
- June 7, 2025
- आब-ओ-हवा
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दुष्यंत-पूर्व हिन्दी ग़ज़लकार
कोई भी घटना अकस्मात नहीं घटती, उसके नेपथ्य में कोई-न-कोई प्रक्रिया बहुत पहले से चल रही होती है। ग़ज़ल का हिन्दी में आगमन भी, अचानक गुज़रा कोई हादसा नहीं था। ग़ज़ल कई परिवर्तनों के पश्चात हिन्दी में आयी। ग़ज़ल के साथ एक हज़ार साल की मुश्तकरका तहज़ीब भी भारत आयी। ग़ज़ल के उत्स को लेकर भी कई बातें कही जाती हैं। किन्तु सच तो ये है कि ज़माना-ए-जाहिलिया (अरब के इतिहास में इस्लाम के पूर्व का समय) में लिखे जा रहे क़सीदों में जब प्रेम का प्रवेश हुआ तब ग़ज़ल का जन्म हुआ। उमरउल क़ैस (539 ई.) ज़माना-ए-जाहिलिया का पहला शायर था। ये अरबी का शायर था! क़ैस की शायरी अपने तीसरे परिवर्तन के बाद हिन्दी में आती है।
चूँकि ग़ज़ल एक रिवायती सिन्फ़ है, अपने साथ एक तहज़ीब, संस्कार, हुनर, चेतना और योग्यता लेकर आयी। ये बात अलग है कि कालान्तर में ये भारतीयता के प्रभाव से विलग न रह सकी। ज्ञान मंडल वाराणसी के ‘हिन्दी साहित्यकोश’ के अनुसार ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती भारत में ग़ज़ल के सर्वप्रथम रचनाकार थे। ख़ैर ग़ज़ल का इहितास कुछ भी हो हम अपने विषय पर आते हैं। प्रस्तुत निबंध में हम दुष्यंत से पूर्व के हिन्दी ग़ज़लकारों पर प्रकाश डालेंगे।
जैसा कि सभी जानते हैं ग़ज़ल अपने इब्तिदाई दौर में प्रेम की वाहिका रही, हिन्दी ग़ज़ल के प्रारंभिक दौर पर भी उर्दू का गहरा प्रभाव पड़ा। हिन्दी ग़ज़ल का प्रारंभिक दौर भी वैयक्तिकता की परिधि से आगे न बढ़ सका। पूरी तरह से प्रेम पिटारा बना रहा। किन्तु इसके बाद भी ये बात ध्यान देने योग्य है कि इन ग़ज़लों में दैहिक प्रेम की जगह मानव प्रेम की भी आर्द्र ख़ुशबू मिलती है। इश्क कहीं-कहीं मजाज़ी की जगह हक़ीक़ी का भ्रम पैदा करता है। प्यारेलाल शोकी लिखते हैं –
जिन प्रेम रस चाखा नहीं, अमृत पिया तो क्या हुआ
जिन इश्क़ में सर ना दिया सो जग जिया तो क्या हुआ
जब इश्क़ के दरियाव में होता नहीं ग़रकाब तो
गंगा बनारस द्वारका पनघट फिरा तो क्या हुआ
मारम जगत को छोड़कर दिल तन से ते खिलवत पकड़
शोकी पियारेलाल बिन सबसे मिला तो क्या हुआ
पहले शेर में ‘अमृत’ अमरता का पर्याय बनकर आया है। अत: पहली पंक्ति में शायर कहना चाहता है कि बिना प्रेम के तो अमृत पीकर भी आदमी अमर नहीं हो सकता। ‘जग जिया’ अर्थात गृहस्थ जीवन भी इश्क़ के बिना अधूरा है। दूसरे मिसरे में आया ये इश्क़ कई ओर संकेत करता है। ये इश्क़ प्रेमिका से भी हो सकता है अर्थात मजाज़ी हो सकता है। इष्ट से भी हो सकता है अर्थात् हक़ीक़ी भी। साथ-ही-साथ गृहस्थ जीवन अर्थात अपने फ़र्ज़ से भी हो सकता है। यानी व्यावहारिक भी हो सकता है। हर हाल में ये इश्क़ ठीक ही लगता है। दूसरे शेर में आया इश्क़ कुछ पुनरावृत्ति लिये हुए है। किन्तु मन की पवित्रता की ओर संकेत करता है। कवि कहना चाहता है कि बिना इश्क़ अर्थात बिना समर्पण इन तमाम पवित्र जगहों के पर्यटन का कोई लाभ नहीं है। तीसरे शेर में कवि पलायनवादी सा नज़र आता है। कवि संसार छोड़कर एकांतवासी होने की बात करता है। इन तीनो शेरों में तगज़्ज़ुल का अभाव खल रहा है।
गिरधर दास के शेरों में फिर वही रंग नज़र आता है। वही उर्दू की इज़ाफ़त वही आशिक़ मिज़ाजी। पूरी तरह से व्यष्टि प्रधान शेर। सामाजिक सरोकार कहीं नज़र नहीं आता।
हम भी उस बे-पीर के आशिक़ हैं कहलाने लगे
आह! हम मजनू-शुमारी में गिने जाने लगे
हो गया मुझसे ख़फ़ा वह याद अब आता नहीं
जब से सब बे-पीर आकर उसको बहकाने लगे
शेर के रुक़्न, फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन हर शेर में बिल्कुल सही ढंग से आये हैं मगर ‘मजनू-शुमारी’ के बाद ‘गिने’ शब्द का प्रयोग अनुचित जान पड़ता है। दोनों शब्द एक दूसरे के समानार्थी हैं। दो समानार्थी शब्दों का एक साथ प्रयोग अनुचित है। शेरों में पर्याप्त शेरियत है।
जैसा कि सर्वविदित है कबीर पर भी ग़ज़लकार होने का आरोप है। इनकी आरोपित कविताओं में ग़ज़ल के तत्व भी विद्यमान हैं। पर्याप्त सामाजिकता और भाषा की तानाशाही तो इनकी विशेषता है, किन्तु विधा की प्राचुर्यता का अभाव मिलता है। दो-चार कविताओं में इत्तफ़ाकन ग़ज़ल के तत्व मिल जाने से उन्हें ग़ज़लकार मान लेना ठीक नहीं लगता। ख़ैर, इश्के-हक़ीक़ी के कुछ शेर देखते हैं।
हमन है इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या
रहें आज़ाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या
न पल बिछड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से
उन्हीं से नेह लागी है हमन को बेक़रारी क्या
पहले शेर में कबीर का फक्कड़ाना मिज़ाज दिखायी देता है तो वहीं दूसरे शेर में ब्रह्मवाद की स्थापना करते हुए से दिखायी देते हैं। कबीर स्वयं प्रेमी बनकर प्रिया से एकाकार हो जाते हैं। शेर अपने रुक़्न को शुरू से अंत तक थामे हुए है। शेर का रुक़्न है-
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
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बलबीर सिंह रंग का नाम दुष्यंत से पूर्व के ग़ज़लकारों में आता है किन्तु इन पर कवि सम्मेलन का प्रभाव साफ़ दिखायी देता है। इनकी कविताओं में अवाम की चित्तवृत्ति का प्रतिबिंब कहीं परिलक्षित नहीं होता। अगर कहीं होता भी है तो बड़ा ही क्षीण–चित्र सामने आ पाता है। एक उदाहरण–
ऐ दिले-नाकाम आख़िर किसलिए?
ग़र्दिशे-अय्याम आख़िर किसलिए?
मतले के दोनों मिसरे अपने आप को व्यक्त करने में असमर्थ लग रहे हैं। क्या, किसलिए ये बात स्पष्ट नहीं हो पा रही। दोनों वाक्यों में क्रिया नदारद है। बिना क्रिया के वाक्य ही अपूर्ण लग रहे हैं। एक और शेर देखें–
आप के पैग़ाम आख़िर किसलिए?
हर किसी के नाम आख़िर किसलिए?
यहाँ ‘आख़िर किसलिए’ रदीफ़ अपने आप को सही ढंग से स्थापित नहीं कर पा रही। रचनाकार शायद कहना चाह रहा है कि ‘आप के पैग़ाम हर किसी के नाम आख़िर किसलिए’ मगर पहले मिसरे में आयी रदीफ़ कोई अर्थ नहीं दे रही बल्कि अतिरिक्त पद दोष पैदा कर रही है। एक अन्य ग़ज़ल के कुछ शेर देखते हैं–
हमने तनहाई में ज़ंजीर से बातें की हैं
अपनी सोयी हुई तक़दीर से बातें की हैं
तेरे दीदार की क्या ख़ाक तमन्ना होगी
ज़िन्दगी भर तेरी तस्वीर से बातें की हैं
मतले के शेर में देशभक्ति का भ्रम तो अवश्य पैदा हो रहा है मगर बाद का शेर साफ़ कर दे रहा है कि रंग साहब ग़मे-जानां के ही शिकार हैं। ग़ज़ल शुरू से अंत तक अपने रुक़्न को सम्हाले हुए है। रुक़्न– फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी ‘रसा’ नाम से कुछ ग़ज़लें लिखीं हैं, किन्तु कुछ ख़ास सफलता न मिलने के कारण उन्होंने अपना हाथ खींच लिया। उनकी ग़ज़लें भी रूमान निगारी की परिधि से बाहर न आ सकीं। मैं ये नहीं कहता कि रूमान निगारी या उल्फ़त बुरी चीज़ है किन्तु इतना ज़रूर कहूँगा कि भारतेन्दु के समय की माँग कुछ और थी। वो ग़ुलामी का दौर था और भी बहुत से मुद्दे थे। ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’ और ‘नील देवी’ जैसी कृतियों के कृतिकार को ये ग़ज़लें बिल्कुल शोभा नहीं देतीं।
गले मुझको लगा ले ऐ दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में
नहीं यह है गुलाले-सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक़ की हैं उमड़ी आहें आतिशबार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में
है रंगत ज़ाफ़रानी रुख़ अबीरी कुमकुमी कुच है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में
‘रसा’ गर जामे-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आँख दिखलाकर करो सरशार होली में
ग़ज़ल रुक़्न (मुफ़ाईलुनx4) पर आधारित है अत: रुक़्न के अनुसार देखा जाये तो मतले का शेर ख़ारिज है। चौथा शेर भी बैशाखियों की माँग कर रहा है। स्वयं को बाक़ी शेरों के समानान्तर खड़ा नहीं कर पा रहा। उपर्युक्त ग़ज़ल में ग़ज़ल की सिन्फ़ तो ज़रूर है मगर गंभीरता का अभाव साफ़ दृष्टिगत है। ‘कुच’ और ‘जानेमन’ जैसे शब्द अश्लीलता की ओर संकेत कर रहे हैं। एक राजा का विलास पूरी ग़ज़ल में व्याप्त है। अच्छा ही किया कि भारतेन्दु ने अधिक ग़ज़लें नहीं लिखीं वर्ना उनकी गंभीर रचनाओं पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता।
बद्रीनारायण उपाध्याय ने भी ‘प्रेमघन’ तख़ल्लुस से ग़ज़लों में हाथ आजमाइश की परन्तु ये भी कुछ ख़ास सफल न हो सके। वही उर्दू का रिवायती अंदाज़, वही कथ्यों की संकीर्णता। गाल और बाल यहाँ भी लफ़्ज़ों के साथ लिपटे रहे। ग़ज़ल यहाँ भी वास्तविकता की सख़्त ज़मीन न पा सकी। कहीं पपीहे की पुरग़ज़ब रट तो कहीं आँखों में उबाऊ ग़मे-जानां। समाज यहाँ भी पूरी तरह नदारद रहा–
तेरे इश्क़ में हमने दिल को जलाया
क़सम सर की तेरे मज़ा कुछ न आया
नज़र ख़ार की शक्ल आते हैं सब गुल
इन आँखों में जबसे तू आकर समाया
मचाया है मोरों ने क्या शौरे-महशर
पपीहे ने क्या पुर-ग़ज़ब रट लगाया
परीशाँ हो क्यों अब्रे-बेख़ुद भला तुम
कहो किस सितमगर से है दिल लगाया
उपर्युक्त शेर यूँ तो ग़ज़ल के शिल्प की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते हैं, बहरे मुतकारिब की ये ग़ज़ल फ़ऊलुन, फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन के लयखंड का पूरी तरह अनुपालन करती है किन्तु कहीं भी अपने आपको अपने समय से जोड़ती नज़र नहीं आती।
प्रताप नारायण मिश्रा ने बहुत अधिक ग़ज़लें नहीं कहीं पर इनकी ग़ज़लों में समाज की छटपटाहट नज़र आती है। समाज की विडंबनाओं, कमियों, असंतोष पर उन्होंने प्रहार करने की कोशिश की है। कवि कहता है-
अनुद्योग आलस्य संतोष सेवा
हमारे हैं अब मेहरबाँ कैसे-कैसे
अभी देखिए क्या दशा देश की हो
बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे
कितना तीखा व्यंग्य है। यहाँ कवि का बुनियादी अनुभव है। शायरी पूरी तरह से जदीद हो गयी है। तग़ज़्ज़ुल और तख़ैयुल का एक अलग अंदाज़ दूसरे शेर में देखने को मिलता है। शायरी में एक मुहाकत और नज़ाक़त है। घर करती अपसंस्कृति पर एक तीखा तंज़ देखें–
प्रताप अब तो होटल में निर्लज्जता के
मज़ा लूटती है जिनाँ कैसे-कैसे
बात करख़्त भले है पर इसमें मुहाकत (यथार्थ) और रवानी है। वज़्न है– फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन फ़ऊलुन। स्वामी राम तीर्थ और प्यारे लाल शोकी की ग़ज़लें एक दूसरे की पुनरावृत्ति करती-सी लगती हैं। एक उदाहरण देखिए–
जिन प्रेम रस चाख्या नहीं, अमृत पिया तो क्या हुआ
जिन इश्क में रस न दिया, जुग-जुग जिया तो क्या हुआ
जब प्रेम के दरयाब में गरक़ाब यह होता नहीं
गंगा जमुन गोदावरी न्हाला फिरा तो क्या हुआ
लाला भगवान दीन भी प्रेमिका के पैरों के इर्द-गिर्द ही घूमते नज़र आते हैं। फ़िज़ूल तुकबंदी के अतिरिक्त यहाँ भी कुछ दिखायी नहीं देता। ऐसा लगता है जैसे मश्क करने के लिए लिखी गयी कोई मश्किया ग़ज़ल हो–
तुमने पैरों में लगायी मेंहदी
मेरी आँखों में समायी मेंहदी
है हरी ऊपर मगर अंतस है लाल
है ये जादू की जगायी मेंहदी
कल से छूटी कूटकर पीसी गयी
तब मेरे पद छूने पायी मेंहदी
इस ग़ज़ल में बस बहर निभायी गयी है और कुछ भी नहीं। रुक्न– फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन है।
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छायावाद के दौर में भी ग़ज़लें काफ़ी मात्रा में लिखी गयीं। डॉ. सरदार मुजावर लिखते हैं– “हिन्दी की छायावादी ग़ज़लों का विषयगत परिप्रेक्ष्य विविधतापूर्ण रहा है। ये विविधताएँ छायावादी ग़ज़ल को एक विशिष्टता प्रदान करती हैं। छायावादी ग़ज़लों ने जहाँ एक ओर हिन्दी कविता के विकास में योगदान दिया वहीं दूसरी ओर इन ग़ज़लों ने हिन्दी ग़ज़लों के विकास में भी योगदान दिया।” (हिन्दी की छायावादी ग़ज़ल, सरदार मुजावर, पृष्ठ 15) छायावादी ग़ज़लों में शृंगारिकता की मात्रा अधिक है। जयशंकर प्रसाद की एक ग़ज़ल देखें–
अस्ताचल पर युवती संध्या कि खुली अलक घुँघराली है
लो माणिक मदिरा की धारा अब बहने लगी निराली है
(ध्रुवस्वामिनी पृ. 35)
उपर्युक्त शेर में प्रकृति के मानवीकरण रूप का बड़ा ही सुन्दर चित्रण है। ‘युवती संध्या’ और ‘माणिक-मदिरा’ रूपक बनकर आये हैं। तग़ज़्ज़ुल यहाँ भी आहत हुआ है। एक और शेर देखें–
अरुण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है
प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज आलिंगन से मिल रहा है
(कानन कुसुम / प्रसाद पृ.42)
उपर्युक्त शेर, शेरनुमा भले ही हों किन्तु इनमें क्लिष्टत्व दोष है, शेरियत तो बिल्कुल गुम है। ये पंक्तियाँ छायावादी तो अवश्य लग रही हैं किन्तु इनमें शेरों वाली वो गति वो मारक क्षमता, वो रवानी बिल्कुल नहीं है। ग़ज़ल की बागडोर निराला के हाथों में आकर कुछ परिवर्तित होती है। जैसा कि सभी जानते हैं, निराला की कविताएँ अपने उत्तरकाल में प्रगतिवादी हो जाती हैं, निराला की ग़ज़लों पर भी इसका प्रभाव पड़ा। एक उदाहरण–
भेद कुल खुल जाये वह सूरत हमारे दिल में है
देश को मिल जाये जो पूँजी तुम्हारी मिल में है
(बेला पृ. 35)
शेर का रुक़्न फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन है। मतले के शेर में पूँजीवाद का विरोध खुलकर किया गया है। कहीं किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं। ये कहने में भी मुझे कोई गुरेज़ नहीं कि दुष्यंतकालीन ग़ज़लों की नींव छायावाद के समय में ही रख दी गयी थी।
निराला की ग़ज़लों में तंज़ बड़े ही चुटीले होते हैं। प्रतीकों का बड़ा ही सुन्दर प्रयोग है।
मुसीबत में कटे हैं दिन, मुसीबत में कटी रातें
लगी हैं चाँद सूरज से, निरंतर राहु की घातें
(बेला पृ. 69)
‘चाँद’, ‘सूरज’ और ‘राहु’ प्रतीक रूप में आये हैं। यह सत्य है कि निराला का जीवन कष्टों की एक दुखद कथा रही है। इन परेशानियों ने निराला को अंदर-ही-अंदर बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया। एक अभिव्यक्ति देखें–
वह पलने से तेरे छुटा जा रहा है
इसी सोच से दम घुटा जा रहा है
तेरे दिल की क़ीमत चुकाने के पहले
तरह पानी की वो फुटा जा रहा है
उपर्युक्त शेर बहरे-मुतकारिब में है, किन्तु पहले शेर का ऊला मिसरा ‘वह’ की वजह से ख़ारिज हो रहा है। तथा दूसरे शेर का सानी मिसरा ‘तरह’ की वजह से शब्द क्रम दोष का शिकार हो गया है। ख़ैर जो भी हो, शेरों में उनका दर्द साफ़ दिख रहा है। वैयक्तिकता के बावजूद भी शेरों में गति है।
त्रिलोचन प्रगतिवाद के बड़े कवियों में से हैं किन्तु साथ-ही-साथ यह भी विदित है कि त्रिलोचन आत्मविश्लेषण के कवि हैं। उन्होंने अपने बारे में कई कविताएँ लिखी हैं। त्रिलोचन की ग़ज़लों में कहीं-कहीं फैंटैसी भी देखने को मिल जाती है। एक उदाहरण–
अंधेरी रात है, मैं हूँ अकेला दीप जलता है
हवा जग-जग के सोती है पथिक अब कौन चलता है
(नया ज्ञानोदय, ग़ज़ल विशेषांक, जनवरी 2013)
त्रिलोचन के कुछ और शेर देख सकते हैं–
यह दिल क्या है देखा दिखाया हुआ है
मगर दर्द कितना समाया हुआ है
मिरा दुख सुना, चुप रहे फिर वो बोले
कि यह राग पहले का गया हुआ है
झलक भर दिखा जाएँ बस उनसे कह दो
कोई एक दर्शन को आया हुआ है
वैयक्तिकता से लबरेज़ इन शेरों में कुछ ख़ास बात नज़र नहीं आती। पहले मिसरे में ‘यह’ की वजह से दोष भी पैदा हो गया है। प्राय: ऐसा देखा जाता है कि जो नई रहगुज़र बनाने का ख़तरा उठाते हैं वही कुछ कर पाते हैं। त्रिलोचन को इसमें कुछ ख़ास सफलता नहीं मिलती। वे न तो हिन्दी ग़ज़ल को कुछ ख़ास दे पाते हैं न तो ग़ज़ल के लिए दुष्यंत जैसा कोई खास डिक्शन तैयार कर पाते हैं।
एहिताम हुसैन ग़ज़ल के अल्फाज़ के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हैं कि “अश्आर में ख़ूबसूरत और बे-ऐब लफ़्ज़ों का तथा दिल की गहराई में उतर जाने वाले भाव, सादगी के साथ बयान होने चाहिए” (ग़ज़ल गरिमा अंक 3, सं. भानुमित्र) मैथिलीशरण गुप्त में प्राय: इन चीज़ों का अभाव है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक काल के बड़े कवियों में थे। उन्हें सबसे अधिक पाठक भी प्राप्त थे किन्तु उनमें प्रांजलता, शब्दशैली, कोमलता तथा दार्शनिकता का अभाव साफ़ दृष्टिगत होता है। अभिव्यक्ति की विराटता तथा लोकप्रियता ने उन्हें बड़ा कवि बनाया। इतिवृत्तात्मकता उन पर पूरी तरह हावी है। जहाँ तक मैथिली शरण की ग़ज़लों की बात है मुहाकत, तख़ैयुल और मौसीक़ी का अभाव बहुत अधिक खलता है। उनकी ग़ज़लों में तुकबंदी और सपाटबयानी बहुत अधिक देखने को मिलती है। शुरू से अंत तक ये या तो आराध्य के सामने गिड़गिड़ाते हुए या फिर गौरवशाली अतीत की दुहाई देते हुए नज़र आते हैं। एक उदाहरण–
इस देश को हे दीन बन्धो! आप फिर अपनाइए
भगवान भारतवर्ष को फिर पुण्यभूमि बनाइए
जड़ तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा पूर्ण है
हे रम्ब! अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइए
यह आर्य भूमि सचेत हो फिर कार्यभूमि बने अहा
वह प्रीति नीति बढ़े परस्पर नीति भाव भगाइए
ऊपर के दोनों शेरों में भगवान से प्रार्थना है और अंतिम शेर के माध्यम से आर्यभूमि के अतीत के गौरव की ओर संकेत है। संबोधनों का प्रयोग, जैसे अहा, अहो, रंभ, अरे का भी प्रयोग बड़े धड़ल्ले से करते हैं। इनकी कविता में सलासत (सादगी) तो है मगर तुकबंदी बनकर रह जाती है। संबोधनों (अहा, अहो) आदि के कारण रवानी में बाधा आती है। परन्तु इन तमाम कमियों के बावजूद इन्होंने अतीत को वर्तमान से जोड़ने का जो पुनीत कार्य किया है उसे नकारा नहीं जा सकता। इनके यहाँ सृजन की व्यापकता है।
शमशेर की पृष्ठभूमि तो उर्दू की रही, ग़ज़लों की अच्छी पकड़ और दख़ल भी किन्तु नये मुहावरों की कमी तथा ग़ज़ल के लिए नयी काव्य भाषा का अभाव उनकी ग़ज़लों में खलता है। ज्ञान प्रकाश विवेक कहते हैं– “हिन्दी ग़ज़ल में शमशेर और इनसे पूर्व के अनेक कवियों ने देवनागरी लिपि में ग़ज़लें लिखीं किन्तु प्रभाव दुष्यंत की ग़ज़लों ने छोड़ा और ऐसा प्रभाव छोड़ा कि हिन्दी ग़ज़ल एक सशक्त विधा के रूप में उभरी। आख़िर ऐसी क्या बात है कि शमशेर की ग़ज़लों ने वो प्रभाव पैदा नहीं किया जो दुष्यंत की ग़ज़लों ने पैदा किया। कारण स्पष्ट है वो जोखम उठाते हैं। वो ग़ज़ल की लीक तोड़ते हुए नया मुहावरा गढ़ते हैं। शमशेर ऐसा नहीं कर पाते। शमशेर ग़ज़लों में क्लासिकियत ज़रूर हैं लेकिन वो क्लासिकियत उर्दू ग़ज़ल के मिज़ाज, लहजे और स्वर में घुल मिल जाती है। नया डिक्शन तैयार नहीं करती।” (ग़ज़ल दुष्यंत के बाद/ज्ञान प्रकाश विवेक, पृष्ठ 210) कुछ शेर देखें–
मुश्कबू-ए-ज़ुल्फ़ उसकी, घेर ले जिस जा हमें
दिल ये कहता है उसी को, अपना काशाना कहें
अपने ही क़द्रे-दुखी की पुरतकल्लुफ़ लज़्ज़तें
आप क्या लेते हैं मुझसे और क्या देता हूँ मैं
इन शेरों को भले ही हम हिन्दी का शेर मान लें किन्तु उर्दू का दबाव इन शेरों पर साफ़ नज़र आ रहा है। शमशेर ने कहीं भी किसी तरह का जोखम उठाने का साहस नहीं किया है। इन तमाम बातों से एक बात तो साफ़ हो जाती है कि दुष्यंत के पूर्व ग़ज़लकारों की चाहें जितनी तवील फ़ेहरिस्त क्यों न रही हो, वे मुकम्मल हिन्दी ग़ज़लकार होने की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। वे या तो उर्दू के बोझ से दबे हुए हैं या फिर ग़ज़ल के शिल्प विधान का पूरी तरह अनुपालन नहीं करते, किन्तु फिर भी वे समान रूप से आदरणीय हैं। वे भले ही मुकम्मल हिन्दी ग़ज़लकार न हों मगर हिन्दी ग़ज़ल की बुनियाद में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

ज्ञानप्रकाश पांडेय
1979 में जन्मे, पेशे से शिक्षक ज्ञानप्रकाश को हिन्दी और उर्दू की शायरी में समकालीन तेवरों के लिए जाना जाता है। अमिय-कलश (काव्यसंग्रह), सर्द मौसम की ख़लिश (ग़ज़ल संग्रह), आसमानों को खल रहा हूँ (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित हैं। कुछ एक प्रतिष्ठित संस्थाओं से नवाज़े जा चुके हैं।
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