
- September 5, 2025
- आब-ओ-हवा
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'हम गवाह हैं' पर पाठकीय टिप्पणी मधु सक्सेना (रायपुर) और 'समय ही ऐसा है' पर पाठकीय टिप्पणी डॉ. वनिता बाजपेई (विदिशा) की कलम से....
गवाही देती ब्रज श्रीवास्तव की कविताएं
कविता मात्र शब्दों का समुच्चय नहीं। मन के भावों को शब्दों में लपेटकर जीवन सुगंध के अनुभव का इत्र छिड़ककर सुगंधित करना है। कविता की अपनी एक तासीर भी होती है।प्रस्तुति, प्रवाह, शिल्प, चेतना सभी मिलकर सृजन करते हैं। कविता आईना होती है, जिसमें समाज की छवि दिखती है। कवि अपने तरीक़े से अपनी बात कहता है। उसकी दृष्टि अल्पगामी और दूरगामी दोनो परिणामों पर सचेत रहती है। कवि का दुख, आक्रोश, सलाह, चेतावनी सहित कविता में समा जाता है। ऐसी ही भरी भरी सी कविताएँ हैं, काव्य संग्रह ‘हम गवाह हैं’ में। रचनाकार हैं ब्रज श्रीवास्तव।
कविताएँ सरल भाषा में कठिन बात कह जाती हैं। पाठक अटकता है, ठहरता है और चल देता है कविता के साथ…
रात में देखी
ऐसी ज़मीन
जिसमें दरार है
मिट्टी वहां उदास थी
सुबह मिट्टी के बर्तन मिले
बहुत खुश थी मिट्टी वहां
अक्षय भले है मिटटी
उसके हिस्सें में भी
दुख है, खुशी है
कविताओं के आकाश में विस्तार होता है। दुख लिखा जाता है। दुख साझा होता। ये मात्र किसी एक का दुख नहीं। समूची पृथ्वी का है, हवा का है, पानी का है, मनुष्य का है, बच्चे का है। ‘हम गवाह हैं’ संग्रह की शीर्षक कविता सीधे भेदती है।
एक अस्तित्व की लड़ाई में शामिल होकर संतुष्ट है
एक हठी है
सिपाहियों को अवसर है देशप्रेम दिखाकर मर जाने का
हम गवाह हैं
हमारे होते हुए ये हो रहा है
इस कविता में कवि की बेबसी… हम सबकी बेबसी की सनद है। युद्ध कभी कोई नहीं चाहता फिर भी कुछ लोगों का अहंकार दुनिया को तबाह करने पर तुला हुआ है। युद्ध पर संग्रह में और भी कविताएँ हैं।
सभी कविताएँ किसी नयी बात की ओर ध्यान दिलाती हैं। गुलदस्ते को देखकर ब्रज जी फूलों की मजबूरियों और नासमझी पर बात करते हुए इंसानी फ़ितरत से जोड़ते हैं। कविताएँ हर पल का हिसाब होती हैं। मन के समांतर चलती हैं। जहां विश्व और समाज की फ़िक्र करती हैं, वहीं स्नेह से भरे-भरे रिश्तों की शीतल फुहारों से भी भिगोती हैं। विवाह के पूर्व बिटिया के नाम पांच छोटी कविताओं का समूह है, जिसमे बिटिया से बिछड़ने का दुख तो शामिल है, साथ ही दुआओं के साथ उसके लिए समझाइश भी है। पिता में माँ के भाव समाहित होते देखे जा सकते हैं इन कविताओं में। कुछ यंत्र, टेलीफोन, शब्द, रिश्तों के कोष्ठक में आदि कविताएँ महीन धागों से बुनी लगती हैं।
इन कविताओं के बीच में एक अलग सी कविता भी साथ होती है। पाठक की दृष्टि कहाँ तक पहुंचती है, यह उसके पाठ पर निर्भर है।
तारीख़ें समय की संतान होती हैं। कभी आत्मीय कवि के दूर जाने की टीस उजागर होती है तो कभी किसी परिवार की सामूहिक आत्महत्या कवि को बेचैन करती है। सम्भवनाओं की खोज में विचार चल पड़ते हैं। पत्थरों में तारीखों की मासूमियत दर्ज होती है। ‘भीम बैठका’ की शिलाएं उलीचती हैं मन का ग़ुबार…. ब्रज जी ओक में सम्हाल लेते हैं और लिखी जाती है कविता…. इतिहास के प्रति ये आभार भी है और अटकल भी।
बिम्ब और प्रतीक कविताओं को सजाते और संवारते हैं। कहीं भोले से प्रश्न से उभरते हैं तो कहीं मासूम सी कल्पना पर मुस्कान खिल जाती है। कवि से कवि का आत्मिक रिश्ता होता है। ये सिद्ध हो जाता है कवि द्वारा अपने आत्मीय कवि के बारे में लिखी कविता- ‘नरेंद्र जैन वाया उज्जैन: तीन कविताएँ’ पढ़कर। अंतिम पंक्तियों को देखें-
एक कवि को कोई नहीं देख पा रहा
जो जोड़ रहा है
दो शहरों को
इस तरह आवाजाही करके
इस दिन का हिसाब (जन्मदिन पर), अर्ज़ियां, हम तौला भर वायु, चमत्कार, तुम्हारी शक्ल, बाज़ार, हृदयहीन, पहले रोज़ी रोटी के लिए, तानाशाही आदि कविताओं में कवि की तीक्ष्ण दृष्टि भेदती है, तंज़ करती है तो ‘इस दिन का हिसाब’ कविता में एक शर्मीले मासूम बालक के मनोभाव हैं।
ब्रज जी की कविताएँ पढ़ते हुए महसूस हुआ कि कविता अकेली नहीं आती। अपने साथ लेकर आती है विचार, भाव, आगत, विगत, इतिहास, भूगोल सब..। कविता काफ़िला होती है जो कई पड़ावों को पार करती आती है। कभी प्रकृति में खो जाती है और कभी मौसम की व्यख्या अलग तरह से करने लगती है। ‘शीत शबाब पर’ कविता का अंश-
पूरा शहर एक फ्रीज़र में
तब्दील हो चुका है
जिसके किसी एक आले में रखे हुए हैं हम
ठिठुरते हुए एक कविता लिख रहे हैं
सभी कविताएँ पठनीय हैं। धीरे से वार करती हैं। भाषा और भाव शोर नहीं करते बल्कि हवा के झोंके की तरह अपनी उपस्थिति महसूस कराते हैं। शीर्षक उत्सुकता जगाने वाला और कविता की धमक का परिचय करवाने वाला है। ‘हम गवाह हैं’ शीर्षक कविताओं के साहस और सच को उभारता है। ‘हम गवाह हैं’ संग्रह की भूमिका वरिष्ठ साहित्यकार हरि भटनागर की लिखी हुई है। उनका कहना है- “इस प्रस्तुति में ब्रज चीख-चिल्लाहट का सहारा न लेकर समुद्र के तह में बैठी सांद्रता का परिचय देते हैं, जिसके आलोक में पाठक को यह संज्ञान हो जाता है कि कौन है जो इंसान के अंदर बैठी पीड़ा को लगातार गति दे रहा है।”
लीलाधर मंडलोई जी ने कविताओं के बारे में लिखा है- “ब्रज श्रीवास्तव समकालीन कविता के परिदृश्य में भविष्य की उम्मीद की तरह हैं”। आत्मकथ्य में ब्रज लिखते हैं- “अन्य दिशाओं में लाचारी की कैफ़ियत में मेरे लिए अभिव्यक्ति एक ठोस विकल्प है जो उमड़ते घुमड़ते विचारों की भाषाई तरतीब सहित कविता की सूरत में आ जाती है।”
सभी कविताएँ अपने सच को लेकर चमकती हैं। कभी कभी लगता है कि कविता में थोड़ा तैश भी होता, उग्रता का भी कहीं सहारा लिया जाता पर अंत तक आते आते हम कवि की बात से सहमत होते जाते हैं। ये कविताएँ होम्योपैथी की मीठी गोलियों की तरह हैं, जो स्वाद में तो मीठी लगती है पर वार सीधे बीमारी की जड़ पर करती हैं।
‘समय ही ऐसा है’
ब्रज श्रीवास्तव जी को लंबे समय से पढ़ रही हूं। उनकी किताबें ‘तमाम गुम हुई चीज़ें’, ‘घर के भीतर घर’, ‘आशाघोष’, से गुज़रते हुए जब हम ‘समय ही ऐसा है’ में प्रवेश करते हैं तब ब्रज और परिपक्व और मज़बूती से अपने रचना संसार में प्रवेश करते दिखायी देते हैं।
दरअसल देखा जाये तो कवि के अंदर एक चिंतक मूल रूप में कहीं ना कहीं जीवित होता ही है। इस संग्रह में दृश्य वास्तव में अपने इसी रूप में निखरकर आते हैं, कवि की दृष्टि अपनी तमाम रचनाओं में अपने इसी मूल स्वर को जीवित रखती है। जहां वह शीशे के माध्यम से समय को रेखांकित करते हुए अपनी एक से बढ़कर एक रचना के माध्यम से अपनी चिंता और अपना चिंतन प्रकट करते हैं।
‘चौंक जाता हूं’ और ‘उल्लू की तरह’ में वह बुरी ख़बरों के दुरागमन की बात करते हैं और ‘चूक मेरी ही थी’ से बढ़ते हुए ‘सच बोला तो’ और ‘सत्ताएं बदली तो’, ‘छठा तत्व’ नाम की एक ऐसी बेहतरीन रचना लेकर आते हैं जिसको बार-बार पढ़ने को जी चाहता है।
‘छठा तत्व’ के माध्यम कविता के दायित्व लेखन की सार्थकता और उसके चरम बिंदु की बेहतरीन बानगी प्रस्तुत करते हैं। समय से गुज़रते हुए ब्रज वर्तमान से और उसकी राह पर चलने वाले एक-एक राही से बगलगीर होते हुए उसके सुख दुख को साझा करते हैं। चाहे फिर वह त्यौहार हो, सैनिक हो मां और पिता जैसे रिश्ते हों या फिर कार, ड्राइवर जैसा एक साधारण दृश्य, जिसे वह अपनी रचना की कूची से रंग कर यह साबित कर देते हैं कि यह आवश्यक नहीं कि रचना के लिए बड़े-बड़े विषय या शिल्प को गढ़ा जाये। अपितु कविता जीवन की सरलता और एक आम नागरिक की जीवन की एक छोटी सी यात्रा के माध्यम से भी रचनाओं को बुना जा सकता है।
कवि की भाषा के माध्यम से वे व्यवस्था पर तंज़ कसते हुए चंद पंक्तियों में ही लिख देते हैं। ‘कितना अच्छा लग रहा है’ कविता के माध्यम से वह विजय को एक इतने सुंदर प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हैं कि उनकी सकारात्मक सोच के हम मुरीद हो जाते हैं। जहां विजय किसी युद्ध की नहीं अपितु एक साधारण से खेल की है और जहां खेलने वाले से लेकर उस दृश्य को देखने वाला भी उसमें शरीक है और हारने वाला अगली तैयारी मैं रत है।
इस कृति को पढ़ते हुए यह बात मुखरता से ध्वनित होती है कि इन तमाम रचनाओं का रचनाकाल मुख्यतः कोरोना काल ही रहा है। कोविड के इस काल के विषाणु ने किस तरह मनुष्य के जीवन को जकड़ लिया था और विकास की तमाम ऊंचाइयों को पाकर भी मनुष्य कितना बौना हो चुका था… ‘इतने तो अपराधी हो तुम’ रचना मनुष्य की संवेदनशीलता पर कवि की पारखी नज़र का परिणाम है, इन कविताओं को पढ़कर यह बात तो तय होती है कि कवि के सामान्य जीवन में उसकी जीवन की साधारण घटनाओं में भी दृष्टि एक रचनाकार की और वह अपनी दिनचर्या के तमाम दृश्यों में अपनी मूल चेतना से विलग नहीं हो पाता।
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