
- September 30, 2025
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नियमित ब्लॉग नमिता सिंह की कलम से....
द्वितीय विश्वयुद्ध का कथानक और आज के संदर्भ
मेरे एक मित्र ने, जो हमारे साथ एक सामाजिक संगठन में भी काम करते रहे हैं, मुझे एक दिलचस्प उपन्यास ‘गोरी हिरणी’ भेजा। लेखक पंजाबी के चर्चित कथाकार गुलज़ार सिंह सन्धु हैं। इसका हिन्दी अनुवाद वंदना सुखीजा और गुरुबख़्श सिंह मोगा ने किया है।गुलज़ार सिंह संधु ने कहानी, उपन्यास, रेखाचित्र, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा-वृत्तांत और संस्मरण भी लिखे हैं, लेकिन मुख्य पहचान कथाकार के रूप में हुई है।
यह उपन्यास दिलचस्प इसलिए है कि इसकी कथावस्तु अपने देश-समाज से नहीं बल्कि जर्मन समाज से जुड़ी है। कुछ समय के अपने जर्मनी प्रवास के दौरान उन्होंने देखा कि आज भी समाज में नाज़ी जर्मनी के अवशेष हैं। ये स्मृतियों के रूप में हैं और उन लोगों की उपस्थिति से हैं, जिन्होंने वह क्रूर शासन का दौर देखा था और फिर उसका अंत भी देखा। नौजवान युवक-युवतियों का बड़ा तबक़ा हिटलर से भावनात्मक रूप से जुड़ा था और उसकी एस.एस. आर्मी के रूप में युवा ब्रिगेड में शामिल था। उपन्यास की केंद्रीय पात्र मारथा ऐसी ही युवा ब्रिगेड की सक्रिय सदस्य थी, जिसका काम आम जनता के बीच जाकर जासूस के रूप में काम करना था और हिटलर विरोधी लोगों को चिन्हित कर उन्हें पुलिस के हवाले करना था।
लेखक गुलजार सिंह संधु पंजाब से हैं इसलिए कथानक जर्मनी के अनेक शहरों से लेकर पंजाब के कई शहरों तक फैला है। एक अन्य पात्र गुरुबख़्श सिंह हैं। उनके जैसे किसान परिवारों के बड़ी तादाद में नौजवान विदेशों में जाकर पैसा कमाने के लिए कई हथकंडे अपनाते हैं।

यह कहानी शुरू होती है, जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्ति की ओर था और जर्मनी की हार के समाचार फुसफुसाहटों से आगे निकलकर आम जनता के बीच आ चुके थे। हिटलर के शासनकाल में तैयार किये गये बंकरों में हिटलर और उसकी प्रेमिका ईवा ब्राउन और प्रिय कुत्ता तीन दिन रहे। आत्महत्या से एक दिन पहले, कहते हैं हिटलर ने ईवा ब्राउन से विवाह किया। फिर कुत्ते को ज़हर देकर मारा और स्वयं को गोली मार ली। ईवा ब्राउन ने ज़हर खा लिया। उसके कुख्यात सहयोगी और प्रचार मंत्री गोयबल्स, उसकी पत्नी और छह बच्चों का भी यही हश्र हुआ। ये कहानियाँ दुनिया भर में असंख्य बार लिखी और सुनी जा चुकी हैं और इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज हैं। लेखक शायद इस ऐतिहासिक परिघटना को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सभी देश और समाजों के लिए एक सबक़ के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है।
बदले परिदृश्य में एक किंडरगार्टन में ढेर सारे अनाथ हो गये बच्चों में मारथा की ढाई साल की बच्ची मोनिका और पाँच साल का बेटा माईकल भी हैं। मारथा मित्र राष्ट्रों की सेना के एक अमरीकी सिपाही के साथ अमरीका भाग गयी। उसकी दोस्त इनग्रिड भी युवावाहिनी में थी, लेकिन बाद में वह उससे अलग हो गयी। उसकी एक बहन बारबरा है, जो शुरू से मारथा की गतिविधियों के ख़िलाफ़ थी। ये दोनों कभी-कभार बच्चों से मिलने भी आते हैं।इनग्रिड तो अंत तक बच्चों और मारथा के संपर्क में रहती है।
धीरे-धीरे अन्य अनाथ बच्चों की तरह मोनिका और माईकल को भी पालनहार के रूप में नये माता-पिता मिल जाते हैं। माईकल सौभाग्यशाली है कि उसे अच्छे माँ-बाप मिले। मोनिका का जीवन सुखमय नहीं रहता। किशोरावस्था से ही वह घर से अलग रहकर एक बार में काम करने लगती है। वह पहले एक पाकिस्तानी युवा से शादी करती है, जो कुछ समय बाद उसे छोड़कर चला जाता है। फिर एक पंजाबी युवक धर्मपाल से शादी करके पंजाब आ जाती है। यहाँ उसे अच्छा लगता है लेकिन फिर धर्मपाल से धोखा खाकर वापस हैम्बर्ग जाती है। बाद में एक सिख पुस्तक-विक्रेता गुरमुख सिंह से उसका परिचय होता है।वह मानसिक रूप से परेशान मोनिका के प्रति सहृदय है। फिर वह उससे शादी कर लेता है। मोनिका से शादी करने का उसका मकसद वहाँ की नागरिकता प्राप्त करना भी है। बाद में इसी आधार पर वह पंजाब से अपने तीनों बेटों को वहाँ बुला लेता है। कुछ समय बाद मोनिका उसे तलाक़ देने पर राज़ी हो जाती है ताकि वह अपनी पहली पत्नी रूपिन्दर कौर भी वहाँ बुला सके। मोनिका की ज़िंदगी ऐसे ही उतार-चढ़ाव भरी है। वह गुरमुख सिंह और उसके परिवार से प्यार करती है, जो उसे भावनात्मक संबल प्रदान करते हैं। पूरा कथानक मोनिका और गुरमुख सिंह के परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है।
उधर माईकल अपने परिवार के साथ व्यस्त है। वह प्रौढ़ हो चुका है और अक्सर अपनी बहन को याद करता है। एक बार किशोरवय में उसने मोनिका का पता लगाने की कोशिश की थी और वह उससे मिलने में सफल भी हुआ लेकिन मोनिका के माँ-बाप ने उसे भगा दिया था। मोनिका भी उसे नहीं पहचान सकी थी।
अब एक बार वह फिर अपनी पोती की मदद से प्रयास करता है। लंबी कोशिशों के बाद माईकल को मोनिका और गुरमुख सिंह का परिवार मिलता है। कहानी के अंत में मारथा जो अमरीका में थी और अब वृद्धावस्था की ओर है, अपनी दोस्त इनग्रिड की मदद से जर्मनी लौटती है और बच्चों को देखती है।
कोई भी साहित्यिक कृति हो, लेखकीय उद्देश्य अवश्य कथानक में निहित होता है। विचारणीय है लेखक कहना क्या चाहता है। जाति, धर्म, नस्ल के आधार पर सामाजिक विभाजन और घृणाजनित राजनीति का स्वरूप और फिर उसका पतन दुनिया ने देखा। आज के संदर्भ में अपने देश की स्थितियों को देखते हुए एक समानांतर बिम्ब भी बनता है। नाज़ी नीतियों की कट्टरपंथी सोच- “याद रखो तुम जर्मन हो, आर्यन हो और शुद्ध हो—कुँवारे न रहो और अपने जैसा ही सुच्चा और सच्चा आर्यन ढूँढकर शुद्ध और शक्तिशाली बच्चों को जन्म दो—” को लेखक रेखांकित करता है और देश-काल परिस्थितियों के संदर्भ में बहुत कुछ इंगित करता है।
सीधा-सरल प्रवाहमय अनुवाद हिन्दी पाठकों के लिए उपन्यास को पठनीयता प्रदान करता है।

नमिता सिंह
लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।
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