विद्यालय, आनंदघर, school, girls
पत्र लेखन प्रमोद दीक्षित मलय की कलम से....

विद्यालय को 'आनंदघर' बनाने में समुदाय की भूमिका

            आदरणीय अध्यक्ष एवं सदस्यगण, विद्यालय प्रबंध समिति
विश्वास है आप सभी स्वस्थ, सानंद और विद्यालय की बेहतरी के लिए परस्पर चिंतन-मनन करते हुए कार्ययोजना बना रहे होंगे। आप अवगत ही हैं इसी जुलाई में विद्यालय से मेरा ट्रांसफर अन्य विद्यालय में हो गया है, इसी कारण आप सभी से प्रत्यक्ष भेंट-मुलाक़ात अब सम्भव नहीं हो पा रही। किंतु, आपसे किया हुआ वादा मुझे स्मरण है और मैं गुजराती लेखक शिक्षाविद् गिरिजाशंकर भगवान जी बधेका उपाख्य गिजुभाई की पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ की दस प्रतियाँ भेज रहा हूँ। कृपया प्राप्ति से अवगत कराएँगे।

हमारे विद्यालय ऐसी रचनात्मक जगह बनें, जहाँ बच्चे निर्भय होकर अपने ज्ञान निर्माण की साधना कर सकें, जहाँ वे रोक-टोक के बिना अपनी कल्पना को साकार कर सकें; तो विद्यालय के ऐसे सकारात्मक बदलाव में ‘दिवास्वप्न’ आपका मार्गदर्शन करते हुए सहायक सिद्ध होगी। विद्यालय समुदाय का शैक्षिक ही नहीं अपितु सामाजिक, साहित्यिक एवं साँस्कृतिक केन्द्र भी होता है। समुदाय की सक्रिय भागीदारी से विद्यालय ‘आनंदघर’ बनते हुए परस्पर सीखने-सिखाने की जगह के रूप में विकसित होता है। विद्यालय प्रबंध समितियों के गठन का उद्देश्य भी यही है कि समुदाय विद्यालय विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को समझ सम्यक् निर्वाह करें। किंतु जागरूकता के अभाव और अभिभावकों के पर्याप्त सहयोग सम्बल के बिना विद्यालय अभी अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पा रहे, परंतु आप जैसे जागरूक अभिभावक उम्मीद जगाते हैं कि विद्यालय विकास के पथ पर खड़ी बाधाओं एवं चुनौतियों की नुकीली चट्टानें एक दिन टूट-बिखर कर शिक्षा के पथ पर ही घुल-मिल उसे दृढता देंगी, जिस राह से गुजरकर अनगिनत हँसते-खिलखिलाते बच्चे अपनी हथेलियों से खुशियों का गुलाल उड़ाते आगे बढ़ते रहेंगे। ये उत्साहित रचनाधर्मी आनंदित बच्चे परिवार एवं गाँव ही नहीं आत्मनिर्भर देश का भी भविष्य बनेंगे। विद्यालय की कक्षाओं एवं परिवेश में बच्चों की मुस्कानें नर्तन करें, प्रांगण में उनका कोमल कलरव गूँजे, यही गिजुभाई चाहते थे और हम सभी की भी यही इच्छा-आकांक्षा है।

अध्यक्ष जी, मैं जानता हूँ कि विद्यालय विकास हेतु आप समिति के सदस्यों एवं अन्य अभिभावकों के साथ पूर्ण मनोयोग से काम कर रहे होंगे। यह पत्र लिखते समय कुछ साझा स्मृतियाँ मानस पटल पर उभर आयी हैं जो विद्यालय को ‘आनंदघर’ बनाने के लिए साथ-साथ काम करते हुए उपजी थीं। आपको स्मरण होगा, विद्यालय में कार्यभार ग्रहण किये हुए तब मुझे एक वर्ष ही हुआ था।‌ विद्यालय के छोटे से मैदान में कहीं कोई पेड़ न था और तब मैंने बहुत सारे पौधे रोपे थे। किंतु वर्ष 2020 के शीतकालीन अवकाश के बाद जब विद्यालय खुला था, तो प्रांगण में वे पौधे अपनी जड़ों से कटे-उखड़े निष्प्राण मुरझाये पड़े हुए थे। यह दृश्य मेरे लिए कष्ट और निराशा भरा था, क्योंकि पौधे नहीं उखड़े थे बल्कि विद्यालय को ‘आनंदघर’ बनाने का मेरा सपना उखड़ा था। आप ही वह पहले व्यक्ति थे जो मेरे पास आये और ढाढस बँधाते हुए आगे से देखरेख करने की ज़िम्मेदारी ली थी। हालाँकि तब आप हमारे अभिभावक भी नहीं थे। आपकी सांत्वना से मुझमें उत्साह-उर्जा का संचार हुआ था और मिला था मृतप्राय स्वप्न को पुनर्जीवन। आज उसी प्रांगण में तीन दर्जन से अधिक छोटे-बड़े पेड़-पौधों की शीतल छाँव में बच्चे आनंदमय शिक्षा की खुशियाँ बिखेर रहे हैं। वे पेड़ों की डालों पर झूलते हैं। अप्रैल-मई की तेज़ धूप और गर्म हवा से बच्चों को प्रांगण में लहलहाते शहतूत, शीशम, आँवला, अमरूद, सीताफल, कदम्ब, पाकड़ और नीम के किशोरवय वृक्ष अपनी शीतल छाँव के आँचल में ढॅंक लेते हैं। अरे हाँ, नीम का पौधा तो मैंने धर्मपत्नी श्रीमती वंदना दीक्षित के साथ रोपा था। ये वृक्ष कोयल, काग, तोता, तीतर, गौरैया, गिलहरी, मयूर और तमाम अनचीन्हे पक्षियों-प्राणियों का बसेरा बन ख़ुशी से तालियाँ बजा रहे हैं। क्यारियों में गेंदा, गुलाब, चाँदनी, गुलदाऊदी की ख़ुशबू तैर रही है। बैंगन, मूली, टमाटर, धनिया, पालक अपना स्वाद परोस रहे हैं।

विद्यालय, आनंदघर, school, girls

पर यह इतना आसान कहाँ था? हम दोनों ने मिलकर जागरूक संवेदनशील अभिभावकों एवं अन्य ग्रामवासियों की एक सूची बना मिलना-जुलना प्रारंभ किया और विद्यालय में उनके साथ लगातार बैठकें करते रहे। विद्यालय सरकार की नहीं समाज की सम्पत्ति है, धरोहर है। विद्यालय समाज जागरण का पावन स्थल है। विद्यालय से ही ग्राम सुधार, स्वच्छता, स्वास्थ्य और स्वावलंबन की राह निकलती है। विद्यालय ही परिवार एवं समाज की समृद्धि का आधार है। विद्यालय के प्रति आत्मीयता और समर्पण का भाव आवश्यक है। विद्यालय पीढ़ियों का निर्माण कर लोकजीवन को गति एवं ऊर्जा प्रदान करने वाले पारम्परिक गीत-संगीत, साहित्य, नृत्य, खान-पान, भाषा-बोली, संस्कृति एवं उत्सवों को सहेजता है। अभिभावकों के साथ बैठकों में संवाद से प्रेम, मधुरता और सौहार्द के भाव अंकुरित हुए और नीरस-निष्प्राण विद्यालय साँसें लेने लगा। आगे जन सहयोग से प्रतियोगी परीक्षाओं से सम्बंधित पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें उपलब्ध करा विद्यालय में सार्वजनिक पुस्तकालय भी बनाया था। विद्यालय के सामने तालाब के किनारे विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे स्थित लोकदेवी ‘भुँइया रानी’ की मढ़िया में नवरात्र में वर्ष में दो बार होने वाले ‘रामचरित मानस’ के अखंड पाठ को योजनापूर्वक सुव्यवस्थित किया और उसे लोकचेतना एवं जागरण का उत्सव बना दिया। सामग्री रखने हेतु विद्यालय का एक कक्ष भी पहली बार दिया गया और आगे भी यह क्रम बना रहा। इससे भी लोगों की मानसिकता विद्यालय के प्रति बदली थी और वे सहयोग करने लगे थे।

पिछले कुछ दशक से समुदाय और विद्यालय के बीच जो एक खाई बन गयी थी, उसे हम पारस्परिक प्रेम से पाट रहे थे। यदि किसी भी विद्यालय को ‘आनंदघर’ बनाना है तो यह खाई पाटना ही होगी। और यह तभी सम्भव है जब विद्यालय और समुदाय एक धरातल पर बैठकर संवाद कर एक-दूसरे के सुख-दुख में साझीदार बनें।

वह शाम भी आपको याद होगी जब आप मेरे आवास पर आये थे और दो घंटे से अधिक समय तक शिक्षा के मुद्दों पर बातचीत हुई थी। आपने पूछा था कि विद्यालय में आनंदमय शैक्षिक वातावरण बनाने का विचार मुझे कैसे आया। यह मुझे अच्छा लगा था कि आपने ऐसे विषय में रुचि ली, जिज्ञासा व्यक्त की जिसे मैं धरातल पर उतारना चाह रहा हूँ। तब मैंने आपको ‘दिवास्वप्न’ के बारे में बताया था। इसी पुस्तक ने मुझे जड़, संवेदनहीन, नीरस विद्यालय को चेतन, संवेदनशील, सरस आनंदघर बनाने को प्रेरित किया और नवल राह दिखायी और विद्यालय में जितना सकारात्मक बदलाव कर सके, उसके पीछे ‘दिवास्वप्न’ की ही प्रेरणा थी। तब मैंने आपको बताया था कि जुलाई 2012 में मैंने पहली बार ‘दिवास्वप्न’ पढ़ी थी और प्रेरित होकर विद्यालयों को आनंदघर बनाने के लिए स्वप्रेरित रचनाधर्मी शिक्षकों के समूह ‘शैक्षिक संवाद मंच’ की स्थापना की थी।

आपको स्मरण होगा, विद्यालय की प्रबंध समिति की एक मासिक बैठक में एक बार आपने सभी सदस्यों के साथ ‘दिवास्वप्न’ पुस्तक पर बातचीत की योजना बनायी थी और एक घंटे तक हम लोग पुस्तक पर बातचीत करते रहे थे। समिति के सभी सदस्य ‘दिवास्वप्न’ की प्रति चाह रहे थे, तब मैंने दस प्रतियाँ उपलब्ध कराने का वादा किया था। आज आप लोगों को ‘दिवास्वप्न’ की प्रतियाँ उपलब्ध करा कर मुझे प्रसन्नता हो रही है। मुझे विश्वास है, यह पुस्तक विद्यालय में आनंदमय शैक्षिक वातावरण बनाने में आपकी मदद करेगी। अन्य अभिभावकों तक भी ‘दिवास्वप्न’ का संदेश पहुँचे, यह कामना करता हूँ। जवाबी पत्र में अपना अभिमत दीजिएगा। फिर मिलेंगे।
आपका साथी ही, मलय

प्रमोद दीक्षित मलय

प्रमोद दीक्षित मलय

प्रमोद दीक्षित मलय की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जबकि वह क़रीब एक दर्जन पुस्तकों का संपादन कर चुके हैं। इनमें प्रमुख रूप से अनुभूति के स्वर, पहला दिन, महकते गीत, हाशिए पर धूप, कोरोना काल में कविता, विद्यालय में एक दिन, यात्री हुए हम आदि शामिल हैं। कविता, गीत, कहानी, लेख, संस्मरण, समीक्षा और यात्रावृत्त लिखते रहे मलय ने रचनाधर्मी शिक्षकों के स्वैच्छिक मैत्री समूह 'शैक्षिक संवाद मंच' स्थापना भी 2012 में की।

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