नमिता सिंह

कोख

अंबालिका उद्विग्न थी। दासी ने उसके कान में कुछ कहा और फिर मुंह ताकने लगी।

– सच कह तुझे भ्रम हुआ होगा क्या, सचमुच तूने अपने कानों से सुना था?

– हां देवी, मैं माता सत्यवती के प्रासाद में थी। उन्होंने मुझे बुला भेजा था। दासी चपला ने स्वामी के मुख के भावों को पढ़ना चाहा। गहरी सोच में डूबी अंबालिका ने जैसे उबरते हुए कहा

– फिर क्या कहा उन्होंने?

– वहां वीर प्रवर गांगेय के साथ वे मंत्रणा में लीन थीं, मैं दरवाजे पर खड़ी थी और माता सत्यवती के आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी। वीर प्रवर बहुत धीमे स्वर में माता से कुछ कह रहे थे, मेरे कदम आगे बढ़े थे कि मैंने सुना गांगेय ने स्पष्ट कहा था कि भ्रातश्री ऋषिश्रेष्ठ व्यास हस्तिनापुर के अतिथि होंगे। उनकी कृपा है कि उन्होंने हमारा आतिथ्य स्वीकार किया है।

– लेकिन चपले! वे तो हस्तिनापुर के अतिथि हैं.. माता सत्यवती और ज्येष्ठ श्री भीष्म उनकी आतिथ्य सेवा में होंगे। बहुत से बहुत हुआ और माता हमें आज्ञा देंगी तो हम अवश्य ऋषिवर के चरणों में प्रणाम करने जाएंगी। अंबालिका ने सहज होने का प्रयास किया।

– नहीं देवी उन्होंने स्पष्ट कहा था कि…!

– बार-बार इस अप्रिय प्रसंग को मत दोहरा चपले!! मुझे और अवसाद में न डाल।

अंबालिका अपने आसन से उठकर खड़ी हो गयी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। अपने कक्ष में चहलकदमी करते हुए वह गवाक्ष से बाहर देखने लगी। सरोवर के शांत जल में कमलिनी अर्ध निमीलित थी और सभी जैसे गर्दन झुकाये कुछ सोच रही थीं। अपनी स्वामिनी के साथ वह भी उनकी चिंता में सम्मिलित थी कोमल धवल श्वेत कमलिनी। इनके ऊपर कोई पत्थर से प्रहार कर दे या उनको भारी भरकम शिलाखंड के नीचे दबा दिया जाये, जीवित बचेंगी क्या? क्या यह अवसर मिलेगा कि इच्छानुसार हम स्पष्ट करें कि हमें क्या प्रिय है और क्या अप्रिय? हमारे पक्ष में तो केवल आज्ञापालन है, यही हमारा धर्म है, यही शास्त्र है, स्वामी की आज्ञा, मातृश्री की आज्ञा, ज्येष्ठश्री की आज्ञा… हमारे जीवन पर हमारा वश नहीं। अंबालिका को आज बहन अंबा का स्मरण हो आया।   उसकी ज्येष्ठ बहन अंबा तीनों बहनों में सबसे सुंदर, आत्मविश्वास और कमनीयता का बेजोड़ मिलन, संपूर्ण आर्यावर्त के राजकुलों की कामना। दूर-दूर तक उसके सौंदर्य और बुद्धिमानी की ख्याति प्रेम और मेधा की अपूर्व स्वामिनी अंबालिका के सम्मुख जैसे पूरा घटनाक्रम जीवित हो उठा हो।

काशीनरेश कितने प्रसन्न थे। पूरा राज्य उत्सव के रंग में मदमस्त था। पराक्रमी एवं प्रतिष्ठित काशी नरेश ने पहले तो केवल ज्येष्ठ पुत्री अंबा के विवाह हेतु स्वयंवर का आयोजन करने का विचार बनाया था। फिर एक दिन उपवन में तीनों राजकन्याओं को देखा। भ्रमवश अंबिका को अंबा समझ बैठे थे। भूल इतनी बड़ी कदापि न थी। सहज स्वाभाविक थी लेकिन इसने यह विचार अवश्य दिया कि तीनों ही कन्याएं विवाह योग्य हैं। अप्रतिम सौंदर्य की धनी अंबा से कहीं कम अंबिका और अंबालिका नहीं थीं। अंबा को तो जैसे मनवांछित मिला हो। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कई दूतों के माध्यम से शाल्वराज अंबा के प्रति प्रेम प्रदर्शन कर चुके थे। अंबा स्वयं शाल्वराज के प्रति आकर्षित थी, आसक्त थी। शाल्वराज का शौर्य और पराक्रम भी आर्यावर्त में चर्चित था। निरंतर युद्ध जीतते और राज्य विस्तार करते शाल्वराज की महारानी बनना अंबा का अभीष्ट था। काशीनरेश ने इस प्रयोजन हेतु स्वयंवर का आयोजन किया था। वीरोचित परिणय अंबा को अभीष्ट था और शाल्वराज को भी।

स्वयंवर मंडप में आर्यावर्त के चुने हुए राजपुरुष मानो तारामंडल के रूप में सुशोभित थे  इनके बीच, एक नहीं, दो नहीं, तीन चंद्रमुखी रूप गति से कदम बढ़ा रही थीं, अंबा के पीछे अंबिका और अंबालिका अर्ध निमीलित नयनों से हिरनी की तरह इधर-उधर देखतीं जिस राजपुरुष के सम्मुख पहुंँचती, उसका यशोगान चारण करने लगते। तभी जैसे स्वयंवर मंडप में भूचाल आ गया हो। एक बड़ा समूह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित सैनिकों का और उनके आगे एक राजपुरुष मानो युद्ध के मैदान में चला आ रहा हो। शुभ्र धवल दाढ़ी,  संकल्प से भरे विशाल नेत्र। आजानुबाहु। माथे पर शिरस्त्राण और शरीर पर कवच धारण किये कंधे पर धनुष, पीठ तरकश से सुसज्जित कमर से लटकती तलवार तीनों राज कन्याएं भयभीत हिरनी सी जहां थीं, वहीं जैसे जम गयीं। कदम थम गये। वरमाला हाथों से गिरने लगी। यह दिव्य पुरुष हस्तिनापुर के राजपुरुष कुल संरक्षक वीरवार भीष्म थे। सभा मंडप के बीच उन्होंने क्या कहा, वे शब्द तो जैसे किसी के कानों में पड़े ही ना थे। चेतना जागी तो सिर्फ इस आदेश से कि उन तीनों को बाहर खड़े रथ में बैठना है। यह गंगा पुत्र परमवीर आर्य भीष्म की आज्ञा थी। हस्तिनापुर जैसे बलशाली साम्राज्य के आगे किसी की क्या हस्ती थी, क्या मजाल थी। कौन प्रतिरोध करता, काशीनरेश सिंहासन से उठने का उपक्रम करते।  इससे पहले ही भीष्म उनसे करबद्ध निवेदन कर चुके थे। क्षत्रियोचित वीर परंपरा का निर्वाह ही तो हो रहा था। स्त्रियाँ हाड़मांस की पुतली इच्छा-अनिच्छा से परे, जो बलशाली हो, उठाकर ले जाये। यह सर्वथा वीरोचित कृत्य ही तो था! राजकुलों की परंपरा के अनुरूप ही था। काशी नरेश मौन होकर फिर अपने सिंहासन पर बैठ गये। अंबा के पैर ठिठके थे। उसने नजर उठाकर सामने विराजमान शाल्वराज को देखा था, वह रुक गयी थी। संभवत: कोई हाथ पड़कर रोक लेगा, लेकिन सब कैसे मंत्रबद्ध थे, आतंक से सम्मोहित थे। भीष्म ने पीछे रुक गयी अंबा को देखा था और पुनः उसे आज्ञा दी थी कि वह रथ में विराजमान हो… आंखों में आंसू लिये अंबा रथ की ओर चल दी थी। सब इतनी जल्दी हो गया, लोग जैसे नींद से जागे हों और अब भीष्म के रथ के पीछे अन्य रथ थे। यह स्वयंवर में आमंत्रित नरेशों का सरासर अपमान था। तीरों की बौछारें दोनों ओर से हो रही थीं। शाल्वराज ने हथियार संभाले, अपने सैनिक साथ लिये और अंत तक पीछा करता रहा। अंबा इष्ट देव का स्मरण करती रही और शाल्वराज अपने मान सम्मान के लिए जूझता रहा।

संपूर्ण आर्यावर्त जिसके बाहुबल और शौर्य प्रताप का साक्षी था… उसके सामने कोई नहीं टिक सका। शाल्वराज भी अंततः घायल होकर वहीं खड़ा रह गया और कुंवर भीष्म ने तीनों राजकन्याओं को माता सत्यवती के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।

– माते! आप विचित्रवीर्य के विवाह के लिए चिंतित थीं। मैं एक नहीं तीन राजकन्याओं का हरण कर लाया।

– पुत्र ऐसा?

– हाँ माते मैं ठहरा ब्रह्मचारी। मैं कैसे सुनिश्चित करता कौन सर्वाधिक योग्य है।

– तीनों एक से बढ़कर एक हैं पुत्र, राजमाता निहाल थीं।

अंबा ने अस्वीकार कर दिया विचित्रवीर्य को। वह मन ही मन शाल्वराज को पति मान चुकी थी। भीष्म ने पूरे सम्मान के साथ और लाव लश्कर के साथ अंबा को विदा किया। वह स्वतंत्र थी। शाल्वराज के पास जाने को। वह गयी… शाल्वराज के दरबार में दस्तक दी।

लेकिन यह क्या..! शाल्वराज ने उसकी ओर देखा तक नहीं। उसका हरण हुआ था। अब कौन अंबा, कौन शाल्वराज। वह अपना अपमान न भूले थे। जब भीष्म ने घनघोर बाणवर्षा कर उन्हें विवश कर दिया था कि वे लौट जाएँ। हस्तिनापुर के हाथों अपमानित होकर भीख में मिला प्रसाद ग्रहण नहीं करेंगे… अंबा को स्वीकार नहीं करेंगे।

याचक बनी नारी एक बार फिर दरबार से तिरस्कृत होकर लौटी थी। अपमानित हुई अंबा पुनः हस्तिनापुर में थी‌। भीष्म ने उसका हरण किया था वही उसका वरण करे। यही धर्म है, यही न्याय है। भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से बंधे हैं। पिता को दिया वचन। माता को दिया वचन। एक नहीं सौ अंबा आ जायें, वह अपना वचन भंग नहीं करेंगे।

अब कहाँ जाये अंबा। पिता, प्रेमी, हरणकर्ता कोई स्वीकार नहीं करेगा। वह युद्ध में जीती हुई ऐसी संपत्ति है, जिसका कोई स्वामी नहीं… उसका दोष? शायद उसका स्वाभिमान था। अपनी इच्छानुरूप अपने जीवन अस्तित्व का बोध था। युग-युग से ऐसी स्थिति में अबला को जगह मिली है, अग्नि की गोद में। यही नियति अंबा की थी।

सबके सामने चिता प्रज्ज्वलित कर अंबा लपटों के बीच खो गयी। अंबा ने साहस किया था, अपनी भावनाओं को शब्द दिये थे। लेकिन परिणाम अपमान, घोर अपमान। उसके संपूर्ण नारीत्व का अपमान। उसकी इच्छाओं का तिरस्कार, उसके व्यक्तित्व की ऐसी अवहेलना, गेंद की तरह लुढ़कती रही वह अपने आत्मसम्मान के लिए और क्या परिणाम हुआ! उसके संघर्ष का, उसके प्रतिरोध का… अंबालिका का हृदय फिर अवसाद में डूबने लगा। अंबा की चिता की लपटें जैसे उसके समक्ष फिर प्रज्जवलित हो उठी हों। लपटों की उष्मा उसके भीतर प्रविष्ट हो उसे झुलसाने लगी थी। मन पर किसका वश है।

कल्पना में ही सही वह सारे बंधन तिरोहित कर उन्मुक्त पंख फैलाये उड़ने लगता है लेकिन धरती पर पैर टिकाते ही प्रश्न मुँह बाये खड़े हो जाते हैं कि हमारा आकाश कहां है? अंबालिका फिर घूम फिरकर अपनी शैया पर आ बैठी। उसकी दोनों दासियाँ उसके आदेश की प्रतीक्षा में थीं। उसने उन्हें बाहर जाने का संकेत किया और चपला को आदेश दिया कि वह अंबिका के प्रासाद में संदेश लेकर जाये, वह मिलने जाएगी अपनी सहोदर से। उसके पास भी तो कोई सूचना होगी। अंबिका बड़ी है, अधिक प्रबुद्ध है, उसके पास निश्चित कोई संदेश होगा, समाधान भी होगा। अंबिका अपने कक्ष में वीणा के सुरों में खोयी थी। चपला के साथ छोटी बहन को देखा तो उसकी उंगलियां थम गयीं। स्वामिनी का संकेत पाकर चपला भी कक्ष से बाहर चली गयी। वे दोनों अब न पटरानी थीं और न महारानी। न ही अब वे सौतें थीं। अब वहाँ सिर्फ दो बहनें थीं.. सिर्फ नारियांँ, निताँत अकेली। निजता के स्तर पर एक दूसरे की हमजोली, सखी..। संपूर्ण नारी जाति के प्रतिनिधि के रूप में सिमट आयी थीं। एक दूसरे के समीप। अंबिका सचमुच अधिक गंभीर थी। वह राजमहिषि थी। सत्ता की आवश्यकताओं से पूर्ण रूप से परिचित। राज्य को उत्तराधिकारी चाहिए। हम दो महारानियाँ और हमारे स्वामी संतान से वंचित रह जाएँ? राजधर्म? कैसे मिलेगा इस अजेय प्रतिष्ठित हस्तिनापुर राज्य की वंश बेली का प्रश्न था।

– क्यों अंबिके! संतानोत्पादन में क्या अकेली नारी की भूमिका होती है, उसका शेष अर्धांग पुरुष, उसकी उपस्थिति बिना कैसी संतान?

अंबिका हँसने लगी-

– क्यों महाराज विचित्रवीर्य हमारे स्वामी, वह कहांँ हैं?

– हमारे पुरुष!… अंबालिका ने बीच में ही बात काटी और वह भी हँसने लगी।

अचानक अंबिका गंभीर हो उठी और अंबालिका की पीठ को अपनी बाहों से घेरते हुए उसे अपने समीप खींच लिया। छोटी बहन के प्रति उसके हृदय में लहराता स्नेह उन दोनों को आप्लावित करने लगा।

– बहन, महाराज संतान उत्पादन के लिए सक्षम नहीं रहे। इसे सब जानते थे। वह अति विलासी थे लेकिन दोष औरतों के सिर पर ही आता है। पुरुष का पुरुषत्व चुनौती नहीं सहन करता। उसका अहं पर्वत समान होता है। उसे ज्ञात है उसके अहं की आधारभूमि खोखली है इसलिए वह और अधिक तीव्रता से स्वयं पर्वत की चोटी पर जा अवस्थित होता है और निरंतर धरती पर प्रहार करता है। पैरों तले रौंदता, मानमर्दन करता है। मानो इससे उसका पुरुषत्व स्थापित होगा। निर्विवाद स्वामित्व निर्धारित होगा।

– तो? अंबालिका के नेत्रों में प्रश्न थे। उसकी निश्छल वय संभवत: इन जटिलताओं और उनके समाधानों के व्यावहारिक पक्ष से अनभिज्ञ थी।

– तो यह कि अंबालिके, जो भी वीर्यवान पुरुष हमें उपलब्ध कराया जाये, उससे गर्भवती होकर हम नारी धर्म का पालन करें। क्या चाहा क्या अनचाहा, कोई भी हो।

– हाँ, निश्चित रूप से अनचाहा ही होगा, जिसे देखा ना हो, जिससे परिचय ना हो, जिसके प्रति कोई भाव ना हो, संवेदना ना हो… वह निश्चय ही अच्छा पात्र होगा, जो उपलब्ध कराया जाएगा। उसी से गर्भधारण कर हमें अपना नारीत्व सिद्ध करना होगा। यही समाज व्यवस्था है और व्यवस्था का पालन करना ही हमारा धर्म है।

– लेकिन अंबिके, महाराज? महाराज के प्रति हमारा धर्म?

– पगली हमारे महाराज चिरंजीवी होते, अक्षय प्रतापवान होते, हमारी तो यही कामना थी। लेकिन विधि के विधान पर हमारा कोई वश नहीं है। महाराज यदि आज यहां होते तो माता सत्यवती की आज्ञा का पालन करते हुए वे भी यही व्यवस्था देते।

– तो क्या महाराज के न रहने पर भी मदनोत्सव का आयोजन परंपरागत विधि विधान से ही होगा?

अंबिका छोटी बहन अंबालिका को सहज बनाने का प्रयास कर रही थी। उसकी बात सुनकर हँस पड़ी- केवल हमारे ग्रहस्थ पुरुष ही नहीं, ये ऋषि मुनि भी सदैव उत्सवधर्मी होते हैं। सांसारिक उत्सव के साथ ही आत्मा और परमात्मा की उत्सव समायोजित करने की अद्भुत क्षमता और शक्ति रखते हैं। आयु और अनुभव की परिपक्वता उस ऋषि को सहज ही सुंदर, कोमल, कमनीय स्त्री के संसर्ग में मदनोत्सवधर्मी बना देगी।

– प्रश्न तो यह है कि अंबिके हमारा नारीत्व, हमारी स्त्रयोचित कोमल भावनाएं, हमारा अनुराग उस पितातुल्य वनवासी साधक के रूप में उपस्थित पुरुष के सामीप्य में संवेदित होगा या नहीं? केवल हमारा शरीर उनके आतिथ्य में परोस देना ही व्यवस्था का धर्म होगा?

– छोड़ भी इन उलझन भरी बातों को अंबालिके! देख मैंने वीणा के स्वर में एक नयी रचना का अभ्यास किया है। मेरी प्रस्तुति तुम सुनोगी तो अवश्य मुग्ध हो जाओगी और पूर्ण कक्ष कुछ ही क्षणों में संगीत की लहरों में डूबने लगा।

महाराज विचित्रवीर्य को आखेट में जाना अब रुचिकर प्रतीत ना होता था। माता सत्यवती उन्हें पुरुषोचित शौर्य प्रदर्शन के लिए प्रेरित करती है। आठों पहर सुरा में डूबना और अंत:पुर को ही स्थाई आवास बना लेना यह राजधर्म तो नहीं था। गंगापुत्र भीष्म, जिनका पराक्रम दिग्दिगन्त में व्याप्त था, उसके सम्मुख शौर्यविहीन पुत्र विचित्रवीर्य को देखकर माता के हृदय को आघात पहुंचता। जेष्ठ पुत्र चित्रांगद पहले ही स्वर्गवासी हो चुका था। क्या इन्हीं संतानों के लिए उनके पिता निषादराज ने तेजस्वी देवव्रत से आजीवन ब्रह्मचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा करवायी थी। जरावस्था में महाराज शांतनु से उत्पन्न संतान कैसे बल और तेज से परिपूर्ण होगी, यह पिता निषादराज ने कभी नहीं सोचा था।

माता सत्यवती ने आग्रह नहीं वरन आज्ञा देकर महाराज विचित्रवीर्य को अंत:पुर से बाहर निकाला था और उन्हें आखेट हेतु प्रस्थान करने का आदेश दिया था। महाराज अत्यधिक दुर्बलता का अनुभव कर रहे थे लेकिन आज्ञापालन करने के लिए विवश थे। उनके साथ पूरा लाव लश्कर था। वह जानवरों का पीछा करते हुए यूंँ हाँफ जाते हैं, मानो जीवन तत्व की खोज में भाग रहे हों, जो हाथ में आते-आते रह जाता है। एक दौड़ समाप्त होती तो दूसरी आरंभ हो जाती, यह यात्रा तो जैसे अनंत हो गयी थी।

आखेट नहीं मिलेगा तो पुरुषत्व पराजित होगा। महाराज भाग रहे थे आखेट के पीछे दौड़ रहे थे, हांफ रहे थे, कभी नेत्रों के सम्मुख पशुओं का गर्जन उन्हें भाव लोक से धरती पर खींच लाता। अचानक उन्हें मूर्छा घेरने लगी थी। उनका शरीर शिथिल होने लगा था और वह अवश होने लगे थे।

अब आंखों के सामने कुछ भी नहीं था.. अंधकार… निविड़ अंधकार। महाराज नीचे गिर पड़े थे। वन और मन दोनों की गुह्यतम कंदराओं में निश्चेष्ट पड़े महाराज अब शांत थे। उन्हें अब आखेट के लिए कोई विवश नहीं कर सकता। अट्टहास करते समय के हाथों और स्वयं भाग्य का आखेट बन चुके थे। गहन शांति में डूबे महाराज विचित्रवीर्य अपनी अंतिम सांसों के बीच अपने दोनों सुकुमारी अंबिका और अंबालिका के स्पर्श का अनुभव कर रहे थे और  इन्हीं सुखद क्षणों के बीच रक्तवमन के साथ कब अनंत लोक को प्रस्थान कर गये, किसी को ज्ञात नहीं हुआ।

हस्तिनापुर राज्य पर यह भीषण संकट था। कुल की वंशबेली का प्रश्न था। कुल के जेष्ठ पुत्र भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से तनिक भी विचलित नहीं हुए थे। लेकिन राजमहल में उनकी रानियों को संतान प्राप्ति का लक्ष्य अभीष्ट था। यहाँ भी आखेटक की उपस्थिति अनिवार्य थी। इस व्यवस्था में आखेट और आखेटक का भेद नहीं रहता। माता सत्यवती ने दोनों रानियों तक अभीष्ट सूचना गोपनीयता के साथ पहुंचा दी थी। नियोग की प्रथा से अंबिका और अंबालिका दोनों ही परिचित थीं। ऋषि व्यास राजमहल में माता सत्यवती की आज्ञापालन हेतु पधार चुके थे। अंबिका ने माता सत्यवती को सुझाव दिया था कि ऋषि प्रवर क्यों उनके प्रासाद में आकर उनके शयन कक्ष में आने का कष्ट करें। वास्तव में, अंबिका का हृदय विद्रोह पर उतारू था। छोटी बहन अंबालिका को तो उसने शांत कर दिया था लेकिन स्वयं वह भी बहुत तनाव में थी। हमारी देह पर क्या हमारा तनिक भी अधिकार नहीं? देह धर्म की नीति और व्यवहार भी क्या दूसरे ही निर्धारित करेंगे? हम क्या निर्जीव, भावशून्य पिंड भर हैं? जहांँ चाहा, जिसे चाहा परोस दिया? विचार करने को मस्तिष्क तथा संवेदित होने को  स्पंदित हृदय, इनको पृथक कर क्या जीवित मनुष्य की कल्पना हो सकती है?… अंबिका एकांत में बेहद अशांत हो उठी थी। वह किसी भी मूल्य पर उसे बीहड़ से दिखने वाले  ऋषि महाराज का अपने प्रासाद में अपने शयन कक्ष में प्रवेश नहीं चाहती थी। उसने कहा कि वह स्वयं उनके चरणों में उपस्थित होगी। सर पर आँचल डालकर उनके सम्मुख चरणों में नतमस्तक हो उनसे आशीर्वाद ग्रहण करेंगी, लेकिन किसी अन्य की आज्ञा अनुरागी होकर अपना आँचल समर्पित नहीं करेगी।

ऋषिप्रवर अंत:पुर में एक पृथक प्रासाद में विश्राम कर रहे थे। उन्हें प्रतीक्षा थी महारानी अंबिका की। रूपवती, नवयौवना अंबिका की। तीनों बहनों अंबा, अंबिका और अंबालिका को उनके स्वयंवर के अवसर पर जब भीष्म उठा लाये, उसी समय इन बहनों की कमनीयता तथा सौंदर्य चर्चा के विषय थे। भीष्म का पराक्रम स्वयं में एक महत्वपूर्ण चर्चा का विषय था। माता सत्यवती के पुत्र राज सिंहासनधारी विचित्रवीर्य के लिए एक कन्या का हरण करने के स्थान पर वह रेवड़ के समान नारी समूह ही हाँक कर ले आये थे।

ऋषिश्रेष्ठ व्यास आतुर थे, उनकी भुजाएं लंबी और रोम युक्त थी। शरीर बलिष्ठ था और लंबे समय से वन में तप करते रहने के कारण उनकी देह कठोर और मुखमंडल दर्पयुक्त था। उनकी लहराती श्वेत दाढ़ी-मूँछ और रुक्ष जटाजूट उनके चेहरे को और अधिक भावविहीन बना रहे थे। उनका हृदय तीव्र आवेग से जोर-जोर से स्पंदित हो रहा था और भुजाएं फड़क रही थीं जैसे किसी रणस्थल में सामने खड़ी शत्रुसेना के सम्मुख अपनी शक्ति प्रदर्शन के लिए तत्पर हों। उनकी प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हुईं और देहरी पर पायल की रुनझुन के साथ एक कमनीय नारी भरपूर सौंदर्य के साथ प्रस्तुत थी। उसका उत्तेजक शृंगार किसी भी पुरुष को अपने आकर्षण में आबद्ध करने के लिए पर्याप्त था। ऋषिवर सुसज्जित शैय्या पर बैठे थे, तुरंत खड़े हो गये।

– प्रणाम गुरुवर।

– पुत्रवती भव, अंबिके…आयुष्मति भव।

ऋषिवर ने अंबिका की कांपती देह को उसके कंधे पड़कर स्थिर करना चाहा। चेहरे पर अवगुंठन धारण किये सुंदरी के नेत्र नीचे झुके हुए थे। ऋषि ने कोमल देह को दोनों हाथों से यूं आच्छादित कर लिया कि केवल नीचे की ओर दृष्टिपात करने पर झीने अधोवस्त्र से नीचे उसके दुग्ध धवल पैर ही दिखायी दे रहे थे। जैसे धीरे-धीरे विशालकाय अजगर के मुंह में समाया कोई पशु हो, जिसका शेषांश ही बाहर दिखायी दे रहा था। वह कोमलकांत गौर वर्ण देह उस रोमयुक्त वरिष्ठ पुरुष काया के भीतर समा रही थी। देह के भीतर देह का  शाश्वत संबंध सभी सीमा रेखाओं को तिरोहित कर सिर्फ स्त्री पुरुष पर थिर हो गया था।

धीरे-धीरे ऋषिवर के भीतर तटबंध पर टकरातीं समुद्र की लहरें अब शांत होने लगींं। पुरुषघट रिक्त हो चला था और जीवन का अमृत कलश सराबोर था, ऋषि की कृपादृष्टि से।

दान ग्रहण कर अभिसारिका नारी प्रस्थान कर चुकी थी। वहां शेष थे रात्रि समागम के चिह्न, पुष्प दल मादक सुगंध की तलछठ, जो अब केवल संकेत भर दे सकने में सक्षम थी। दीपाधार पर जलता दीप अब अंतिम सांसों में वर्तिका के जलने की दुर्गंध देने लगा था।

सूर्योदय के साथ जीवन स्पंदित होने लगा। दिन के प्रकाश में जीवन के दूसरे सत्य उद्घाटित होने लगे। यथार्थ अपनी विसंगतियों और विद्रूपताओं के साथ स्थान ग्रहण करने लगा और इसी के साथ ऋषिवर व्यास कक्ष से बाहर आ रहे थे। उनकी वनवासी देह मानो झाड़, लताओं में और अधिक उलझ गयी थी। चिंतन और साधना के गूढ़ रहस्य चेहरे को और अधिक कठोरता प्रदान कर प्रस्तर खंड में बदल चुके थे। विशाल नेत्र रक्ताभ होकर जैसे फट पड़ना चाहते थे। होंठ फड़क रहे थे। नथुने फुफकार रहे थे। उनके साथ छल किया गया था।

सवेरे की पूजा अर्चना के बाद तुरन्त ही ऋषि व्यास माता सत्यवती के कक्ष में जा पहुंचे। वे क्रोध में डूबे थे। क्षुब्ध थे।

वे प्रस्थान के लिए तत्पर थे। माता सत्यवती चिंतित हो उठीं। पुत्र भीष्म भी वहांँ उपस्थित थे। और थोड़ी देर में रहस्य दोपहर की धूप की तरह स्पष्ट था। दासी मुनि प्रवर के पैरों में गिरकर क्षमा याचना कर रही थी। स्वामिनी अंबिका का आदेश था।

सवेरे की पूजा अर्चना के बाद तुरंत ही ऋषि व्यास माता सत्यवती के कक्ष में जा पहुंचे। क्षुब्ध थे। प्रस्थान के लिए तत्पर थे। माता सत्यवती चिंतित हो उठीं। पुत्र भीष्म भी वहां उपस्थित थे और थोड़ी ही देर में रहस्य दोपहर की धूप की तरह स्पष्ट था। दासी मुनि प्रवर के पैरों पर गिरकर क्षमा याचना कर रही थी। उसका कोई अपराध न था। उसने केवल स्वामिनी की आज्ञा का पालन किया था। स्वामिनी अंबिका का आदेश था कि वह उनके वश में ऋषिवर व्यास के साथ रात्रि बेला में समागम के लिए स्वयं को प्रस्तुत करे। उसने केवल आज्ञापालन किया। वह अपराधमुक्त है। दासी का अस्तित्व क्या हो सकता है। स्वयं की देह पर, किसी भी नारी का कोई अधिकार नहीं, फिर वह तो क्रीत दासी है। उसकी देह पर, उसकी सांसों पर उसकी इच्छा-अनिच्छा पर स्वामी का ही अधिकार होगा। उसे आज्ञा दी गयी कि वह ऋषिवर व्यास की शैय्या पर जाकर अपनी देह समर्पित कर दे, उसने की।

अंबिका अब तेरे लिए ठौर नहीं। अब नहीं बचेगी तू। तेरा पति वहां जंगल में जानवरों का आखेट करता हुआ स्वयं भाग्य का आखेट बन गया और यहां एक नयी जंगल गाथा अंकित हो रही है। यह जामवंत समान मुनि यही बचा है क्या इस संसार में! उसे तो उनके चेहरे की कल्पना से ही उबकाई आने लगती है। कैसे सहन करेगी वह उस वृषभ को… माता सत्यवती! यह कैसा अन्याय है पुत्र प्राप्ति हेतु हम कुलवधुओं के लिए यही वनवासी पुत्र मिला था आपको..! किस जन्म की शत्रुता निहित है आपके इस आचरण में? लेकिन हमारा यह अरण्य रोदन यहीं बिखरकर रह जाएगा…

आपके राजकुल की मर्यादा हमें घुट-घुट कर न जीने देगी और न ही मरने देगी। हे ईश्वर! मैं मृत्यु का वरण करने के लिए तैयार हूं लेकिन इस पशुसदृश पुरुष की देह तले रौंदे   जाने के लिए मैं किस प्रकार स्वयं को प्रस्तुत करूँ? मैं नहीं जानती। हे विधाता! मेरे पग आगे नहीं बढ़ते… किस प्रकार में उस अनजान के सम्मुख स्वयं को प्रस्तुत करूँ? मैं क्या निर्जीव प्रस्तर हूँ या केवल देह हूँ या अनिच्छापूर्ण, अस्वीकार के साथ व्यवस्थावश दे​ह समर्पित कर मैं कौन से धर्म का पालन कर रही हूं? हे देव! मेरी रक्षा करो। मैं इसके चेहरे पर दृष्टिपात नहीं कर सकती। मैंने इतना कुरूप, इतना संवेदनहीन, प्रस्तरमुख कभी नहीं देखा। मैं इसकी देह तले जाकर जीवित नहीं बचूंगी। हे देवताओं! मेरी रक्षा करना।

– देवी, आगे आओ, तुम क्यों इतना कांप रही हो? आओ, आओ, मेरी विशाल भुजाओं  में समा जाओ। मेरे शरीर में सहस्त्र हाथियों का बल है। अंबिके! मैं तुम्हारी कोख को वीर्यवान पुत्रों का दान दूँगा। मेरा पौरुष अक्षयघट है। मेरे समीप आओ… देवी! तुम इतनी पीली क्यों पड़ गयी हो? तुम्हारा रक्तविहीन मुख मेरे विषाद का कारण बन रहा है। तुम क्यों भयभीत हो..? देवी अंबिके! मैं तुम्हारा हितैषी हूंँ। हस्तिनापुर राज्य का हितैषी हूँ.. इस संसार में केवल यही संबंध सत्य है। यह क्षण, यह अवसर यही शाश्वत है। स्त्री और पुरुष… मात्र इसी में सृष्टिकर्ता का मंतव्य निहित है। सभी दर्शन, चिंतन इसी शाश्वत क्षण की सार्थकता पर आधारित है। राज्य धर्म में केवल कर्तव्य होता है। कोई संबंध कोई रिश्ता नाता नहीं होता है। प्रेम संवेदना सब दर्शन के वाक् विलास हैं। भ्रम हैं। हृदय की दुर्बलता है। बुद्धि और तर्क वितर्क स्त्री धर्म में स्वीकार नहीं किये जाते। बुद्धि से विवेक और विवेक से कर्तव्य पालन ही राज्यसत्ता का धर्म है। भावनाएंँ धर्म भ्रष्ट करती हैं। संवेदना और भावुकता सबसे बड़े शत्रु हैं राजसत्ता में। इनका त्याग करो और कर्तव्य हेतु अपनी देह प्रस्तुत करो.. यही धर्म है… राज्यसत्ता और धर्म सत्ता का समागम ही सर्वश्रेष्ठ सत्ता में रूपांतरित होता है। आओ देवी.. सामान्य स्थिति में आओ अंबिके! और वरण करो इस पुरुष को। अक्षय सुखों की स्वामिनी बनो…

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“हां तो इस तरह डर के मारे पीली पड़ गयी अंबिका के पुत्र पांडु हुए। छोटी अंबालिका की जिस रात बारी आयी तो उसने डर के मारे ऋषि व्यास का चेहरा ही नहीं देखा। वह पूरी रात आंखें बंद किये रही। हाँ, पूरी रात वह ऋषि से पुत्र प्राप्ति का दान ग्रहण करती रही। लेकिन उसने एक बार भी आँख खोलकर उनका चेहरा नहीं देखा। उसने सोचा कि अगर उसने उनकी ओर देखा तो डर के मारे अवश्य उसके प्राण चले जाएंगे। इसलिए अंबालिका की कोख से अंधे धृतराष्ट्र पैदा हुए और अंबिका की कोख से पांडु हुए।”

– क्या व्यवस्था थी दीदी उसे जमाने में? इससे तो आज हम मामूली औरतें भली हैं।

– क्यों?

– ऐसी जबरदस्ती कोई करके तो देखे।

– इसीलिए अंबालिका की कोख से अंधे धृतराष्ट्र पैदा हुए और अंबिका की कोख से पांडु हुए।

– दीदी अब एक बात कहूं?

– कहो

– आपकी कहानी पूरी हो गयी ना?

– हां बिन्नो, इसे साफ करना है बस आज दोपहर तक जरूर से रवाना कर देना है।

– दीदी कहानी तो बाद में साफ होगी पहले तैयार हो जाइए घर सफाई के लिए। मेरी तो क्लास है 10:00 बजे से, इसीलिए मैं इस काम में आपकी कोई मदद नहीं कर सकती।

– क्यों क्या हो गया? हमें क्यों सफाई करना है?

– इसीलिए कि आपका गंगू आज काम पर नहीं आएगा, उसका छुटकू कह गया है अभी।

– अब क्या हुआ उसे! उसके रोज-रोज के नागे। मुझे तो यह कहानी आज भेजना है रोज फोन आ रहे हैं।

– आपका गंगू पड़ोस के गांव में गाय को हरी करने गया है।

– बाप रे!

– आप किस सोच में पड़ गयीं दीदी? आप थोड़ी बहुत सफाई कर लो, जितना जरूरी है बाकी शाम को मैं जाकर कमरे और आंगन छोड़ दूंगी।

– नहीं रे मैं गंगू के मिशन के बारे में सोच रही थी।

– मिशन कैसा दीदी! मनुष्य हो या जानवर। औरत की कोख अपनी नहीं होती और न ही अपनी मर्ज़ी से होती है। औरत जात तो मादा है चाहे अंबिका, अंबालिका या उन जैसी और रही हों.. या अब ये हमारी गाय भैंसें… सब एक बराबर हैं।

नमिता सिंह

नमिता सिंह

लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।

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