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नियमित ब्लॉग आलोक कुमार मिश्रा की कलम से....

बूढ़े भी सीखें ढलना

                 हमारे देश में बच्चों के सीखने-सिखाने के लिए तो बहुत-सी संस्थाएं और संगठन हैं जिसमें उन्हें उचित कौशलों, अभिवृत्तियों, सामाजिक लोकाचारों व व्यवहारों को आत्मसात करने की ओर उन्मुख किया जाता है। आँगनवाड़ी, स्कूल, कॉलेज, क्लब, प्रशिक्षण व हॉबी संस्थान इनमें प्रमुख हैं। लेकिन शायद हम बूढ़ों को बदलते समय के अनुरूप जीवन जीना सिखाने की ज़रूरत ही नहीं समझ पाते। उनके प्रति होने वाले दुर्व्यवहारों, उपेक्षाओं और उदासीनता को वर्तमान युवा पीढ़ी के स्वार्थपन और व्यक्ति केंद्रित जीवन दर्शन से जोड़कर हम समस्या का एकतरफ़ा और एकांगी विश्लेषण करते रहते हैं। कोई भी कभी पलटकर बड़े-बूढों के रूखे और समय विरोधी, सामंती व्यवहारों पर उंगली नहीं उठाता। आज बढ़ते वृद्धाश्रमों, अकेले जीवन गुज़ारते बूढ़ों को देखकर हम युवा वर्ग को ही कोसते हैं। बेशक इनमें उनकी भी ग़लती होती है। पर बहुत से मामले इन बूढ़े लोगों की कारगुज़ारियों का भी परिणाम होते हैं।

पितृसत्तात्मक मूल्यों से आबद्ध हमारे ये बूढ़े जीवन के अंतिम चरण में भी घर-परिवार पर वही प्रभुत्व और वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं, जैसा जीवन भर इन्होंने अपनी विरासत संभालने के बाद स्थापित किया होता है। उसी सामंती हनक से बहुओं को घर में क़ैद करने, उनसे अधिकार भाव से सेवा करवाने, बेटों को बेज़ुबान लाड़ला बना हमेशा दबकर रहने वाला बनाकर रखने में ही इन्हें अपना जीवन सफल दिखायी देता है। अपेक्षाओं की तो अंतहीन सूची इनके पास अपनी संतानों से होती है पर अपने बच्चों की आज़ादी और सम्मान की इन्हें न कोई परवाह होती है और न ही ये इसकी ज़रूरत समझते हैं। बहुत-सी बूढ़ियाँ दिन भर बहुओं में मीन-मेख निकलने, अपनी बेटी को दूसरों की नज़र में उठाने और बहू को गिराने में हिंदी सीरियल के नाटकों को भी पीछे छोड़ देती हैं। अपनी इस परियोजना में चाहे जैसे, अपने जोड़ीदार को भी शामिल करना हो होता है। इन सबके बीच मर्यादा और लोकलाज का मारा बेटा बहुत दिनों तक पत्नी-बच्चे और माता-पिता के बीच संतुलन बनाते-बनाते टूट जाता है और फिर एक दिन बिफर पड़ता है। वह अपने शांति और भविष्य के लिए वर्तमान के कुचक्रों से निकलने का फ़ैसला लेने पर मजबूर हो जाता है। बहुत-से बूढ़े आज इसी चरम स्थिति के प्रतिकार में बच्चों द्वारा उठाये गये क़दमों की वजह से दुर्दशा झेल रहे हैं। हालाँकि उन्हें ये सब मंज़ूर है लेकिन अधिकारपूर्ण हँसता-खेलता और आज़ादी का जश्न मनाता युवा बच्चों का परिवार नहीं। उनकी सामंती हेकड़ी इसे स्वीकार ही नहीं करने देती।

पर इस मामले में सबसे अधिक तनावपूर्ण यह बात है कि इसमें युवाओं की कोई सुनने वाला ही नहीं है। ऐसी हर स्थिति का एकमात्र ज़िम्मेवार उन्हें ही ठहराया जाता है। समाज में बूढ़े माँ-बाप को सेवा न कर पाने की ज़लालत से उन्हें ही गुज़रना पड़ता है। कोई इसमें दूसरे पक्ष की ओर से दरपेश होने वाली सामंती व्यवहारों की चुनौती पर बात नहीं करना चाहता। कोई इस बात पर नहीं सोचता कि बदलते समय के हिसाब से नयी पीढ़ी के साथ तालमेल करने के लिए इन बूढों को भी बदलना चाहिए। अब आप आधुनिक बहू-बेटे को अपनी जकड़न में बाँध कर नहीं रह सकते। बल्कि उनके साथ रहते हुए उन्हें सम्मान और स्पेस देते हुए उनका लगाव अपने प्रति अर्जित कर सकते हैं। अपनी प्रासंगिकता को बनाये रखने के लिए घर की छोटी-मोटी ज़िम्मेदारियां उठाने, पोते-पोतियों/नाती-नातनियों को खेलाने-पढ़ाने जैसे काम संभाले जा सकते हैं। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। लेकिन यदि ऐसी कोई साधारण अपेक्षा या माँग संतानें रख दें तो तुरंत उन्हें उत्पीड़नकारी साबित करने का सांस्कृतिक कुचक्र शुरू हो जाता है।

समय आ गया है कि बूढ़ों को नयी पीढ़ी के साथ समायोजित होने के तौर-तरीक़े सायास सीखने के अवसर दिये जाएँ। ऐसी ही ज़रूरी सीख बच्चों और युवाओं को भी उनके साथ रहने के लिए मिलनी चाहिए। अब बड़े संयुक्त परिवारों का दौर नहीं है कि एक से न सही दूसरे से तालमेल बिठा लें तो काम चल जाये। विकल्पहीनता की इस स्थिति में हमें सामंजस्य, संतुलन और एडजस्ट करना सीखना ही होगा। हमेशा सिर्फ़ अपेक्षाओं की गठरी बाँधे रहने से जीवन मुश्किल ही होता है।

alok mishra

आलोक कुमार मिश्रा

पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।

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