
- June 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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संवाद करती कहानियां
मेरे सामने श्रद्धा श्रीवास्तव का हाल में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह ‘धूप नीचे नहीं उतरती’ है। इससे पहले जो कुछ कहानियां पत्रिकाओं में छपीं, पढ़ने का मौक़ा मिला और उन्होंने ध्यान भी खींचा था। 96 पृष्ठों के इस संग्रह में उनकी 13 कहानियां हैं। साथ ही, वरिष्ठ कथाकार, संपादक ज्ञानरंजन जी की लंबी टिप्पणी भी है। अधिकांश कहानियां छोटे कलेवर की हैं, जो विविध पक्षों को अपना विषय बनाती हैं। लेखिका को देश के अलग अलग क्षेत्रों में रहने का अवसर शायद मिला। उन्होंने समाज के विभिन्न समूहों को देखा, परखा और संवेदना के स्तर पर जुड़ाव भी महसूस किया। अपने व्यापक अनुभवों को उन्होंने कहानियों को आधार बनाया है। अपनी छोटी छोटी मुलाक़ातों, विद्यार्थियों के साथ बिताये गये समय, पयर्टक के रूप में घूमते हुए विभिन्न चरित्रों को अपने शब्दों में बांधकर कहानी के रूप में प्रस्तुत करना उनके लेखनकला की क्षमता है। सामान्य-सी लगने वाली घटना भी उनकी कलम से प्रभावी कहानी बन जाती है। एक मुलाक़ात को भी कहानी के सांचे में ढाल देना और मन को छू जाने वाले दृश्य निर्मित कर देने में उनकी महारत है।
लेकिन कहानियों के उपरोक्त प्रारूपों से अलग उनकी शीर्षक कहानी सबसे अधिक हृदयग्राही है और एक अलग तरह के जीवन की परतें उघाड़ती है। सामान्य पाठक देश समाज के इस अंधेरे कोने से सामान्यत: परिचित नहीं है। ‘धूप नीचे नहीं उतरती’ में ग़रीब आदिवासी समाज के दुर्गम जीवन और सभ्य कहे जाने वाले व्यापार केंद्रित कॉर्पोरेट समूहों द्वारा उनके शारी-रिक और मानसिक शोषण की गाथा है। यहां के परिवारों का जीवन खदानों से जुड़ा है, जहां मेहनत मज़दूरी करके भी कभी भरे पेट तो अक्सर ख़ाली पेट रहना उनकी नियति है। वहां के बच्चे अपना बचपन नहीं जानते। जीवित रहने के लिए लिये गये क़र्ज़ के बदले मां बाप उन्हें व्यापारी समूहों को सौंप देते हैं, जहां से कभी कोई वापस नहीं आता। ऐसे ही एक 11-12 साल के बच्चे जमानी की कहानी है यह, जिसे भरपेट खाना और मीठी नींद का लालच देकर कंपनी के ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है। इन बाल मज़दूरों की भीषण शोषण गाथा के बीच आशा की किरण दिखायी देती है, जब एक अकादमिक संस्थान से सलाउद्दीन समेत तीन रिसर्च स्कॉलर उस क्षेत्र में उनके बीच आते हैं। संवेदन शील सलाउद्दीन इन बंधुआ बाल मज़दूरों का हमदर्द है,जो दुनिया से कटे कोको के जंगलों में रहते हैं। वह उन्हें आश्वस्त करता है कि यहां से जाने के बाद उनकी मुक्ति के लिए प्रयास करेगा। फिर एक दिन पता चलता है सलाउद्दीन समेत तीनों रिसचर्स दल -दल में फंसकर मर गये। वहां चौकीदार दबी ज़बान से कहता है, ‘यह तो होना ही था’। यहां घने जंगल में धूप नीचे नहीं उतर पाती और कोई ख़बर भी बाहर नहीं जाती – दलदल में फंस जाती है।
लद्दाख का जीवन और हिंदुस्तान पाकिस्तान संघर्षों के बीच बुनी गयी कहानी ‘गोबा अली’ है। तो दूसरी ओर, इसी लद्दाख के एक गांव हीमिया में बसे दिनेश शर्मा की कहानी है, जो बचपन में ही नेपाल से भागकर पैसा कमाने आया था और अब इस गांव की आत्मा बन गया है। दो बेहद विचलित करने वाली कहानियां बस्तर के जीवन और राजनीतिक माहौल से हैं। इस क्षेत्र को माओवादियों का गढ़ कहा जाता है। अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं और रिपोर्टों से माओवाद के नाम पर आदिवासियों के प्रति क्रूर और हिंसक कार्रवाइयों का पता चलता है। कभी सलवा जुडूम तो कभी फ़ौज के द्वारा आदिवासी समाज का सफ़ाया हो रहा है… इस पर दो कहानियां ‘सरहुल का फूल’ और ‘दावानल’ हैं। प्राकृतिक खनिज और संसाधनों से समृद्ध इन आदि-वासी क्षेत्रों के ऊपर कॉर्पोरेट घरानों की लंबे समय से नज़र है, जो यहां के निवासियों के उत्पीड़न का कारण है। बस्तर की ही एक प्रेमकथा ‘सारंगी और बिजली’ भी एक छोटी और भावपूर्ण प्रस्तुति है। ‘मानुस हौं तो वही’ के रशीद मियां कहानी के केंद्र में हैं। बड़ी संख्या में बकरी, भैंसे और गायें पालने वाले रशीद मियां आज की दुनिया में अजूबा है। अपने जानवरों को अपनी संतान समझते हैं और वे सब उनका परिवार हैं। रशीद मियां के जीवन का रेखाचित्र दिलचस्प है, प्रभावित करता है। छोटी छोटी अन्य कहानियां ‘उम्र घड़ी’, ‘फ़ेयरवेल के बाद’ एक शिक्षक के अनुभव हैं, तो ‘रेत बवंडर’ स्त्री अस्मिता के लिए एक नवयुवती के संघर्ष की कहानी है।
श्रद्धा श्रीवास्तव अपनी सूक्ष्म, संवेदनशील दृष्टि से अपने चारों ओर के माहौल और चरित्रों को परखने में सिद्धहस्त हैं। उनके अगले कहानी संग्रह की प्रतीक्षा रहेगी।

नमिता सिंह
लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।
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