
- September 30, 2025
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नियमित ब्लॉग विजय कुमार स्वर्णकार की कलम से....
क़ाफ़िया कैसे बांधें : भाग-1
सही क़ाफ़िये का चयन करने में अक्सर हिंदीभाषी ग़ज़लकारों को मुश्कित आती है। उर्दूभाषी भी कहीं-कहीं ग़लती कर जाते हैं। क़ाफ़िये या तुकांत के बारे में मेरा मानना है कि जो जन्मजात कवि होते हैं वे आसानी से इसके मर्म को समझ लेते हैं। उनसे वे ग़लतियां नहीं होतीं जो अन्य कविता प्रेमी करते हैं।
ग़ज़ल का व्याकरण चूंकि अन्य भाषाओं से आयातित है इसलिए इसके कुछ ऐसे पहलू हैं जिन्हें समझने के लिए अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता होती है। कई हिंदीभाषी ग़ज़लकार अपने हिन्दी व्याकरण ज्ञान को मूल में रखकर ग़ज़ल के क़ाफ़िये बरतते हैं। ऐसे में कभी-कभी चूक होने की संभावना बनी रहती है। देवनागरी लिपि में अब कई पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनमें क़ाफ़िये के बारे में विस्तृत विवरण संकलित है। यहां शास्त्रीय और व्यावहारिक पक्ष पर भी बहुत कुछ मिल जाता है। ये पुस्तकें नवोदितों के लिए उपयोगी हैं।
यह लेख उनके लिए उपयोगी है, जिन्हें क़ाफ़िये के हर्फ़ों के बारे में जानकारी है। जैसे हर्फ़-ए-रवी, हर्फ़-ए-रिदफ़, हर्फ़-ए-क़ैद, हर्फ़-ए-तासीस आदि। यह सर्वविदित है कि अगर हर्फ़-ए-रवी की पहचान करना नहीं आता तो सही क़ाफ़िये के चयन में ग़लती होगी ही। वैसे भोर/जोड़, आस/शान, चल/रच आदि आपस में सही क़ाफ़िये/तुक नहीं होते ये सबको पता होता ही है।
ग़ज़ल में सही क़ाफ़िये/तुकांत का निर्धारण मतले पर आधारित होता है। दो सुसंगत क़ाफ़िये/समतुकांत शब्द ज़रूरी नहीं कि अपने शेष समतुकांतों के साथ सुसंगत हों। जैसे लचर, अमर, समर के उदाहरण लेते हैं। लचर और समर अगर मतले में हैं, तो आने वाले अशआर में अमर, कमर, बसर आदि सही क़ाफ़िये होंगे। वहीं अगर मतले में अमर और समर क़ाफ़िये हैं तो अगले अशआर में लचर, बसर आदि सही क़ाफ़िये नहीं होंगे। क़ाफ़िये की घोषणा मतले से होती है; रदीफ़ की भी और वज़्न की भी अर्थात मतला ग़ज़ल की ज़मीन घोषित करता है। इस जटिलता को समझने और स्पष्ट करने के लिए एक नयी अप्रोच की आवश्यकता है।
तुकांत के निर्धारण के लिए शब्द के कम से कम अंतिम दो अक्षर और उनकी मात्राओं की स्थिति निर्णायक होती है। रेखागणित में भी काग़ज़ पर किसी बिंदु की स्थिति निर्धारण के लिए दो रेफरेंस बिंदु आवश्यक होते हैं। तुकांत के लिए सबसे महत्वपूर्ण है एक विशिष्ट स्वर। यह इसलिए कि कविता में गेयता का तत्व प्रमुख है और उसके निर्वाह के लिए तुकांत शब्द आवश्यक है और तुकांत के लिए इस विशिष्ट स्वर की आवश्यकता होती है। जैसे “घर” और “वर” शब्दों में “र” हर्फ़-ए-रवी है और “घ” और “व” में जुड़ा हुआ “अ” वह विशिष्ट स्वर है, जो इन शब्दों को समतुकांत बनाता है। “अर” की ध्वनि पर्याप्त है, इन्हें समतुकांत बनाने के लिए। यह विशिष्ट स्वर जिस व्यंजन से जुड़ा हो, उसे मात्रा विहीन (स्वरविहीन) भी कर देता है। जैसे यहां “घर” और “वर” से “अ” हटाते ही वे मात्राविहीन हो जाते हैं। जैसे “पार” के “पा” (प+अ+अ) में से “अ” हटाने पर भी “प” बचता है जिसमें अभी “अ” स्वर है अतः “पार” और “घर” सम तुकांत नहीं हैं। हिन्दी की मात्राओं के साथ यह अत्यंत आसान है। हिन्दी में इसे दूसरी तरह से समझा जा सकता है। “पार” में “अ” नहीं “आ” है इसलिए विशिष्ट स्वर एक जैसा नहीं है। इसलिए “पार” और “घर” सम तुकांत नहीं हैं। यहां तक की जानकारी प्रायः सभी को होती है।
कठिनाई तब आती है जब हर्फ़-ए-रवी और उससे ठीक पहले के अक्षर से भी पहले का अक्षर क़ाफ़िया निर्धारण प्रक्रिया में शामिल होता है। जैसे “अमर”, “समर”, “कमर” में। तुकांत “अर” निर्धारित करने के लिए इकाई और दहाई की जगह के अक्षर ही पर्याप्त हैं। लेकिन यहां सैकड़े की जगह पर एक अन्य विशिष्ट स्वर भी समान है। सैकड़े की जगह “अ” वह अन्य विशिष्ट स्वर है। अब अगर मतले में “कमर”, “समर” तुकांत आते हैं तो आगे के अशआर में “अमर” की बंदिश हो जाएगी। जैसे “घर” “वर” में “अर” की बंदिश हो गयी थी।
यहां विवेचन का विषय यह है कि क्या यह विशिष्ट स्वर अपने बाद के अक्षर समूह (मर) को एक ही अक्षर समझता है। जी हाँ। इसी कारण “चला”, “गला” भी समतुकांत हैं और “अपना”, “सपना” भी। इस विशिष्ट स्वर के सूत्र को केंद्र में रखकर हम आगे जिस तथ्य तक पहुंचेंगे वह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अभी तक हमने समझा कि अगर “अर” भी मिल जाये तो तुकांत सही होते हैं और यदि “अमर” मिल जाये तो भी सही। मतलब वह विशिष्ट स्वर दहाई की जगह हो तो भी सही, सैकड़े की जगह हो तो भी सही। बस विशिष्ट स्वर के बाद का अक्षर समूह एक-सा होना चाहिए।
एक बड़े ग़ज़लकार ने अपने साक्षात्कार में उल्लेख किया था कि तुकांत को समझने में उन्हें केवल एक घंटे (अर्थात बहुत कम) का समय लगा। उन्होंने कहा कि रामचरित मानस में तुकांत शब्दों का भंडार है। उससे ग़ज़ल के तुकांत भी समझे जा सकते हैं। इससे प्रेरणा लेकर मैंने रामचरित मानस के कुछ अंशों को पुनः पढ़ा और जाना कि वे किस तरह हमारी मदद करते हैं। उदाहरण के लिए दो चौपाइयां और एक दोहा देखिए :
तात अनुज तव नीति विभूषण
सो उर धरहु जो कहत विभीषण
तासु नारि निज सचिव बोलाई
पठवहु कंत जो चहहु भलाई
जा अस हिसिषा करहिं नर जड़ विवेक अभिमान
परहिं कलप भरि नरक महु जीव कि ईस समान
पहली चौपाई में “भूषण” और “भीषण” समतुकांत हैं। रेखांकित करने वाला तथ्य यह है कि यह समतुकांतता “षण” के कारण नहीं “अण” के कारण है। “षण” के कारण इसलिए नहीं कि उससे पहले “भी” और “भू” की मात्रा एक-सी नहीं है। जिस विशिष्ट स्वर की बात ऊपर हुई है वह यहां उपलब्ध नहीं है। वह तो “अण” के “अ” में है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर सैकड़े के स्थान पर वह विशिष्ट स्वर नहीं मिलता तो उसे दहाई पर ढूंढिए अगर वह वहां है तो फिर दहाई पर उपस्थित व्यंजन की समानता का कोई अर्थ नहीं है जैसे यहां “ष” व्यंजन का होना कोई अर्थ नहीं रखता। इसकी क़ैद नहीं होगी। यह चौपाई है लेकिन इसके अगर अशआर लिखे जाएं तो आगे “षण” की क़ैद नहीं होगी। यहीं से उस सबसे बड़ी गुत्थी को सुलझाया जाएगा, जिसके कारण सब भ्रम में है और जिसका निदान किसी व्याकरण के संकलन में नहीं है।
इस तथ्य के प्रतिपादन के लिए हसरत मोहानी, जिन्होंने ग़ज़ल के व्याकरण पर महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी, के अशआर देखिए:
रोशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम
उस बुत के पुजारी हैं मुसलमान हज़ारों
बिगड़े हैं इसी कुफ्र में ईमान हज़ारों
इन मतलों के साथ आगे के अशआर में “मन/ मान” की कोई बंदिश देखने को नहीं मिलती। और उसका कारण कोई भूल या अपवाद नहीं है वरन विशिष्ट स्वर का सटीक निर्धारण है।
शेष अगले भाग में

विजय कुमार स्वर्णकार
विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
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