
- July 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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'दिलीप-देव-राज कपूर उसके सामने थे ही क्या!'
सरदार दिलीप सिंह उर्फ दलीप सिंह आज मुझसे नाराज़ हैं। उन्होंने बोलना शुरू किया ‘मैं बलिया वालों को ख़ूब जानता हूं। मेरी तो पूरी जवानी गाजीपुर-बलिया-छपरा के बीच कटी, वहां के लोग बहुत होशियार होते हैं। एक बार कपड़ा खरीदकर पहन लिये तो उसे तब तक नहीं धोते जब तक वह फट न जाये। कहते हैं साबुन-सोडा के उसी पैसे से नयी कमीज़ ले लेंगे’। मित्र मंडली हंसने लगी। सरदार जी से फिर किसी बात पर मैंने कह दिया कि “मारे गये गुलफ़ाम अजी हां मारे गये गुलफ़ाम”, बस मेरी इसी बात से तो उन्हें परेशानी है। वरना तो हम दोनों बड़े अच्छे दोस्त थे, मैंने भी बात को टालते हुए कहा दिलीप कुमार, देवानंद, राजकपूर, ये तीनों हिन्दी सिनेमा के सबसे ख़ूबसूरत अभिनेता थे। सरदार जी को आज मेरी हर बात काटनी है सो उन्होंने कहा ‘हओ भला बताओ, ख़ैर मनाओ कि वो ख़ूबसूरत आदमी असमय चल बसा नहीं तो ये लोग थे ही क्या उसके सामने!’ बात बढ़ाने के लिए मैंने कहा, ‘इन तीनों के पहले कोई अच्छा अभिनेता था नहीं। तुम बातें तो ऐसी करते हो जैसे हमें कुछ मालूम ही नहीं’, इस पर बड़े भाई ने कहा सरदार जी, आपके पास इस बात का क्या प्रमाण है।
प्रमाण! मैने फ़िल्में देखना 15 साल की उम्र से शुरू कर दिया था, लगभग 1942-43 से फ़िल्म देखना शुरू किया, जाने कितने हीरो आये पर उसके जैसा बांका जवान कोई न दिखा। दिलीप, राजकपूर, देवानंद लोगों से ऊंची मज़बूत क़द-काठी थी उसकी.. था कौन? मैंने चाय का प्याला उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए पूछा। सरदार जी प्रसन्न होकर बोले,
उसका पूरा नाम था, सुंदर श्याम चढ्ढा पर हम उसे श्याम के नाम से जानते हैं। श्याम उस ज़माने का सबसे हैंडसम हीरो माना जाता था, उसकी पहली फ़िल्म पंजाबी में थी, जिसे देखते ही मैंने कह दिया था, यह तो उस्ताद आदमी है। हालांकि उसके बाद मैंने श्याम की “मजबूर” फ़िल्म देखी थी, जिसमें मुनव्वर सुल्ताना हीरोइन थी। इस फ़िल्म में उसने एक गांव के शरारती लड़के का रोल किया था, जो बहुत अधिक सराहा गया। उस समय की कई फ़िल्मी पत्रिकाओं में श्याम के अभिनय प्रशंसा छपी, जिसे देखकर यह तक कहा जाने लगा था कि श्याम ने अशोक कुमार और मोतीलाल को भी पीछे छोड़ दिया है।
इसके बाद तो उसके पास फ़िल्मों की कमी नहीं रही। दिल्लगी, कनीज़, पतंगा, कई फ़िल्मों में उसने काम किया। दिल्लगी में श्याम ने सुरैया के साथ काम किया। इस फ़िल्म का युगल गीत “तू मेरा चांद मै तेरी चांदनी” पूरे देश में ख़ूब मशहूर हुआ। श्याम ने उस ज़माने की सभी प्रमुख हीरोइनों सुरैया, मुनव्वर सुल्ताना, निगार सुल्ताना, नरगिस के साथ काम किया… सरदार जी जब भी श्याम के बारे में बताते, ‘पतंगा’ के उस दृश्य का ज़िक्र ज़रूर करते जिसमें श्याम का दोस्त उससे कहता देखो गुलफ़ाम, अगर तुम इस अदाकारा से बात करके दिखा दोगे, तो तुम्हें 10 रुपये दूंगा। श्याम जाता है और रानी से फ़्लर्ट करता है। उसकी इस शरारत पर रानी उसे एक तमाचा जड़ देती है… ठीक ऐसा ही काम सरदार जी ने अपने स्कूल में एक लड़की से किया था और उसने भी सरदार जी थप्पड़ जड़ दिया था, अब यह बात सरदार जी ने केवल मुझे बता रखी थी इसलिए मेरे ‘मारे गये गुलफ़ाम’ कहने से वे नाराज़ हो जाते थे।
ख़ैर, बाद में एक फ़िल्म शबिस्तान में काम करते हुए, घोड़े से गिरने के कारण सिर में गहरी चोट लगी और श्याम की मृत्यु हो गयी। इस तरह हिन्दी सिनेमा ने एक प्रतिभाशाली हीरो खो दिया। श्याम जिस तरह अभिनय में संजीदा था, उसी तरह उसे साहित्य में भी गहरी दिलचस्पी थी। श्याम की सबसे अच्छी दोस्ती सआदत हसन मंटो से रही।
आपने मंटो को पढ़ा है सरदार जी? (विवेक ने मुस्कुराते हुए पूछा) हां, क्यों नहीं। अगर भारत विभाजन के दर्द को समझना चाहते हो तो मंटो की कहानी पढ़ो कभी, अब तक सरदार जी का ग़ुस्सा मुझ पर उतर चुका था। इधर दिन भी खुल चुका था, सरदार जी ने कहा, चलो आज मैं तुम्हें बलिया वाला चने का साग बनाकर खिलाता हूं। हां कहते हुए मैं भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। लेकिन ना तो मैंने उन्हें “मारे गये गुलफ़ाम” बोलना छोड़ा ना उन्होंने मुझे माफ़ करना…

मिथलेश रॉय
पेशे से शिक्षक, प्रवृत्ति से कवि, लेखक मिथिलेश रॉय पांच साझा कविता संग्रहों में संकलित हैं और चार लघुकथा संग्रह प्रकाशित। 'साहित्य की बात' मंच, विदिशा से श्रीमती गायत्री देवी अग्रवाल पुरस्कार 2024 से सम्मानित। साथ ही, साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका "वनप्रिया" के संपादक।
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