शायद किसी कविता में, शायद किसी निबंध में, और आज यह मेरे मन एकाएक उमड़ रही थी। समय इतना तेज़ चलता है कि हमारी ताज़गी, हमारे सपने, हमारी उम्मीदें-सब कुछ एक पल में पुराना हो जाता है।
बिलकुल कल की बात है, जब मैं अपने दोस्तों के साथ हँसी-मज़ाक कर रहा था। तब लगता था कि ज़िंदगी यूँ ही चलती रहेगी, हर दिन नया और रंगीन। लेकिन आज, वही चेहरे, वही बातें, सब कुछ एक ढर्रे में बंधा हुआ-सा लगता है। समय ने हमें जैसे बासी कर दिया- नई ऊर्जा, नया जोश, सब कहीं पीछे छूट गया। क्या यह उम्र का तकाज़ा है, या समय की यह चाल हर किसी के साथ खेलती है?
फिर सोचता हूँ, शायद यह हमारी नज़र का फेर है। समय तो बस बहता है, न तारीफ़ करता है, न बुराई। ये हम हैं जो उसकी रफ़्तार में खुद को ढाल नहीं पाते। आज सुबह की चाय भी ठंडी हो गयी, मेरे विचारों की तरह। लेकिन एक बात तय है- समय रुकता नहीं। इसे स्वीकार करना ही होगा कि जो आज ताज़ा है, कल बासी हो जाएगा। शायद इसीलिए हर पल को जीना ज़रूरी है। कल फिर कोशिश करूँगा कि सुबह की चाय ठंडी न होने दूँ, और मन के विचारों को भी थोड़ा ताज़ा रखूँ। समय से हार नहीं माननी, बस उसके साथ चलना सीखना है।
* * *
नया या पुराना या बासी और ताज़ा का द्वंद्व सिर्फ़ मेरे भीतर ही नहीं, बाहर भी दिखता है। गाँववाले घर में पुरानी लकड़ी की मेज़ अब भी खड़ी है, जिस पर नानी कहानियाँ सुनाया करती थीं। लेकिन उसके बगल में नया सोफा है, जो आराम तो देता है, पर उस गर्माहट से ख़ाली है। पुराना मन को सुकून देता है, पर नया ज़िंदगी को रफ़्तार। क्या चुनूँ? क्या छोड़ूँ?
शायद यह सवाल ग़लत है। नया और पुराना एक-दूसरे के दुश्मन नहीं, बल्कि साथी हैं। पुराना मुझे जड़ें देता है, नया पंख। पुरानी यादों में ठहराव है, तो नये सपनों में उड़ान। दोनों के बीच संतुलन ही तो ज़िंदगी है। फिर भी, यह द्वंद्व ख़त्म नहीं होता। हर बार जब कुछ नया अपनाता हूँ, पुराने को छोड़ने का एक दर्द सा उठता है।
इस जंग को ख़त्म करने की कोशिश न करूँ। नये को गले लगाऊँ, पुराने को संभालूँ। शायद यही समय की सीख है- जो बीत गया, उसे प्यार से याद करो, और जो आ रहा है, उसे खुली बाहों से स्वीकार करो।
वह ग़मज़दा इंसान
अपनी कहानी ‘दुख’ में एंतोन चेखव कहते हैं: कह देने से दुख का बोझ हल्का हो जाता है, मगर किसी दुखी व्यक्ति को भरे संसार में एक भी ऐसा आदमी न मिले, जो उसका दुख सुनने तक को तैयार हो तो… क्या करेगा वह ग़मज़दा इंसान?
बड़े लोग, छोटे लोग
सिर्फ़ तथाकथित विशाल व्यक्तित्व का बखान या कृतियों की गिनती से कोई बड़ा नहीं बन जाता। सच्चाई तो यह है कि बड़प्पन की कसौटी उसमें नहीं, बल्कि उनके ज़ेह्न में बसी उस संवेदना में है, जो हाशिये पर धकेले गये लोगों को ऊपर उठाने का सपना देखती है। प्रश्न यह नहीं कि वे स्वयं कितने बड़े हैं, प्रश्न यह है कि वे कितनों को बड़ा बनाते हैं, कितनों के बड़प्पन की गाथा गाते हैं।
कई बार, जो बड़े कहलाते हैं, वे सबसे छोटे होते हैं। वे अपनी प्रशंसा के आलम में खोये, स्वयं को विशाल मानने का भ्रम पाले रहते हैं। उनकी राहें एक ढर्रे पर चलती हैं—रटे-रटाये संदर्भों की बेड़ियों में जकड़ी। वे न बड़ा-छोटा पहचान पाते हैं, न पहचानना चाहते हैं। उनकी दुनिया उसी घिसे-पिटे ढाँचे में सिमटी रहती है, जहाँ सच्चाई का आलोक प्रवेश नहीं करता।
वास्तविक बड़प्पन तो उसमें है, जो सीमाओं को तोड़कर, दूसरों के लिए नया आकाश रचे। जो छोटे को बड़ा बनाये, और बड़े को छोटेपन का आईना दिखाये। बड़प्पन न नाम में है, न यश में, बल्कि उस करुणा में, जो हर दिल को छू ले, और हर जीवन को अर्थ दे।
थूकर्रों की पहचान
यह जानते हुए भी कि थूक आख़िरकार अपने ही मुँह पर लौट आएगा, लोग चाँद को निशाना बनाने से नहीं चूकते। हर बार, जब चाँद ख़ामोश आसमान में टँगा होता है, वे थूकने की हड़बड़ी में पड़ जाते हैं, जैसे कोई पुराना हिसाब चुकाना हो। ऐसे थूकने वालों को पहचानना ज़रूरी है— उनके शब्दों की चमक, उनकी आँखों की चाल, उनके इरादों की टेढ़ी रेखा। उनसे दूरी बनाना और भी ज़रूरी है, वरना उनका थूक हवा में उड़ता हुआ, कहीं हमारे ही चेहरे पर न आ गिरे।
बाट-देखनी
बाट-देखनी यानी किसी आत्मीय जन की प्रतीक्षा या रास्ता देखने के एवज़ में मिलने वाला उपहार। बचपन में बहुत मिलता था। हिंदी में उपहार मेरी घरूभाषा ओडिया में बाट-देखनी।
कल गाँव से ननिहाली रिश्ते के एक नानाजी पधारे। बोले- बेटा सुबह-सुबह गाँव से रायगढ़ आने फिर रेलगाड़ी पकड़ने जल्दबाज़ी में कुछ ख़रीद न सका- और उन्होंने एक बड़ा नोट मेरे जेब में डाल दिया। मेरे ना नुकुर पर बोले- चुप भी करो। चाहे तुम कितने बड़े हो जाओ, हम ही नाना रहेंगे तुम्हारे… बाट-देखनी हम ही देंगे सदा।
मेरे अपने नानाजी की बेसाख़्ता आज शाम घर में हल्की-हल्की ठंडक थी, जैसे बादल किसी पुरानी याद को सहेज कर लाये हों। मेहमान आने वाले थे। दरवाज़े की घंटी बजी तो हवा में एक मीठी उमंग तैर गयी। हाथ में उनके एक छोटा-सा उपहार था—लाल काग़ज़ में लिपटा हुआ, मानो सूरज ने अपनी किरणें उसमें समेट दी हों। मैंने सोचा, यह परंपरा कितनी सुंदर है।
उपहार कोई वस्तु नहीं, बल्कि एक एहसास है— जैसे कोई नदी किनारे से रंग-बिरंगे कंकड़ चुन लाये और कहे, “यह मेरी खुशी का टुकड़ा है, अब तुम्हारा हुआ।” उनकी मुस्कान उस लाल काग़ज़ से भी चमकीली थी। चाय की भाप के साथ बातें ऊपर उठती रहीं, और वह उपहार मेज़ पर रखा रहा—एक मूक गवाह, जो कह रहा था कि रिश्तों की गर्माहट कभी-कभी छोटे बक्सों में भी बस सकती है।
रात ढलने लगी, चाँद खिड़की से झाँक रहा था। उपहार अब भी अनखुला था, पर उसकी मौजूदगी ही काफ़ी थी—जैसे कोई अनकहा वादा, जो खोलने से ज़्यादा महसूस करने के लिए था।
रिश्ता : कोलंबो
लेखक और प्रकाशक के बीच रिश्ता हो तो ऐसा: कवि को कहीं सम्मान मिले तो प्रकाशक भी वहाँ उपस्थित होकर कवि का मान बढ़ाये। आख़िर कवि का समादरण प्रकाशक और प्रकाशन का भी तो समादरण है। शिल्पायन के निदेशक ललित शर्मा सृजनगाथा डॉट कॉम सम्मान 2013 से सम्मानित होते देखने कवि असंगघोष के साथ चले आये हैं, खुशी हुई यह देखकर।
29 जनवरी, 2014
वह किशोर मेरा ही छोटा बेटा है
सड़क पर एकाएक कोई तेज़-भागती कार किसी अनजान युवा को ठोकर मार दे, और वह खून में लथपथ, तड़पता, साँसों से जूझता रहे, तो हम बड़े-बूढ़े, सयाने लोग क्या करते हैं? भीड़ का हिस्सा बनते हैं, बस। दो पल को मन में ‘हाय’ या ‘ओफ्फ़’ का स्वर उठता है, ट्रैफिक पुलिस को, या उस कार वाले को, मन ही मन दो-चार गालियाँ दे देते हैं। फिर? फिर सड़क अपनी, हम अपने। कई बार तो क़ानून के डर से आँखें मूंद लेते हैं, जैसे कुछ देखा ही नहीं। जैसे वह तड़पता शरीर हमारी दुनिया का हिस्सा ही नहीं।
पर बच्चे, वे ऐसे सयाने नहीं होते। उनके भीतर का कोमल, जो अभी दुनिया की चालाकियों से अछूता है, वह तड़प को देखकर पिघल जाता है। वह सड़क पर पड़ा खून नहीं, एक इंसान देखता है। और यही उन्हें हमसे ज़्यादा इंसान बनाता है।
उस दिन रायपुर की भागती-दौड़ती सड़कों पर भी ऐसा ही हुआ। शहर, जो अपनी व्यस्तता में खोया रहता है, एक तड़पते युवक को तमाशे की तरह देखता रहा। लोग खड़े थे, जैसे सिनेमा हॉल में कोई दृश्य चल रहा हो। पर तभी, स्कूल से लौटता एक किशोर, जिसके कंधे पर बस्ते का बोझ था, रुक गया। उसने न तो भीड़ की तरह आँखें फेरीं, न सयानापन दिखाया। उसने उस युवक को, जो मौत से जूझ रहा था, सड़क से उठाया। किनारे ले गया। अपनी पानी की बोतल से उसे पानी पिलाया, जैसे कोई प्यासा पंछी मिल गया हो। होश में लाने की कोशिश की। अपने छोटे-से मोबाइल से पुलिस की गाड़ी बुलवायी। उसने वह शरीर, जो अब शायद शरीर भर रह गया था, गाड़ी में रखवाया। और फिर? फिर वह चुपचाप घर लौट आया।
घर में उसने किसी से कुछ कहा नहीं। न माँ से, न बाप से। क्योंकि उसे पता था, माँ कहेगी, “बेटा, जनेऊ बदलो, लाश को छुआ है।” वह किशोर, जिसका नाम प्रतीक है, एक हफ़्ते बाद भी उदास है। उदास, क्योंकि वह उस युवक को फिर से हँसता-खिलखिलाता नहीं देख सका। पर उसके भीतर एक छोटा-सा संतोष है, जैसे कोई दीया जो हवा में भी टिमटिमाता रहे। उसे लगता है, उसने एक इंसान के लिए कुछ किया। कुछ, जो शायद बहुत छोटा था, पर उसका अपना था।
यह किशोर मुझसे कहीं ज़्यादा संवेदनशील है। यह मेरा छोटा बेटा है। स्कूल की मेरिट लिस्ट में उसका नाम हो या न हो, वह कलेक्टर बने या न बने, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? उसने इंसानियत का वह पाठ पढ़ लिया, जो किताबों में नहीं मिलता। मैं, उसका बाप, अगर उसकी यह बात न कहूँ, उसकी तारीफ़ न करूँ, तो शायद ठीक नहीं होगा। आख़िर, एक बाप का सपना यही तो होता है कि उसका बेटा इंसान के लिए कुछ करे। और प्रतीक, तुमने वह कर दिखाया।
सच्चा कवि-कर्म
कई कवि, शब्दों को बुनने से पहले ही
जान लेते हैं कि उनकी कविता का आकाश
कौन से रंग बिखेरेगा, कौन सी गंध उड़ाएगा।
वे अपनी क़लम को नक्शे सौंप देते हैं,
जहाँ हर पंक्ति पहले से तय राह पर चलती है।
पर सच्चा कवि वह है,
जो कविता के अंतिम शब्द तक अनजान रहता है।
उसकी उंगलियाँ मिट्टी में डूबती हैं,
बिना यह जाने कि कौन सा बीज फूटेगा,
कौन सा फूल खिलेगा।
वह लिखता है जैसे कोई नदी
पहाड़ से उतरती है—
बिना मंज़िल की ख़बर,
बस बहने की ताक़त लिये।
कविता पूरी होने पर ही वह ठिठकता है,
अपने ही शब्दों को टटोलता है,
जैसे कोई अनजाना ख़त खोल रहा हो।
तब उसे दिखता है—
यह तो वही था जो मन में बिना नाम के सोया था,
यह तो वही था जो हवा में बिना चेहरा लिए घूमा था।
सच्चा कविकर्म यही है—
नहीं जानना, फिर भी लिखना।
नहीं पाना, फिर भी खोजना।
और जब शब्द साँस लेने लगें,
तब जाकर समझना कि
यह तो मैं ही था,
अपने ही भीतर छिपा,
कविता बनकर उभरा।
कारण
शब्द जैसे-जैसे हमसे अपमानित होते जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी दुनिया से ग़ायब होते जाते हैं।
30 जनवरी, 2014
हम बापू के वंशज नहीं हैं!
हम उन्हें बापू ज़रूर कहते हैं पर हम उनके वंशज नहीं। उनके वंशज हैं- तमोरा गाँववाले। ये पिछले 65 साल से आज के दिन बापू की याद में मुंडन करवाते हैं, जलतर्पण करते हैं, मृत्युभोज देते हैं फिर सारे गाँववाले गांधी मेला का आयोजन करते हैं। देश का यह पहला और अनोखा गाँव है छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बागबाहरा विकासखंड में। इसे कहते हैं सच्ची श्रद्धा।
31 जनवरी, 2014
शाम किसी प्रार्थना का पुनर्स्मरण है।
दिल्ली! ना बाबा ना!!
मेरा प्रशासकीय विभाग चाहता है कि मैं भारत सरकार के राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली के सचिव पद पर काम करने चला जाऊँ। मैं ठहरा घरखुसरा। एक रोटी कम से भी काम चला लूँगा। ना बाबा ना।
***
कथाकार संतोष श्रीवास्तव का फ़ोन आया– वे मुंबई से आज ही रायपुर पहुँची हैं। परसों वे बस्तर जनपद की ओर…। कल भर ठहरेंगी यहीं रायपुर में। मैं समय मिला तो ज़रूर मिलने जाऊँगा। उनसे मिलना एक नये अनुभव से भी जुड़ना होता है।

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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