
- September 10, 2025
- आब-ओ-हवा
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डॉ. आज़म की कलम से....
आह डॉक्टर अली अब्बास उम्मीद!
घसीटते हुए ख़ुद को फिरोगे “ज़ेब” कहाँ
चलो कि ख़ाक को दे आएं ये बदन उसका
“ज़ेब” ग़ौरी
आज डाक्टर सय्यद अली अब्बास आबिदी उल-मारूफ़ अली अब्बास “उम्मीद” सुपुर्द-ए-ख़ाक हो गये। ख़ुद को वो कोई दो महीने से घसीटे जा रहे थे और बस एक ही सूरत नज़र आ रही थी कि अब ज़िंदगी की कोई उम्मीद नहीं। देखना था तो बस ये कि साँसें और कितनी उधार लाये हैं। सांस का चलना मुर्दा न होने की निशानी भर है, ज़िंदा होने का सबूत नहीं। ये उन्हें देखकर एहसास हो रहा था। अस्पताल वाले भी वर्ना उन्हें ज़िंदगी के आसार से पुर-उम्मीद मानने से इनकार करते हुए घर पर ही रखने और तीमारदारी करने की सलाह के साथ अस्पताल से डिस्चार्ज न कर देते।
ख़ैर! उनसे मेरी पहली मुलाक़ात, क़लमकार परिषद द्वारा आयोजित एक मह्फ़िले शेर-ओ-सुख़न में हुई थी। तब परिषद का ऑफ़िस सदर मंज़िल के पास हुआ करता था। क़ैसर उल जाफ़री साहिब को आमंत्रित किया गया था। बात 2005 की है। ये बात विश्वास के साथ कह सकता हूँ क्योंकि ये उनकी आख़िरी शेअरी महफ़िल साबित हुई थी। मुंबई में वो किसी हादिसे का शिकार होकर इंतिक़ाल फ़र्मा गये थे। इत्तिफ़ाक़न ये भी याद आया कि इसमें उन्होंने आज मुशायरों के माध्यम से प्रसिद्ध अल्ताफ़ ज़िया का परिचय ये कहते हुए कराया था कि नौजवान है, नया है, अच्छा पढ़ता है।
अली अब्बास “उम्मीद” से तब मेरा कोई ख़ास मेल-मिलाप क़ायम नहीं हो सका था क्योंकि मैं सीहोर में पदस्थ था और कभी-कभी ही भोपाल आना-जाना होता था। भोपाल में आ जाने के बाद भी हमारा कोई ख़ास मिलने-मिलाने का सिलसिला क़ायम नहीं हो सका था। किसी महफ़िल में देख-सुन लेते थे। बाक़ायदा मुलाक़ातें पिछले कुछ बरसों से शुरू हुईं। तब ये राज़ भी खुला कि जौनपुर (उतर प्रदेश) इनका वतन है। ग़ाज़ीपुर से तालीमी संबंध है। मेरा वतन बलिया है और अब दोनों का वतन-ए-सानी/कर्मभूमि भोपाल है, तो मुलाक़ातों में उनकी बड़े भाई जैसी शफ़क़त का इज़ाफ़ा महसूस करने लगा।
उर्दू की महफ़िलों के साथ हिन्दी की सभाओं में भी आपको समान तौर से मक़बूल देखा। तुलसी साहित्य अकैडमी, भोपाल के संस्थापक डाक्टर मोहन तिवारी ‘आनंद’ जी से तो मैंने एक-बार कहा भी… आप अपने हर प्रोग्राम में अली अब्बास साहिब को लाज़िमी तौर पर शामिल करते हैं। तब उन्होंने कहा था… उनके जैसा कोई और मिलता ही नहीं! हाय अब वो भी नहीं मिलने के!
मुहतरम राम प्रकाश त्रिपाठी साहिब के हर प्रोग्राम में भी अली अब्बास साहिब होते थे। इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि वो गंगा-जमुनी तहज़ीब के नुमाइंदा थे। तास्सुब और जानिबदारी से रिक्त। उनका अपना एक सयासी नज़रिया था, मगर क़लम ख़ालिस अदबी था।
कुछ लोगों को ये गिरां गुज़रता था कि वो किसी को दाद से नहीं नवाज़ते। जैसे कि किसी का भी कलाम उन्हें प्रभावित नहीं कर पा रहा। उनके लब से एक जुमला भी वाह-वाह का नहीं निकलता इसलिए कुछ लोग उन्हें दंभी भी समझते थे। हालाँकि ऐसा नहीं था। उन्हें मैंने बड़े दिल वाला, छोटों को प्यार करने वाला और हमउम्र और बड़ों को आदर देने वाला इंसान ही पाया। अलबत्ता अपनी सीनियरिटी का ख़्याल रहता था, जिसे वो संजीदगी से लेते थे। मगर ये विशेषता कोई उनसे ही मंसूब नहीं। हर वरिष्ठ साहित्यकार ऐसा ही करता है और चाहता है कि उसके साहित्यिक रचनाकाल के आरंभिक माह-ओ-साल को ध्यान में रखा जाये।
उनकी बातचीत में हास-परिहास का समावेश रहता था, मगर पूरी शिष्टता के साथ। उनके साथ एक पल भी बोझल नहीं गुज़रता था। ख़ुश-लिबासी का शौक़ था। ख़ुश-बयानी उनके स्वभाव का हिस्सा थी। शालीनता उनकी प्रकृति थी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जहां शिक्षा के साथ शिष्टता भी हासिल होती है, इसके वो एंबेसडर थे। सभी ने एक पाये का अदीब खोया है, मगर हमने अपना एक हर दिल अज़ीज़ “अलीग” भी खोया है।
कुछ अर्से से अपने साथ अदबी महफ़िलों में अपने सुपुत्र इनायत अब्बास को भी साथ लाने लगे थे। बाप-बेटे शाइरों की एक समृद्ध रिवायत भोपाल में रही है। इसमें एक ख़ुशगवार इज़ाफ़ा हुआ। इनायत अब्बास ने कम अर्से में एक संजीदा शायर और गाहे-ब-गाहे संचालक के तौर पर अपनी पहचान बना ली है। उन्हें अभी बहुत मेहनत करने की ज़रूरत है, जिससे वो सही अर्थों में अपने पिता की विरासत को सँभाल सकें।
उनका घर ख़ुद अली अब्बास उम्मीद के समग्र परिचय की तरह है क्योंकि उसका नाम क़लमकार हाउस है। क़लमकार परिषद से एक से एक राजनीतिक और साहित्यिक लोग जुड़े रहे मगर उनका एजेंडा कभी भी राजनीतिक नहीं रहा। उर्दू भाषा के प्रति वो बहुत संवेदनशील थे और इसकी बदहाली को दूर करने के लिए क्रियाशील रहते थे। जलसे करते थे, जलूस निकालते थे।
कई ज़बानों पर आपको अधिकार था। उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी में किताबें लिखीं। अदब की गद्य और पद्य की कई विधाओं में पूरे अधिकार के साथ लिखते थे। आपने ग़ज़लें, नज़्में, अफ़साने, अफ़सांचे लिखे। कई किताबों के लेखक होने के साथ कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़े गये थे, जिसमें मध्य प्रदेश उर्दू अकैडमी का कुल हिंद एज़ाज़ (राष्ट्रीय सम्मान 2011-12) भी शामिल है।
मुहर्रम में “याद-ए-हुसैन” की मजलिसें आयोजित करते थे। 1960 के दशक से ही भोपाल की अदबी फ़िज़ा पर ख़ुशगवार बादल की तरह छाना शुरू कर दिया था। लहू-लहू, निगाह-ए-ग़ालिब, पत्थरों का शहर, लब-ए-गोया, जो याद रहा वो सौंप दिया, आफ़ाक़ी अलमीया, परवाने की ख़ाक, क़लम का दर्द वग़ैरा उन की पुस्तकें हैं। “स्प्रे” नाम से उनके कलाम का अंग्रेज़ी अनुवाद अमरीका से प्रकाशित हुआ। कलाम में गहराई थी। वो ग़ज़ल और नज़्म के सौंदर्यबोध से परिचित थे, वहीं कथात्मकता से भी बोध रखते थे। बच्चों के लिए भी ख़ूब लिखा।
ऐसे सहृदय, शिष्ट और दर्दमंद इन्सान, उच्चकोटि के साहित्यकार, उर्दू-हिंदी के विद्वान का इंतिक़ाल हम सबके लिए बेहद मलाल का कारण है। विशेष तौर से उर्दू अदब की बड़ी क्षति है।

डॉक्टर मो. आज़म
बीयूएमएस में गोल्ड मेडलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।
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