
- October 19, 2025
- आब-ओ-हवा
- 3
दीपक, प्रकाश शब्द और भाव के इर्द-गिर्द ये कविताएं बुनी गयी हैं। समकालीन गद्य कविता की दुनिया में ये सभी कवि अपनी पहचान बना रहे हैं या बना पाये हैं। यह विषय विस्तृत है और इस पर सभी बेहतरीन कविताएं जुटाना तो बड़ा शोध हो, पर समकालीन कविता की आब-ओ-हवा का पता इन दस कविताओं से मिलता है...दीवाली के मौक़े पर विशेष रूप से पढ़िए ये कविताएं
संकलन : ब्रज श्रीवास्तव...
दीपक/प्रकाश के विषय पर 10 समकालीन गद्य कविताएं
1. अंधेरा उजाला
उढ़का हुआ दरवाज़ा खोलकर
उजाला आएगा भीतर
पीली मिट्टी की ताज़ी लिपाई पर
खटिया बिछी होगी
अंधेरा उसे बैठने के लिए इशारा कर देगा
मटके के भीतर अंधेरे में पानी होगा
उजाले को थमाएगा
घूंट-घूंट प्यास सोती जाएगी
पुरानी सन्दूकों में
पुराना अंधेरा बन्द रहेगा
उजाला उन्हें छेड़ेगा नहीं
दरवाज़े खिड़की सब खोलकर
उजाला रोज़ के कामकाज में लगेगा
अंधेरा चुपचाप कोने में बैठा देखता रहेगा
– आशुतोष दुबे, इंदौर
————*————
2. मुट्ठी भर रोशनी
सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ अभी
शेष है अब भी
मुट्ठी भर रोशनी
इस तमाम अँधेरे के बावजूद
खेतों में अभी भी
लहलहाती हैं फसलें
पृथ्वी की कोख
अभी भी तैयार है
बीज को पौधा बनाने के लिए
किसानों के होठों पर
अभी भी
लोक गीतों की ध्वनियाँ नृत्य करती हैं
फूलों में लगी है
एक-दूसरे से ज्यादा
सुगन्धित होने की ज़िद
इस बारूद की गंध के ख़िलाफ़
शब्द अपनी हत्या के बावजूद
अभी भी सुरक्षित हैं कविताओं में
और इतना काफ़ी है
– अमरजीत कौंके, पटियाला
————*————
3. दोनों
फूल पर बारिश हुई
कुछ बचा
कुछ गिरा
अब दोनों सूख रहे हैं
फूल झड़ रहा है
बूँदें हवा में समा गयीं
वहाँ एक बच्चा हँस रहा
एक बच्ची रो रही है!
आज फिर थोड़ी-सी बारिश होने वाली है
एक विशेष प्रकाश के साथ
जीवन के प्रकाश के लिए
– अरुण शीतांश, आरा
————*————
4. कठिन सवाल
दीपक की लौ से प्रकाश का घेरा बना है
उजाले में आठवीं कक्षा के गणित की किताब खोले
हल कर रहा है प्रश्न चुटकियों में वह
झोपड़ी के बाहर पहाड़ियों के ऊपर अपने पंखों को लहराती
हवाओं से संघर्ष करती दैत्याकार पवन चक्कियाँ
जुटी हुई हैं रोशनी के इंतजाम में
तलहटी में बसा है उसका गांव
गांव में धड़कता है जीवन
जीवन में उम्मीद का चिराग़ जलाये
वह सपनों को बुन रहा अंधेरों में
तेज़ हवा का झोंका
दीपक की लौ को विचलित करने को लगातार आतुर
और वह है कि अपनी हथेलियों की ओट कर
अपने हिस्से की रोशनी को बचाते हुए संघर्षरत
परीक्षा की तैयारी में जुटा है
गणित में निपुण बालक को
एक कठिन सवाल का जवाब मिल नहीं पा रहा
उसकी पहाड़ी, उसके गांव की हवा से बनती बिजली से
रोशन क्यों नहीं उसकी झोपड़ी
उसका जीवन।
– ब्रजेश कानूनगो, इंदौर
————*————
5. मैं धूल सितारों की
हूँ निहारता,
जब सितारों को,
पढ़ता हूँ उन्हें,
जाता हूंँ खो,
जाता हूँ चला खिंचा,
सब बस,
जाता हूँ भूल, कहानी, कविता।
क्षणों में,
महाकाव्य,
महागाथा कोई,
जाती है रच-बुन,
जान, यह समझ,
कि मेरा और आप सबका
यह शरीर,
सितारों की धूल का है बना।
हाँ, है यह देह,
है धूल सितारों की।
अन्तर का मेरे, एक बोल,
है कह उठता,
हूँ मैं धूल सितारों की।
अणुओं, इस धूल के,
कणों, ने है की यात्रा,
यात्रा करोड़ों,
अरबों बरसों की,
अनंत में।
है ठहरी नहीं,
यात्रा, है आज भी जारी,
है मिटता नहीं, जीवन कभी।
है दिखता नहीं,
है जीवन वस्तु नहीं आँखों की।
है आक्सीजन से लेकर,
सोना और लोह,
है सब धूल सितारों की।
हूँ मैं भी धूल सितारों की।
जीवन अपने की
आग ताप में बदल,
मिलियन डिग्री का ताप,
है सूरज,
उगजता, उफनता
ताप करता यात्रा,
इस देह के लिए,
है जो धूल सितारों की।
हूँ मैं धूल सितारों की।
सूरज अरबों कोसों दूर,
है निभाता आकाशगंगा को
रखने को जीवंत,
है आग के पहाड़ उगलता,
हजारों हजारों किलोमीटर उँचे,
ताकि ताप उसका, मुझ तक,
आप तक,
धरती के सब बासिंदो तक,
सके पहुंच।
हैं हम सब लिए देह,
बनी चाँद तारों की,
हूँ मैं धूल सितारों की।
है एक देवता,
जीवन को हमारे,
है ताप से सींचता।
अंकुर को एक बीज के,
गोद में,
है गरमाहट के स्नेह से भरता।
है जो धूल सितारों की।
हूँ मैं धूल सितारों की।
है धरा,
एक गगनयान,
और
हैं सितारे मेरे पुरखे।
वही पुरखे जो आसमान में,
अंधेरों में, हैं दिखाते हमें राह।
है ये सब धूल उन्हीं की।
हूँ मैं धूल सितारों की।
होना मेरा,
है तारों से है होना,
होना मेरा, तारों का मुझमें है उगना।
हड्डी, मज्जा मेरी,
है वहीं से आयी।
है मेरी हर साँस में, धूल तारों की।
हूँ मैं धूल सितारों की।
है राह अनजान,
भले,
भरी चुनौती हैं राहें,
है अपने आप में जीवन स्वर्ग,
है लिए तारों की चमक।
सूरज की दमक।
तारों की धूल,
है जीवन राह बनाये।
है जो धूल सितारों की।
हूँ मैं धूल सितारों की।
है पसंद,
सितारों को देखना बहुत,
बचपन से।
जाता हूँ खो,
रोशन, अनंत, आकाश में।
चाहती हैं जाना,
नजरें दूर दूर तक,
खुली रह जाती हैं,
आंखें फटी-सी,
जी भर,
अपने खालीपन को भरने,
यही हूक खालीपन की,
है भर जाती विस्मय से,
है रच जाती ढेंरों गाथा गीत,
मैं, दूर सितारों में,
सितारे मुझ में,
हूंँ मैं धूल सितारों की।
– रामा तक्षक, नीदरलैंड
————*————
6. जलते दीप
सांझ के कांधे पर
जलते दीप
मध्यम हवाओं के बीच..
दिनकर लौट रहा
लंबवत बांसों के झुरमुट के पीछे
धंसता जा रहा हो, जैसे..
दीपक की लालिमा
झिलमिला रही
तालाब के सीने से मिलती
ओस
जो चूल्हे से
निकले धुएं से सनी है..
नीड़ की तलाश में
पखेरुओं का चिल्लाना
उनके लौटने पर
गोधूलि की ख़ुशबू
ख़ुशबू यादों की..
एक गहराई के साथ
यह सांझ भी
यादों की शीत लहर की तरह
सिमटकर गुम हो गयी
अलाव और रजाई में
दीपक जलता रहा पूरी रात..
– आनंद सौरभ, विदिशा
————*————
7. ओ रे दीपक!
ओ रे दीपक! कुछ प्रकाश भर,
दुष्ट शासकों के भी मन में।
वे जो तानाशाह बने हैं लोकतंत्र में।
रचते क्रूर-कपट हैं जो नित छद्म-यंत्र में।।
उनको भी कुछ दे विवेक जो कट्टरता से,
घोल रहे विष मानवता के महा-मंत्र में।।
आग लगाने में माहिर हैं जो उपवन में।
ओ रे दीपक!कुछ प्रकाश भर
क्रूर शासकों के भी मन में।।
वे जो मिथ्या अंधास्था का तम भरते हैं।
नीति त्याग कर जो हरदम अनीति करते हैं।।
भ्रष्टाचार करे हैं जो पाखण्ड रचा कर,
न्याय छोड़ अन्याय मार्ग पर पग धरते हैं।।
भेदभाव उत्पन्न कर रहे जो जन-जन में।
ओ रे दीपक! कुछ प्रकाश भर,
धूर्त शासकों के भी मन में।।
– कैलाश मनहर, जयपुर
————*————
8. अंधेरों के ख़िलाफ़
प्रारंभ में
एक मिट्टी का दिया
जला होगा
अंधेरों से लड़ता हुआ
उजाला दूर-दूर तक
फैला होगा
फिर
संवेदनाओं के चंगुल में फंसकर
जनमत के बाजार में
नीलाम होने लगा
जूझता रहा आंधियों से
लेकिन
नहीं ख़त्म होने दी
अपनी टिमटिमाहट
उजाला
फूलों की पंखुड़ियों पर
लिख रहा है
अपने होने का सच
मिट्टी का दिया
आज भी उजाले को
मुट्ठियों में भर-भरकर
घर-घर पहुंचा रहा है
ताकि मनुष्य
लड़ सकें
अंधेरों के ख़िलाफ़
– ज्योति खरे, छिंदवाड़ा
————*————
9. दीपक
एक ज़माना था
जब मिट्टी का हर तरफ़
बोलबाला था
बच्चे उसे खाया करते थे खेलते समय
महिलाएं बाल धोया करतीं
इलाज के लिए भी मुफ़ीद रही मिट्टी ही
कुम्हार को प्रजापति इसलिए कहा गया
कि वह मिट्टी के बर्तन
पूरे गांव को देता था
कबीर ने उसकी बातें अपनी साखी में करीं
ब्याह की शुरूआत में ही होती थी
मिट्टी की पूजा
एक ज़माना था जब
किसी के मिट्टी में मिल जाने की ख़बर सुनकर
लोग रोने लग जाते थे
नाटक में भी मिट्टी की गाड़ी की बड़ी भूमिका थी
देश का नाम राष्ट्र नहीं मिट्टी होता था
हम सब बाहर से घर में प्रवेश करते समय
तनाव नहीं, मिट्टी छुटाते थे
खेतों की मिट्टी को माँ की तरह पूजा जाता था
सबसे बढ़िया खिलौने मिट्टी के हाथी घोड़े होते थे
मिट्टी के घरों में ही रहते थे महापुरुष
मिट्टी की गंध नहीं मिली थी मिट्टी में
एक ज़माना था जब सूरज और चंद्रमा के
अलावा रोशनी बांटने का ज़िम्मा
दीपक का था
जिसमें मौज़ूद मिट्टी
कार्तिक की अमावस को बहुत उमंग में रहती थी
– ब्रज श्रीवास्तव, विदिशा
————*————
10. ताखे पर दीया
चलो पूरी दुनिया में
दीया जला आएँ
उम्मीद का
प्रेम की बाती को
मन के तेल में
डुबोकर
इससे पूर्व कि
हो जाये देर
जला आएँ दीया
वहाँ ओसारे पर
छोटे-से ताखे पर भी
जो खुलती हुई
बाहरी दीवार पर बना है
या फिर
उस दालान पर
सड़क के ठीक किनारे,
जहाँ से गुजरेंगे कई कामगार
स्त्री-पुरुष, बच्चे
एक अदद दिन को
अपने अथक श्रम से
भर दिन ख़ुशनुमा बनाकर
और रखना है वहाँ भी एक दीप
जहाँ से छले जाते हैं मन,
दीपदान तो
हर लेते मन के हर कलुष
तो चलो आँगन, तुलसी,
पूजागृह के बाहर भी
देहरी पर रख आएँ दीप
क्योंकि आ चुका है
वह समय बेईमान
अपनों को
और अपने को
खो देने का।
– अनिता रश्मि, रांची

ब्रज श्रीवास्तव
कोई संपादक समकालीन काव्य परिदृश्य में एक युवा स्वर कहता है तो कोई स्थापित कवि। ब्रज कवि होने के साथ ख़ुद एक संपादक भी हैं, 'साहित्य की बात' नामक समूह के संचालक भी और राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक आयोजनों के सूत्रधार भी। उनके आधा दर्जन कविता संग्रह आ चुके हैं और इतने ही संकलनों का संपादन भी वह कर चुके हैं। गायन, चित्र, पोस्टर आदि सृजन भी उनके कला व्यक्तित्व के आयाम हैं।
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बहुत अच्छा चयन है कविताओं का। मेरी कविता शामिल करने हेतु धन्यवाद।
बहुत उम्दा चयन किया है आपने कविताओं का। मेरी कविता शामिल करने हेतु धन्यवाद।
दीपावली पर लिखी कविताओं का महत्वपूर्ण और सुंदर संकलन
सम्मलित सभी रचनाकारों को बधाई
मुझे सम्मलित करने का आभार
ब्रज भाई और दिलशाद भाई को साधुवाद