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नियमित ब्लॉग आलोक कुमार मिश्रा की कलम से....

काश! हम वैसे ही होते

           बहुत दिनों से ये विचार मेरे मन में उथल-पुथल मचाये हुए हैं। हर दफ़ा लगता रहा कि पता नहीं ग़लत सोच रहा हूँ या सही। पर सोच तो रहा ही हूँ। शहर की इस भागदौड़ भरी ज़िदगी में गोते लगाते हुए गाँव किसी पूर्व प्रेमिका की तरह याद आता है और बचपन उसके साथ बिताये लम्हात की तरह। प्रेमिकाएं जब (इसे प्रेमी भी कह सकते हैं) दूर हो जाती हैं तब ही हम ठहरकर उसके बारे अच्छी तरह सोच पाते हैं। दरअसल तभी हम जान पाते हैं कि वह व्यक्ति के तौर पर कैसी थी। उसकी अच्छाइयाँ, ऐब, उदासीनता, पसंद-नापसंद सब और बेहतर ढंग से हमारी आँखों और हृदयों में खुलने लगते हैं। ओह, गाँव की बात करते हुए मैं तो प्रेमिकाओं की याद में बह गया।

आज जब गाँव की छोटी-छोटी बातें नॉस्टेल्जिया बनकर दिलो-दिमाग़ में उतरती हैं, तब उसकी कमी, पीड़ा सब ख़ुद-ब-ख़ुद चार क़दम पीछे हो अच्छाइयों को आगे कर देती है। ऐसी ही एक अच्छाई पर इन दिनों बार-बार ध्यान जा रहा है। बचपन में गाँवों का जीवन पूरी तरह प्रकृति से सहकार होकर चलता था, जिसे आजकल शहरी विमर्श में आदिवासी जीवन से जोड़ते हुए उसी के लिए आरक्षित कर दिया गया है। सोचता हूँ, तो क्या हम सब ही आदिवासी थे? एक जन्मना ब्राह्मण ख़ुद को आदिवासी परंपरा से जोड़ रहा है? है न मज़ेदार! पर सावधान, ये ख़तरनाक भी हो सकता है।

ख़ैर, फूस, मिट्टी और लकड़ी के बने हमारे घर आदिवासियों के आवास जैसे ही तो थे। अमीरी-ग़रीबी का अंतर तो था, पर इतना विकराल नहीं। सबके जीवन में मवेशी अभिन्न सदस्य के रूप में थे। चाहे वो गाय, भैंस, बैल रहे हों या फिर बकरी, मुर्गी, भेड़। ज़रूरतें इतनी ही थीं कि रुपये नहीं, घर में रखे अनाज के बदले काम चल जाये। ग़रीबी तो थी, पर गाँव का ये पारंपरिक समाजवाद ही था कि किसी को भूख से मरते नहीं देख सकता था। बेशक जातीय भेदभाव व्यवहार में जमे थे, पर कबीर-रैदास-नानक के संदेशों से गुंथा मन भी अपनी पूर्ण सत्ता में रंग जमाता था।

हमारे स्थानीय देवी-देवता, पीर-फ़कीर-साधु और उनके स्थान प्रकृति की गोद में थे और उसी के प्रतीकों में प्राणवान भी थे। बहुत हद तक अब भी हैं। लेकिन इन्हें अब बाज़ारवाद और धर्म के नव आख्यानिक समझ की नज़र भी लग चुकी है। हम गाँव के बगिये में बिना किसी निर्माण के मिट्टी के ऊँचे स्थान को समय माई कहते, तो पोखर के भीत को बरम बाबा का स्थान मान सर नवाते। नदियाँ ही नहीं, कुएँ भी हमारे धर्म स्थल थे। त्योहार यूँ मनाये जाते कि उनमें धन का नहीं मन का निवेश रहता। हर तीसरे-चौथे दिन दादी, माई, काकी कुछ न कुछ मनातीं और हम उसका हिस्सा बन जाते। सूरज, चाँद, तारे, धरती सब आराध्य हमारे। देहरी पर साँझ पूरते तो खेतों में दीवाली के दीप जलाते। फगुआ गाँव की मिट्टी-गोबर और रंग से मन जाता। मुहर्रम शोक लाता, रमज़ान उमंग जगाता।

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रहन-सहन ऐसा कि हम प्रकृति में और प्रकृति हममें थी। हम आम के पत्तों से घर सजाते तो केले या पुरइन पात पर सामूहिक भोज करते। गन्ने की बुवाई के बाद पूरा गाँव साथ सहभोज करता तो एक के दुख में दूसरे का चूल्हा न जलता। गाँव में किसी के भी घर बहन-बेटियाँ ससुराल से आतीं, तो उनका सुख सुन हम सब फूल कर कुप्पा हो जाते और दुख सुनकर उदास। जानता हूँ कि अब वो गाँव नहीं रहे। जब कुछ दिनों के लिए कभी वहाँ जाता हूँ तो मन में बसी ये पुरानी छवि कुछ दरक सी जाती है। वहाँ भी स्वार्थ और बाज़ार की चूहा-बिल्ली दौड़ शुरू हो चुकी है। वैसा अपनत्व अब नहीं दिखता। लेकिन जब बचपन में जिये पर्यावरण से तारतम्यता पूर्ण जीवन को अब सोचता हूँ तो लगता है कि मूल में हम सब कहीं आदिवासी ही तो नहीं! वही आदिवासी जो जल-जंगल-ज़मीन से अपना जुड़ाव बनाये रखे हुए हैं। प्रकृति को अपने अस्तित्व का हिस्सा मानकर उसे सहेजे हुए हैं।

काश! हम सब अब तक ये जुड़ाव बनाये रख पाये होते। आख़िर कभी न कभी हम सबके पूर्वज ऐसी ही ज़िंदगी तो जीते थे। वैसा ही जीवन हम जीते तो फिर न ग्लोबल वॉर्मिंग होती, न प्रदूषण। न इंसान यूँ मशीन बनता और न अकेलेपन का तनाव यूँ जगह बनाता। सोचो।

(तस्वीर इंडियाआर्ट.कॉम से साभार)

alok mishra

आलोक कुमार मिश्रा

पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।

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