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गहन पड़ताल विवेक रंजन श्रीवास्तव की कलम से....

वैश्विक भाषाई परिदृश्य: हिंदी तथा विविध विदेशी भाषाएं

            भारतीय समाज में भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं बल्कि पहचान और स्वाभिमान का दर्पण रही है। किंतु वैश्विक परिदृश्य में देखें तो हमें अपने भाषाई गौरव के साथ उन भाषाओं की खिड़कियां भी खोलनी पड़ती हैं जिनसे अंतरराष्ट्रीय व्यापार, तकनीकी अनुसंधान और अर्थव्यवस्था प्रभावित है। अंग्रेज़ी ने विश्व भाषा का रूप ले रखा है, इसका कारण कॉमनवेल्थ राष्ट्रों में इंग्लैंड का शासन रहा। आज इंटरनेट और वैश्विक संचार की निर्विवाद भाषा अंग्रेज़ी बनी हुई है। शीर्ष वेबसाइटों का लगभग आधा हिस्सा अंग्रेज़ी में है और यही बताता है कि व्यापारिक समझौते हों, तकनीकी शोध हों या अंतरराष्ट्रीय मंच पर वार्ता, अंग्रेज़ी की उपस्थिति अनिवार्य है। इन क्षेत्रों में हिंदी में जो हो रहा है, वह मौलिक से ज़्यादा अनूदित ही है। पर नये वैश्विक समीकरण कह रहे हैं कि केवल अंग्रेज़ी पर आश्रित रहना हमें आधी दुनिया तक ही सीमित करता है। जापानी, जर्मन, रूसी और चीनी, कोरियाई भाषाएं अपने-अपने औद्योगिक गलियारों की चाबी की तरह हैं और इन्हें समझे बिना हम वैश्विक बाज़ार, तकनीक, टैलेंट निर्यात में पूरी ताक़त से भाग नहीं ले सकते।

जापानी भाषा का महत्व भारत और जापान के रिश्तों से स्पष्ट होता है। यह रिश्ता केवल कारों या मोटरसाइकिलों की कहानियों तक सीमित नहीं है, यह रोबोटिक्स, बैटरी, चिप निर्माण और आपूर्ति श्रृंखला पुनर्गठन तक फैला है। जापान ने भारत में दस खरब येन तक निवेश लक्ष्य की बात कही है और यह पूंजी तकनीकी साझेदारी का स्पष्ट संकेत है। यहां यदि कोई भारतीय युवा इंजीनियर जापानी में तकनीकी दस्तावेज़ पढ़ सकता है, गुणवत्ता प्रबंधन मानक समझ सकता है और आपूर्तिकर्ताओं से सीधे संवाद कर सकता है तो उसकी स्थिति कहीं अधिक सशक्त हो जाती है। जापानी भाषा सीखने वालों की संख्या दुनिया भर में करोड़ों तक पहुंच रही है और भारत में भी इसके जानकारों की भारी मांग है।

जर्मन भाषा यूरोपीय औद्योगिक हृदय तक प्रवेश का पासपोर्ट है। जर्मनी भारत को मशीनरी, रसायन, ऑटो घटक और नवीकरणीय ऊर्जा तकनीक का बड़ा आपूर्तिकर्ता है। वहां की विश्वविद्यालयी और औद्योगिक संस्कृति तकनीकी ज्ञान को जर्मन में ही सुरक्षित रखती है। जर्मन भाषा जानने वाला भारतीय इंजीनियर सीधे मूल मानकों और शोध पत्रों को पढ़ सकता है और यूरोपीय ग्राहकों से बराबरी के स्तर पर बातचीत कर सकता है। यही कारण है कि गोएथे संस्थान की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में करोड़ों लोग जर्मन सीख रहे हैं। यह भाषा केवल करियर ही नहीं बल्कि यूरोपीय बाज़ार में प्रवेश का पुल है।

रूसी भाषा का महत्व ऊर्जा, रक्षा और धातु उद्योग से जुड़ा है। भारत ने हाल के वर्षों में रूस से कच्चे तेल का आयात कई गुना बढ़ा लिया है। इस व्यापारिक समीकरण के बीच अनुबंध वार्ता, जहाज़रानी, बीमा और तकनीकी रखरखाव जैसे मामलों में रूसी शब्दावली का ज्ञान जोखिम कम करता है। रूस और भारत का रक्षा सहयोग भी दशकों पुराना है और रक्षा तकनीक से जुड़े दस्तावेज़ अक्सर रूसी में उपलब्ध होते हैं। दो सौ मिलियन से अधिक लोग रूसी बोलते हैं और इतना बड़ा भाषाई समुदाय भारत के लिए नये अवसर खोल सकता है।

चीनी भाषा का परिदृश्य सबसे अलग है। वैश्विक वेब पर इसकी हिस्सेदारी अंग्रेज़ी और जर्मन की तुलना में कम है लेकिन चीन के भीतर इसकी शक्ति अपार है। चीन की डिजिटल दुनिया अपने आप में एक विशाल पारिस्थितिकी है जिसमें आपूर्तिकर्ता, सरकारी नियम और उपभोक्ता बाज़ार सब चीनी भाषा में चलते हैं। भारत और चीन के बीच संबंध जटिल हैं, निवेश पर कई प्रतिबंध भी हैं, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक्स, रसायन और पूंजीगत वस्तुओं में चीन की हिस्सेदारी इतनी बड़ी है कि उसके बिना चलना कठिन है। ऐसे में कोई भारतीय व्यापारी यदि चीनी जानता है तो वह सीधे निर्माता से बात कर सकता है, लागत का आकलन बेहतर कर सकता है और अनुबंध वार्ता में अपने पक्ष को मज़बूत बना सकता है।

भाषाई दक्षता की अहमियत

इन भाषाओं का महत्व केवल सांस्कृतिक जिज्ञासा तक सीमित नहीं है, यह सीधे व्यापारिक लाभ में बदलता है। भारत के प्रमुख निर्यात गंतव्यों में अमेरिका, यूरोप और एशिया शामिल हैं। जापान और जर्मनी के साथ व्यापारिक तालमेल लगातार बढ़ रहा है और रूस से ऊर्जा आयात ने व्यापारिक ढांचे को नया रूप दिया है। सेवा क्षेत्र में भारत दुनिया का अग्रणी है और यहां भाषाई दक्षता तकनीकी क्षमता के साथ मिलकर मूल्यवर्धन कई गुना बढ़ा देती है। अमेरिका की सिलिकॉन वैली में भारतीय टेलेंट का दबदबा इसलिए बना क्योंकि हमारे युवा अंग्रेज़ी में स्वयं को संप्रेषित करने में सक्षम थे।

तकनीकी उद्योग में अंग्रेज़ी की भूमिका निर्विवाद है लेकिन जब हम प्रोजेक्ट प्रबंधन और ग्राहक आवश्यकताओं की बारीकियों तक पहुंचते हैं तो स्थानीय भाषा का महत्व सामने आता है। जापानी या जर्मन बोलने वाला प्रोडक्ट मैनेजर ग्राहकों की सूक्ष्म अपेक्षाओं को समझ सकता है जिन्हें अंग्रेज़ी अनुवाद में अक्सर खो दिया जाता है। वेब पर भाषाई रुझान भी यही बताते हैं कि जर्मन और जापानी की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है और इन भाषाओं में उपलब्ध तकनीकी सामग्री का उपयोग भारतीय पेशेवरों को अतिरिक्त विश्वसनीयता देता है।

श्रम बाज़ार में भाषा एक प्रकार का प्रीमियम बन चुकी है। जर्मन जानने वाला इंजीनियर यूरोपीय ग्राहकों से सीधे जुड़ सकता है, जापानी जानने वाला सप्लाई चेन विशेषज्ञ जापान के कारखानों में लागत कम करने में मदद कर सकता है, रूसी जानने वाला ऊर्जा विश्लेषक तेल और गैस अनुबंधों की बारीकियां समझ सकता है और चीनी जानने वाला सोर्सिंग मैनेजर शेनझेन जैसे केंद्रों में सीधे खरीद कर सकता है। कोरियन व्यापार में उनकी भाषा का ज्ञान अतिरिक्त लाभकर होता है। यह भाषाई दक्षता केवल नौकरी दिलाने तक सीमित नहीं है बल्कि बेहतर अनुबंध और जोखिम प्रबंधन में भी मददगार है।

यह भी ध्यान देना होगा कि भाषा सीखना केवल ट्यूशन फ़ीस भरने की बात नहीं है। इसके लिए समय, अभ्यास और निरंतरता चाहिए। इसलिए सही रणनीति यही है कि हिंदी और अंग्रेजी को आधार बनाते हुए हर विद्यार्थी या पेशेवर अपनी रुचि और उद्योग के अनुरूप एक या दो विदेशी भाषाएं भी सीखें। जो लोग ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स और रोबोटिक्स में जाना चाहते हैं उनके लिए जापानी उपयुक्त है, जो मशीनरी, पर्यावरण तकनीक और अनुसंधान में जाना चाहते हैं उनके लिए जर्मन उपयोगी है, ऊर्जा और रक्षा के क्षेत्र में रूसी की मांग है और ई कॉमर्स तथा उपभोक्ता वस्तुओं में चीनी का ज्ञान व्यावहारिक लाभ दे सकता है।

अवसर के नये द्वार

डिजिटल उपस्थिति के दृष्टिकोण से देखा जाये तो जर्मन और जापानी का महत्व बढ़ रहा है। इन भाषाओं में उपलब्ध स्थानीय फोरम और मानक दस्तावेज भारतीय उद्यमियों को अंग्रेज़ी वेब की सीमाओं से परे वास्तविक मांग और ट्रेंड्स समझने में सक्षम बनाते हैं। जापानी उपभोक्ता फोरम पर शिकायतें किसी नए उत्पाद के डिजाइन को दिशा दे सकती हैं, जर्मन उद्योग संघों के न्यूज़लेटर समय रहते मानकों में बदलाव की जानकारी दे सकते हैं और चीनी आपूर्तिकर्ताओं की ऑनलाइन चर्चाएं लागत व समय की सटीक जानकारी दे सकती हैं।

भाषा आज केवल सांस्कृतिक आदान प्रदान का माध्यम नहीं रही, यह प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त का औज़ार बन चुकी है। जापान, जर्मनी, रूस और चीन के साथ भारत के संबंध इस समय निर्णायक मोड़ पर हैं। निवेश, तकनीकी सहयोग और ऊर्जा व्यापार की नयी संभावनाएं खुल रही हैं और इन सबकी नींव भाषाई संवाद पर टिकी है। विश्वविद्यालयों और कौशल केंद्रों को अंग्रेज़ी के साथ इन भाषाओं के प्रशिक्षण मॉड्यूल शामिल करने चाहिए। उद्योग केंद्रित शब्दावली और प्रोजेक्ट आधारित अभ्यास छात्रों को तुरंत कामकाजी स्तर की दक्षता देगा।

यदि हिंदीभाषी वैश्विक पकड़ बनाना चाहते हैं, तो अंग्रेज़ी की मज़बूती के साथ जापानी, जर्मन, रूसी और चीनी, कोरियन भाषाओं में लक्षित दक्षता बड़ी उपलब्धि बन सकती है। ये भाषाएं बड़े औद्योगिक द्वार खोलती हैं और इनसे सुसज्जित भारतीय छात्र और पेशेवर विश्व मंच पर बराबरी से भाग ले सकते हैं। आंकड़े और अनुभव यही बताते हैं कि बहुभाषी भारत ही बहुध्रुवीय दुनिया में स्थायी जगह बना सकता है और हर नयी भाषा का एक नया शब्द हमारे लिए अवसर का नया द्वार खोलता है।

साहित्य में स्थिति देखें तो स्पष्ट है कि हिंदी अनुवाद में इन भाषाओं का द्विपक्षीय समावेश ज़रूरी है। इस हिंदी दिवस को हमें, हिंदी को भाषाई सामंजस्य, अनुवाद और व्यापार की सोच के साथ वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने हेतु सोच विकसित करनी होगी। कार्पोरेट जगत भाषाई समर्थन से व्यापार और टैलेंट निर्यात के नये द्वार खोल सकते हैं। अनुवाद, शैक्षिक सुविधा का विस्तार इस दिशा में पहला चरण होगा।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, vivek ranjan shrivastava

विवेक रंजन श्रीवास्तव

सेवानिवृत मुख्य अभियंता (विद्युत मंडल), प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, नाटक लेखक, समीक्षक, ई अभिव्यक्ति पोर्टल के संपादक, तकनीकी विषयों पर हिंदी लेखन। इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के फैलो, पोस्ट ग्रेजुएट इंजीनियर। 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी ब्लॉगर, साहित्यिक अभिरुचि संपन्न, वैश्विक एक्सपोज़र।

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