हिन्दोस्तानी भाषा और डॉ. अख़्तर नज़्मी
पाक्षिक ब्लॉग सलीम सरमद की कलम से....

हिन्दोस्तानी भाषा और डॉ. अख़्तर नज़्मी

महात्मा गांधी ने भाषा के मध्यम मार्ग को खोज लिया था, वो उसको हिंदी नहीं… हिन्दोस्तानी कहते थे। भाषाई सियासत ने हमारी बोलियों का बहुत नुक़सान किया है और एक ख़ूबसूरत लिपि (उर्दू) को भी अछूत बना दिया। इसी उर्दू के प्रोफ़ेसर थे- डॉ. अख़्तर नज़्मी… उनके कुछ अशआर पर एक निगाह डालते हुए आगे बढ़ते हैं।

अगर मानूस (परिचित) है तुमसे परिंदा

तो फिर उड़ने को पर क्यों तौलता है

जो भी रहा हो, उसका मैं अहसानमंद हूँ

क़ासा कुचल के हाथों को आज़ाद कर गया

रात पर दिन का कोई क़र्ज़ नहीं

ज़ेह्न को साफ़ रख के सोया कर

बसायें या न बसायें कोई नयी बस्ती

मगर ये लोग पुराने क़िले को ढा देंगे

हरेक काम सलीक़े से बांट रक्खा है

ये लोग आग लगाएंगे, ये हवा देंगे

उर्दू को लेकर सियासत करने वाले उर्दू के जादू से कैसे भी बचकर निकलना चाहते हैं, गांधी अगर होते तो इन बेचारों से ये ज़रूर कहते कि भाई जिसे तुम उर्दू का जादू समझ रहे हो, वो अस्ल में तुम्हारी ही अपनी भाषा है- हिन्दोस्तानी है… इसे अपना लो, इससे दूर मत भागो, इसके तलफ़्फ़ुज़ को सीख लो, तुम इस भाषा के जादू का आनंद ले सकते हो।

छांव तो छिन ही गयी हमसे चिनारों वाली

अब इसी नीम के साये को घना रखना है

वो अंजाम का मौसम है नज़र में है मगर

कुछ दिनों और मुझे ख़ुद को हरा रखना है

ख़ैर न हिंदी ख़त्म हुई और न ही उर्दू पर कोई आंच आयी, दोनों ही हिन्दोस्तानी भाषा की शक्ल में एक नज़र आ रही हैं। गांधी इसी साझी भाषा की बात करते थे, जो अवाम की ज़बान है। क्या इस आम-फ़हम ज़बान में, इस आसान भाषा में शायरी हो सकती है? शायरी आम-फ़हम ज़बान में होनी चाहिए मगर उसे शायरी की शर्त को मानना होगा- उसे तहदार मानवियत (अर्थपूर्णता) से आरास्ता (सुसज्जित) होना पड़ेगा। 

जिसका ख़तरा था हो रहा है वही

मैं न कहता था, ये मकान न ले

जो भी कहता है कर गुज़रता है

वो ग़लत बात दिल में ठान न ले

नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने

अब समंदर की ज़िम्मेदारी है

बेच डाला है दिन का हर लम्हा

रात थोड़ी बहुत हमारी है

अक्सर शायर एक जैसी बातों को नये-नये कलेवर से ढंककर पेश करते हैं, जिससे उनके शेरों का कहन, उसकी शैली, उसका दर्शन ज़ाहिर होता है मगर अख़्तर नज़्मी की मौज़ूआत पर पैनी नज़र है, उनमें विविधता है इसी कारण उनके हर शेर, हर ग़ज़ल को एक से अधिक बार पढ़ने का मन करता है।

वो ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता

तो ये किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं न दीं

उड़ी थी बात मगर दब दबा गयी नज़्मी

शरीफ़ लोग थे अफ़वाह को हवाएं न दीं

लड़की है इस उम्र में उसकी अपनी भी उलझन होगी

हंसते हुए शायद ही जागे रोते रोते सोई है

हीरे जैसी चीज़ है सब मसरूफ़ हैं छीनाझपटी में

वो बेचारा दूर खड़ा है जिसकी अंगूठी खोई है

इस रसोईघर को बन जाने तो दो

घर का हर बर्तन नया हो जाएगा

उनका ढंग उपदेशात्मक नहीं है, उनमें गहरी दार्शनिकता भी नहीं है, कोई क़लंदरी नहीं है, उनके पास फ़क़ीर की आवाज़ भी नहीं है इसलिए उनके शेर बातचीत के बीच में उद्धृत नहीं किये जाएंगे लेकिन वो हर एक समय के ज़रूरी शायर हैं, जिनकी शायरी पढ़कर मनोवैज्ञानिक दशा स्थिर की जा सकती है, चिंतन की सतह को मज़बूत किया जा सकता है। डॉ. अख़्तर नज़्मी अंधेरे, उजाले, दिन, रात, घर, सफ़र, जंगल, चेहरा, आईना जैसे रूपकों से हिन्दोस्तानी भाषा में अपनी शायरी करते हैं।

मैं किसी शख़्स से मिलने पे तो मज़बूर नहीं

आप कहते हैं कि अच्छा है तो अच्छा होगा

ये कौन जानता है कि दिल क्यों उदास है

इस लम्हे का हिसाब तो मेरे ही पास है

पेड़ किस रुत में हरा होता है

ख़ुश्क पत्तों को पता होता है

जो भी जिसके क़रीब आएगा

फ़ायदा तो ज़रूर उठाएगा

डंक मारे बहुत अंधेरों ने

अब तो डसने लगा उजाला भी

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

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