आसेब, ख़ाली हाथ और ज़ुबैर रिज़वी

आसेब, ख़ाली हाथ और ज़ुबैर रिज़वी

‘आसेब’ शब्द किसी रहस्य, एक सवाल की तरह मुझे मिला… जिसके हल हो जाने से मुझे ख़ुशी मिलने वाली थी। एक ऐसी गुत्थी मेरे हाथों में पड़ गयी थी जिसके धागे का वो सिरा अंगूठे और उंगली के दरमियान आ गया था, जिसे खींचने पर गुत्थी की कसावट में कमी आने वाली थी। कोई शब्द हो या सूक्ति, जब उसके अर्थ खुलते हैं तो गला भावुकता से भरने लगता और पेट के ऊपरी हिस्से में गुदगुदी-सी होती है… जानने, सीखने, इल्म हासिल करने के बाद बालक मन में उठते आनंद की हिलोर को बताना असंभव है।

         नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर एक धारावाहिक प्रसारित हुआ था- ‘ख़ाली हाथ’, जिसमें नायक के सर पे अतिमहत्वाकांक्षा, रिश्तों पर क़ाबिज़ होने की सनक, किसी भी क़ीमत पर कामयाब होने की धुन सवार हो जाती है। मदद और अहसान-फ़रामोशी, आदर और निरादर के बीच फंसा हुआ नायक अंत में खलनायक सिद्ध होता है। सह नायक हर्ष छाया इसी धारावाहिक से अभिनय की दुनिया में दाख़िल हुए थे… एक नाबीना गायक जो नायिका को संगीत सिखाता है, जो नायिका की साड़ी का रंग उसके उखड़े मिज़ाज, उसकी उदास आवाज़ से पहचान लेता है। उन्हीं पर फ़िल्माई हुई ग़ज़ल के एक शेर में आसेब शब्द सुनायी दिया था-

कल न हो ये कि मकीनों को तरस जाये ये दिल

दिल के आसेब का हर एक से चर्चा न करो

         आसेब जिसका सीधा-सा अर्थ है- प्रेत, विपदा या रोग। नायक के दिल में भी एक बुरा आसेब था जिसके कारण उसके दिल में बसने वाला हर चेहरा उसे छोड़ देता है। बी.ए. के इम्तिहान में फ़ेल होकर अपनी क़िस्मत को दोष देता हुआ, शहर में एक मामूली नौकरी के लिए भटकता हुआ, बड़े भाई पर अपने बोझ को महसूस करता हुआ, नायिका के पिता को उनके पसंदीदा नॉवल भेंट करता हुआ नायक हर एक को पसंद है, हमदर्दी के लायक़ है लेकिन जब उसके आदर्श बदलते हैं और वो कहता है- “समाज में जिसके पास पैसा नहीं है वो छोटा है”, तो नायिका उससे नैतिक साहस पर ज़ोर देने का आह्वान करती है। नायक से बार-बार कहती है- “कहीं कुछ कमी है” मगर नायक अपने अंदर झांकने की बजाय दुनिया को देखता है। वो बड़े लोगों की निर्भरता चाहता है, वो धोका, छल, झूठ को दुनिया का सिखाया हुआ हुनर समझने लगता है, वो सिफ़ारिश को कामयाबी का रास्ता मान लेता है, वो दुनिया को उसकी बदसलूक़ी का सबक़ उसी की भाषा में सिखाना चाहता है… वो बेईमानी को अपनाकर सत्ता के निकट पहुँचता है और धीरे-धीरे अपनी निश्छलता, सहजता और नायकत्व को गंवा देता है। आख़िर में अपने महल जैसे मकान में अकेला है, नायिका उसके दौलत कमाने के तरीक़े से ख़फ़ा है, उसने अपने चारों तरफ़ दुश्मनों को इकट्ठा कर लिया है। फिर चंदन दास की आवाज़ में वही ग़ज़ल, जिसके एक शब्द आसेब ने मुझे अब तक इससे बांधे रखा है-

अपने घर के दरो-दीवार को ऊंचा न करो

इतना गहरा मेरी आवाज़ से पर्दा न करो

जो न इक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें

ऐसी मग़रूर तमन्नाओं का पीछा न करो

        इस ग़ज़ल के शायर को ढूंढा तो वो 15 अप्रैल 1935 को जन्मे अमरोहा के ज़ुबैर रिज़वी थे… हर्ष छाया की मुस्कुराहट ने उनकी इस ग़ज़ल की छाप को तब और गहरा कर दिया था-

हो अगर साथ किसी शोख़ की ख़ुशबू-ए-बदन

राह चलते हुए महपारों को देखा न करो

        नायक इस शेर के मर्म को समझ नहीं पाया, उसके पास जो था, उसने उसकी क़द्र नहीं की और ख़्वाबों के पीछे भागते-भागते अपनों से दूर होता गया, सब कुछ पाकर भी उसके हाथ ख़ाली रह गये।

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

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