prasad aur premchand, प्रसाद और प्रेमचंद
अजित कुमार राय की कलम से....

साहित्य में अपने नाख़ून ख़ूबसूरती से तराशें विमर्श

           साहित्य का जातिवादी पाठ तो चौंकाने वाला है। अभी ‘समयान्तर’ में रंजीत वर्मा का एक लेख छपा है, जो प्रेमचंद की साबुत खोपड़ी और फटे जूते को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। पंकज बिष्ट अनुभवी संपादक हैं। किन्तु ‘आजकल’ एक लेखक को उठाने में दूसरे को गिराने का यह उद्योग समझ से परे है। रंजीत वर्मा को व्योमेश शुक्ल से एलर्जी हो सकती है। क्योंकि वे ब्राह्मण हैं, लेकिन जयशंकर प्रसाद को इस प्रकरण में घसीटना कुरुचि का ही परिचायक है। व्योमेश शुक्ल अमृत राय की इस राय का खण्डन करते हैं कि प्रेमचंद की शवयात्रा में केवल बीस-पच्चीस लोग मौजूद थे। बक़ौल रंजीत वर्मा वे बनारस के ब्राह्मण समाज के माथे पर लगे कलंक को मिटाने के प्रयास में एक टीका और लगा देते हैं और वे बड़ी बारीक़ी से यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि प्रेमचंद ग़रीब नहीं थे और इसीलिए उनकी शवयात्रा में बड़ी भीड़ थी। और यह प्रेमचंद को ठिकाने लगाने की कोशिश है, जो उनके साहित्य से ध्यान भटकाकर अवान्तर प्रसंगों को केन्द्र में लाना चाहती है। यही काम तो रंजीत वर्मा कर रहे हैं। जयशंकर प्रसाद के साहित्य के अनुशीलन के बजाय उन्हें खलनायक सिद्ध करने की कुत्सित कोशिश।

उन्हीं के अनुसार आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी तो शवयात्रा में थे ही, जो ब्राह्मण ही थे। उन्हीं के कान में जयशंकर प्रसाद ने कहा था कि “वाजपेयी जी! यह आदमी क्या कह रहा है? “वह आदमी कह रहा था कि “लगता है कि कोई मास्टर मर गया है।” अर्थात् साहित्य के सम्मान के उस युग में भी उपन्यास-सम्राट को ‘मास्टर’ शब्द से अभिहित करना चकित करता है। उससे भी चकितकारी प्रसाद जी का कथन है, जो अपने नौकर को आदेश देते हैं कि “उठाओ बांस और चूर चूर कर दो यह खोपड़ी। इसने बहुत तहलका मचाया।” इसमें रंजीत वर्मा को प्रसाद जी की कुटिल मुस्कान दिखती है, अप्रस्तुत प्रशंसा नहीं, कि प्रेमचंद-युग का अब अन्त हो जाएगा। क्या कालजयी महाकाव्य ‘कामायनी’ के प्रणेता प्रसाद जी को प्रेमचंद की कालजयिता को लेकर सचमुच भ्रम था? और क्या उस युग में भी मतभेद मनभेद का पर्याय था? तो प्रसाद जी फिर उनकी शवयात्रा में क्यों शामिल हुए! वे न तो कायस्थ थे और न ही ब्राह्मण।

जिस प्रसाद की श्रद्धा की एक मुस्कान से आध्यात्मिक अनुभव के कैलाश शिखर पर इच्छा, क्रिया और ज्ञान के त्रिपुर गोले अद्वैत लय में विलय हो जाते हैं और समरसता का दर्शन शिवत्व के माथे पर त्रिपुण्ड की तरह चर्चित हो जाता है। जो शिव राम और रावण दोनों का आराध्य है। जो प्रसाद जी घर आने वाले व्यक्ति को शिव की तरह देखते हुए कहते थे कि “आइए प्रभु!” उनकी कविता की एक मुस्कान में न जाने कितने अर्मा-वर्मा डूब जाएंगे। प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद अपने समय के दो बड़े स्कूल थे। पथ दोनों के भिन्न थे पर पाथेय उद्भिन्न। प्रेमचंद आम आदमी की भाषा में आम जनता की समस्याओं को आदर्शोन्मुख यथार्थवादी शिल्प में अभिव्यक्ति दे रहे थे तो अपने नाटकों के माध्यम से आदर्श चरित्रों की सृष्टि के द्वारा भारत के गौरवशाली अतीत को प्रसाद जी अपने वर्तमान की प्रेरणा की तरह प्रस्तुत कर रहे थे और देश के स्वाधीनता संग्राम में वैचारिक समिधा डाल रहे थे। दोनों ही महान लेखक हैं। एक बार प्रेमचंद ने कहा कि “प्रसाद जी! क्या इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं?” तो इसके जवाब में प्रसाद जी ने ‘कंकाल’ उपन्यास लिखा था। यह था उनका उत्तर देने का रचनात्मक ढंग। अतीन्द्रिय वैयक्तिक प्रेम और राष्ट्र-प्रेम के द्वंद्व पर आधारित प्रसाद जी की ‘आकाशदीप’ और ‘पुरस्कार’ नामक कहानियाँ प्रेमचंद की किस कहानी से कमज़ोर हैं? इसी प्रकार प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को आत्मदान का जो ‘मंत्र’ दिया है, वह विश्व कथा-साहित्य की एक उपलब्धि है।

मेरी दृष्टि में ‘रामचरितमानस’ के बाद कामायनी का दूसरा स्थान है और तीसरे सबसे बड़े महाकाव्य का नाम मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’ है। इससे दिनकर की ‘उर्वशी’ प्रतिस्पर्धा कर सकती है। इसलिए हमें हिन्दी साहित्य की आत्मा पर ‘कफ़न’ ओढ़ाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। लेकिन लगता है कि सचमुच समयान्तर हो चुका है और अनेक विमर्शों के माध्यम से साहित्य को समृद्ध बनाने के बजाय प्रकारान्तर से साहित्य में भी आरक्षण की मांग चल रही है। विमर्शों को अपने नाख़ून ख़ूबसूरती से तराशने होंगे और सम्पूर्ण मानवता के लिए स्वस्ति-बोध का निवेश करना चाहिए। सबके भीतर उसी ब्रह्म की ज्योति मौजूद है। विवेकानंद, प्रसाद और प्रेमचंद सबके हैं और सबके लिए हैं। साहित्य के रंगमंच पर ‘रंगभूमि’ की प्रतियों को जलाना अशोभन पाप है और ब्राह्मण-विद्वेष का अतिरेक भी। राजेन्द्र यादव कहते हैं कि “समग्रता में सोचना बेमानी है। हम जातियों में बंटी हुई वास्तविकताएं हैं।” किन्तु साहित्य का दायित्व ही इस सामाजिक बिखराव का संयोजन है। सहित का भाव ही साहित्य है। किन्तु आज एक लेखक का बयना दूसरे के घर जाता ही नहीं। फिर किस सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं? हमें संकीर्ण मानसिकता का अतिक्रमण करना चाहिए।

अजित कुमार राय, ajit kumar rai

अजित कुमार राय

आस्था अभी शेष है, रथ के धूल भरे पांव आपकी चर्चित कृतियां हैं। 'सर्जना की गंध लिपि' संपादित कृति है और 'नई सदी की हिन्दी कविता का दृष्टि बोध' आलोचना पुस्तक प्रकाशित है। आप हिंदी साहित्य की तमाम महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। अनेक संकलनों में निबन्ध, कविताएँ और आलोचनाएँ प्रकाशित। पूर्व प्रधानाचार्य, सुभाष इण्टर कालेज।

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