'आब-ओ-हवा' का एक वर्ष सफल होने पर पूरी टीम को बधाइयां, पत्रिका निकालना वर्तमान में आसान भी है, कठिन भी। ख़ासकर साहित्यिक पत्रिका तो बहुत ही घाटे का सौदा है। उससे भी अधिक जिगर का काम है पत्रिका को सौहार्द्रपूर्ण या हिन्दी-उर्दू की संयुक्त पत्रिका के तौर पर निकालना। भोपाल से यह काम कर रहे भवेश दिलशाद जी को शुभकामनाएं, पिताजी के इस शेर के साथ-
बला से शजर हों न हों रस्ते में
नहीं बाज़ आते सफ़र करने वाले'आब-ओ-हवा' अपनी आब और ताब के साथ बेहतर से बेहतरीन की राह पर अग्रसर है। संपादक भवेश दिलशाद की मेहनत, लगन और समर्पण की झलक हर अंक में दिखलायी देती है। एक ऐसी लघु साहित्यिक पत्रिका जो अपने नाम के अनुरूप साहित्य, कला, परिवेश की संतुष्टिदायक सामग्री पाठकों तक पहुंचाती है।
संपादकीय 'हम बोलेंगे' हक़ और इंसाफ़ की बात करते हुए नागरिक चेतना जागृत करने हेतु प्रतिबद्ध दिखता है। मुआयना, सरोकार, ग़ज़ल रंग, गुनगुनाहट, फ़न की बात, किताब-कौतुक, सदरंग में संगीत, चित्रकला से जुड़े विषयों पर लेख, विमर्श, चर्चा ध्यान खींचते हैं। सबसे बड़ी बात इसकी तरतीब, इसका व्यवस्थित आकल्पन है। यह निशानदेही भी कि साहित्य के सरोकार व्यापक हैं जिसमें संसार के हर सुख-दुख, उतार-चढ़ाव और धूप-छांव के विविध रंग समाहित हैं।आब-ओ-हवा के लगभग सभी अंक निरंतर और समयबद्ध प्रकाशित हुए और समय पर पाठकों तक पहुंचे भी...इसके लिए नि:सन्देह आप प्रशंसा के पात्र हैं भवेश भाई। प्रिंट मीडिया से प्रकाशित समाचार पत्र हो या सामयिक पत्रिका या मनोरंजन की कोई मैगज़ीन ही हो, मालिक और प्रकाशक तथा उसमें नियमित स्तम्भ देने वाले रचनाकारों/लेखकों का अर्थ हित तो रहता ही है। मुझे नहीं लगता आपकी टीम में कोई ऐसा मेम्बर है, जो आपसे इस अपेक्षा से जुड़ा है। सभी के विचार, लेखन और चिन्तन हाशिये पर खड़े या अंतिम पंक्ति के भी अंतिम व्यक्ति के दर्द और उसकी आवश्यकता से जुड़े हुए हैं।
आपने आधुनिकता और प्रगतिशीलता के साथ सोशल मीडिया को माध्यम बनाकर अपनी बात आरम्भ की है। मुझे लगता है अब तक तो आब-ओ-हवा ने अपनी निष्पक्षता से एक बहुत बड़ा लोकतांत्रिक और प्रगतिशील पाठक वर्ग तैयार कर लिया होगा। सभी अंकों में सभी स्तम्भ सार्थक, पठनीय, अनूठे और संग्रह योग्य हैं। आपके सभी साथी कड़ी मेहनत से नि:स्वार्थ लेखन कर रहें हैं। आपकी संपादकीय टिप्पणियां तो अत्यन्त विचारणीय और उद्वेलित करने वाली होती हैं.. वाह-वाह! शुभकामनाएं।
आब-ओ-हवा के सभी अंक हमेशा अत्यंत समृद्ध, पठनीय और संग्रहणीय सामग्री से भरे-पूरे दिखे। नहीं पढ़ने, कम पढ़ने और कम पढ़कर भी लम्बी हाँकने के इस दौर में आब-ओ-हवा ताज़ा हवा का अहसास है। इस समय जब प्रतिरोध के स्वर गूँगे हो चले हैं, सच को सच कहने के ख़तरे बढ़े हुए हैं तब तीखे सम्पादकीय और संतुलित आलेखों के साथ आब-ओ-हवा सन्नाटों के बीच उभरती, नन्ही ही सही, प्रतिरोध की बहुत महत्वपूर्ण आवाज़ है। हस्तक्षेप सराहनीय है। विभिन्न ललित कलाओं से जुड़ी उत्कृष्ट साहित्यिक सामग्री सम्पादकीय टीम के परिश्रम, कौशल और समाज के प्रति पक्षधरता को सहज ही प्रकट करते हैं। इस के विभिन्न स्तम्भों का तो कोई जवाब ही नहीं।
सारी सामग्री बहुत ही मनोयोग से चयनित और प्रकाशित होती है और यह बहुत स्वाभाविक भी है क्योंकि आब-ओ-हवा का सम्पादन स्वयं एक मंझे हुए और स्थापित साहित्यकार/शायर आदरणीय भवेश दिलशाद जी के हाथ में है। छोटे से कलेवर में इतनी साहित्यिक समृद्धि आनंदित भी करती है और चमत्कृत भी। प्रसन्नता का विषय है कि आब-ओ-हवा को एक वर्ष पूर्ण हो रहा है। इतनी अल्पावधि में इतनी बड़ी साहित्यिक पहचान सम्पादकीय टीम की योग्यता और निष्ठा, प्रकाशन की निरंतरता और निरंतर श्रेष्ठ पठनीय सामग्री के प्रकाशन से ही संभव है।
अदब की ज़मीन को शादाब करना, अपनी रवायत को एक आश्वासन देना आने वाली नस्लों के हाथों में उम्मीद की एक किरण देने के समान है। आब-ओ-हवा ने अपने अंकों के ज़रिये अदब के पिछले वक्तों, मौजूदा समय और आने वाले वक़्त के बीच एक पुल बनाने का काम किया है। ताज़ातरीन मसअलों को अदब के ज़ाविये से उठाकर उस पर बहस-मुबाहिसा किया, तरक़्क़क़ीपसंद तहरीक़ की ज़मीन को पुख़्ता किया। बीते हुए कल के उन अदीबों को याद किया जिन्होंने अपनी क़लम से ख़ूबसूरत इतिहास लिखा। आने वाले कल की उम्मीदें लिये महत्वपूर्ण रचनाकारों को स्थान देकर अपने भविष्य को सुदृढ़ करने की कोशिश भी की है।
दरअसल यह कल्चरल मैगज़ीन है, जिसने अपने कल्चर को बचाने के लिए तो काविशें की ही, अपने बीच उठ रहे उन तमाम सवालों से दो-चार होने की कोशिश भी की है जिनसे भिड़ना आज की ज़रूरत है। युवा शाइर भाई भवेश दिलशाद ने बहुत मन से इस एक वर्ष के सफ़र में आब-ओ-हवा को आगे ले जाने की कोशिश की है। उनका यह सफ़र ऐसे ही जारी रहे और अगले बरसों के अंकों में और नयापन हम सभी महसूस करें, यही तमन्ना है। भाई भवेश दिलशाद को दिली मुबारकबाद।Share this:
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