राग दरबारी, rag darbari, shukriya kitab
(विधाओं, विषयों व भाषाओं की सीमा से परे.. मानवता के संसार की अनमोल किताब -धरोहर- को हस्तांतरित करने की पहल। जीवन को नये अर्थ, नयी दिशा, नयी सोच देने वाली किताबों के लिए कृतज्ञता का एक भाव। हर सोमवार आब-ओ-हवा पर 'शुक्रिया किताब'.. इस बार व्यंग्य साहित्य की सर्वाधिक चर्चित एवं बेस्टसेलर कृतियों में शुमार पुस्तक की चर्चा- संपादक)
संजीव परसाई की कलम से....

हर दौर का आईना - राग दरबारी

            …रंगनाथ का चेहरा तमतमा गया। अपनी आवाज को ऊंचा उठाकर, जैसे उसी के साथ सच्चाई का झंडा भी उठा रहा हो, बोला “प्रिंसिपल साहब, आपकी बातचीत से मुझे नफ़रत हो रही है। इसे बंद कीजिए।” प्रिंसिपल ने यह बात बड़े आश्चर्य से सुनी। फिर उदास होकर बोले, “बाबू रंगनाथ, तुम्हारे विचार बहुत ऊंचे हैं। पर कुल मिलाकर उससे यही साबित होता है कि तुम गधे हो।”

यह बात राग दरबारी के मुख्य पात्रों की आख़िरी बातचीत है। कई बार ऐसा लगता है कि प्रिंसिपल साहब, ये रंगनाथ बाबू से ही नहीं आपसे और मुझसे कह रहे हैं। आज के दौर में भी कोई न कोई प्रिंसिपल, अपने आसपास के रंगनाथ को भलाई, सदाचार, मेहनत और समर्पण के कारण बुद्धू कह देता है या मान लेता है।

बहरहाल, राग दरबारी, साल 1968 में लिखी गयी थी। अब तक मेरी जानकारी के अनुसार बयालीस संस्करण आ चुके हैं। साल 2011 में श्रीलाल शुक्ल जी ने इस शिवपालगंज रूपी संसार को अलविदा कह दिया। लेकिन राग दरबारी हमारे बीच आज भी मौजूद है। ठीक उसी रूप में, जैसा कि लिखा गया है। उपन्यास भले ही 1968 में प्रकाशित हुआ हो, लेकिन इसके भीतर जो व्यंग्य, राजनीतिक विडंबना, नौकरशाही की चालबाज़ियाँ और सामाजिक ढांचे की पोल उजागर की गयी है, वह आज भी उतनी ही सटीक बैठती है।

राग दरबारी, rag darbari, shukriya kitab

देश में हज़ारों शिवपालगंज हैं, जहाँ विकास योजनाएं तो आती हैं, लेकिन उसका लाभ किन्हें मिलता है यह सवाल है। पंचायत, राजनीति, जातिवाद, बाहुबल और सत्ता की मिलीभगत आज भी वैसी ही दिखायी देती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस और राजनीति तंत्र पर उपन्यास का व्यंग्य आज की नौकरशाही और राजनीति की विफलताओं को भी उजागर करता है। ‘कॉलेज’ और ‘प्रिंसिपल वैद्यनाथ मिश्र’ जैसे चरित्र आज भी सिस्टम के भीतर मौजूद अनेक ऐसे पात्रों के प्रतिनिधि हैं।

उपन्यास के पात्र (रंगा मास्टर, वैद्यनाथ मिश्र, लंगड़, बद्री पहलवान आदि) प्रतीक हैं, उन लोगों के जो समाज को अपने फ़ायदे के अनुसार चलाते हैं। ऐसे लोग आज भी हर गाँव, कस्बे, या छोटे शहर में मिल जाते हैं। यह किताब पढ़ते हुए अहसास होता है कि हम समाज, संसाधन और सुविधाओं के दुरुपयोग के लिए सीधे सक्षम वर्ग को दोषी ठहरा देते हैं। लेकिन सर्वहारा वर्ग भी कम नहीं है, जहां मौक़ा मिलता है, चौका मार ही देता है।

शुक्ल जी की भाषा शैली, व्यंग्य और कटाक्ष आज के सोशल मीडिया के व्यंग्यात्मक कंटेंट की तरह ही प्रभावशाली है। आज जब मीम्स और सटायर आम हो गये हैं, तब ‘राग दरबारी’ का व्यंग्य उससे कहीं अधिक गहराई लिये होता है। असल में इस किताब में ‘विकास’ और ‘यथास्थितिवाद’ की टकराहट साफ़ दिखायी देती है। उपन्यास में साफ़ दिखायी देता है कि बदलाव की कोई भी कोशिश गांव के पारंपरिक ढांचे को असहज करती है। इसीलिए आज भी सरकार की कई नीतियाँ सिर्फ़ काग़ज़ पर लागू होती हैं, ज़मीन पर नहीं। पात्रों के संवाद आपको अपने सामने घटित होते लगेंगे, हर पात्र बात करते करते जो सोचता है। वह भी साफ़-साफ़ नज़र आता है, यही शुक्ल जी की शानदार संवादात्मक शैली है, जो अपने पाठकों को पठन-पाठन और लेखन की दृष्टि से समृद्ध बनाती है।

“राग दरबारी” केवल एक व्यंग्यात्मक उपन्यास नहीं है, यह भारत की प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक जड़ों की पड़ताल करता है। आज जब हम ‘नये भारत’ की बात करते हैं, तो यह ज़रूरी हो जाता है कि हम “राग दरबारी” जैसे साहित्य को फिर से पढ़ें, समझें और देखें कि बदलाव की राह में क्या अब भी वही अड़चनें हैं जो तब थीं। इस किताब से मेरा वास्ता तबसे है, जब मैं सोलह-सत्रह साल का रहा होऊंगा। जब मेरे पिताजी ने मुझे यह किताब पढ़ने को कहा था। सो मेरे गृहनगर पिपरिया के शहीद भगतसिंह पुस्तकालय में इस किताब से पहली बार सामना हुआ। उसके बाद आज तक यह किताब एक हिस्से के रूप में साथ चल रही है। लेखकीय समझ विकसित करने में इस किताब का बड़ा योगदान रहा। क्या और कैसे लिखें वाले सवाल से ज़्यादा क्यों लिखें पर इस किताब ने स्पष्ट राय बनायी।

21वें अध्याय की शुरूआत में शुक्ल जी लिखते हैं, “सबेरे गांव में खबर फैल गयी, कि जोगनाथ को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि जोगनाथ को जो वैद्य जी का आदमी है, पुलिस ने छूने की हिम्मत दिखा दी। गांव के गुंडे और भले सब घबरा उठे। गुंडे इसीलिए की जब वैद्य जी के गुंडे को न छोड़ा तो हम क्या हैं। भले इसीलिए घबरा गए कि जब पुलिस अपने हमजोलियों के साथ ऐसे पेश आ रही है तो हमारे साथ किस तरह पेश आएगी।”

यह एक कालजयी घटना है, जो हर दौर में घटित होती रहेगी। यह सिर्फ़ पुलिस ही नहीं समाज के चरित्र और नज़रिये को समझने में हर पीढ़ी को मदद करेगी। ऐसे ही अस्पताल, स्कूल, बस, कॉलेज, ऑफ़िस, सोसाइटी, राजनीति, संगठन के कई उदाहरण इस किताब में हैं।

मेरा मानना है अगर आपको आज के सिस्टम से कोफ़्त होती है, तो इस किताब का कोई भी एक पन्ना खोलिए और पढ़ना शुरू कर दें। यह किताब आज की पीढ़ी के लिए एक ऐसा दस्तावेज़ है, जो तत्कालीन, समाज, सिस्टम, परिवेश से परिचित कराती है। किसी भी पीढ़ी के लोग इससे अपनी तुलना करके अपनी प्रगतिशीलता का आंकलन कर सकेंगे।

(क्या ज़रूरी कि साहित्यकार हों, आप जो भी हैं, बस अगर किसी किताब ने आपको संवारा है तो उसे एक आभार देने का यह मंच आपके ही लिए है। टिप्पणी/समीक्षा/नोट/चिट्ठी.. जब भाषा की सीमा नहीं है तो किताब पर अपने विचार/भाव बयां करने के फ़ॉर्म की भी नहीं है। edit.aabohawa@gmail.com पर लिख भेजिए हमें अपने दिल के क़रीब रही किताब पर अपने महत्वपूर्ण विचार/भाव – संपादक)

संजीव परसाई, sanjeev persai

संजीव परसाई

घोषित रूप में क़रीब 25 सालों से लेखन, पठन-पाठन की गतिविधियों में संलग्न। व्यंग्यात्मक शैली में बात कहने में महारत। विभिन्न विषयों पर आलेख, शोध प्रकाशित। चर्चित पुस्तक “हम बड़ी ई वाले” के बाद हाल ही प्रकाशित किताब "भोपाल टॉकीज़" चर्चा में। पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर और पत्रकारिता में शुरूआती ज़ोर-आज़माइश के बाद व्यवहार परिवर्तन संचार की ओर मुड़े। देश के अख़बारों, पोर्टल, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और सोशल मीडिया पर सामाजिक लेखन से संबद्ध।

1 comment on “हर दौर का आईना – राग दरबारी

  1. बहुत पसंदीदा किताब की प्रासंगिक समीक्षा! धन्यवाद!

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