javed akhtar poetry

जावेद अख्तर विरोध… उर्दू के माथे पर ‘टोपियां’ कलंक

 

             जावेद अख़्तर का विरोध कुछ कट्टरपंथी धार्मिक संगठन (जमीयत उलेमा-ए-हिंद) करते हैं और पश्चिम बंगाल की उर्दू अकादमी कार्यक्रम ही मुल्तवी कर देती है। वजह भी ठीक-ठीक, साफ़-साफ़ नहीं बताती। ज़ाहिर है सरकार के इशारे के बग़ैर यह मुमकिन नहीं। इस एक घटना से अदबी घेरे में और सामाजिक ताने-बाने के घेरे में कई सवाल खड़े हुए हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि भाषा पर जाहिलाना सियासत से दुर्गति क्या होती है? और यह भी कि साहित्य और कला की ‘स्वायत्त’ संस्थाओं पर सरकारों का नियंत्रण क्यों? कहां तक? कितने राज्यों में ये संस्थाएं सचमुच ‘स्वायत्त’ रह गयी हैं? कठपुतलियां मात्र नहीं?

दूसरी तरफ़ क्या जावेद अख़्तर काफ़िर हैं? क्या उर्दू मुसलमानों की भाषा है? क्या बानू मुश्ताक की पहचान बस मुसलमान की है? कोलकाता में जमीयत वालों के विरोध पर जावेद अख़्तर का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया तो कर्नाटक में कुछ हिंदूवादी संगठन दशहरे पर बानू मुश्ताक को बुलाये जाने के विरोध में खड़े हैं। वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार प्रियदर्शन ने अपनी टिप्पणी में इन बिंदुओं पर विस्तार से बात रखी।

आब-ओ-हवा के पाठकों के लिए इस प्रस्तुति का मक़सद यही है कि इस एक घटना से जो अनेक पहलू और प्रश्न उठ खड़े हुए हैं, जिन पर विचार किया जाना चाहिए, ऐसे कुछ अभिमतों को यहां रखा जाये। एक बड़ी बहस और एक बड़े विरोध तक बात पहुंचे, इसके लिए ज़रूरी है कि हम और आप बड़ी तस्वीर के तमाम बिंदुओं से वाकिफ़ होना शुरू करें… सोशल मीडिया से महत्वपूर्ण टिप्पणियों के अंश।

javed akhtar event in bengal

उर्दू का ठेकेदार कौन?

“पढ़ने और लिखने वाला एक बहुत सुलझा हुआ वर्ग है, जो इन घटनाओं की ऑप्टिक्स पर थोड़ा अधिक सावधान रहेगा। इस्लामी संगठनों का उर्दू से क्या लेना-देना? और उर्दू अकादमी को इस्लामी संगठनों के विरोध से क्या लेना-देना?

ये समस्याएँ और ये एतराज़ उर्दू को बिल्कुल वहाँ ले जाकर रख देते हैं, जिससे वो अपने आप को बाहर लाना चाहती है। ‘द वायर’ (उर्दू) का कार्यक्रम होता है तो वह फ़िलिस्तीन पर कार्यक्रम करता है! क्या ज़रूरत है ‘द वायर उर्दू’ को फ़िलिस्तीन पर कार्यक्रम करने की?! ‘द वायर’ अपने पत्रकारिता के सेमिनार में मणिपुर और तमिलनाडु और हिमाचल पर क्यों नहीं करता कार्यक्रम? आप उर्दू में हैं तो फ़िलिस्तीन पर कार्यक्रम करेंगे?

यही उर्दू अख़बारों का हाल है (हिंदी भी पीछे नहीं है लेकिन अब वह मामूल है) जहाँ कुछ पृष्ठों पर नमाज़, इस्लाम और दुनिया भर की दीनी-मज़हबी बातें रहती हैं? क्यों, क्योंकि आप उर्दू के अख़बार हैं? मुशायरों में नात और हम्द क्यों पढ़ी जा रही है? उर्दू जनभाषा है, सबकी भाषा है और इसी देश में हमारे बुज़ुर्गो के बीच बनी भाषा है। लेकिन उसको जा-जाकर मौलानाओं की गोद में बैठा देते हैं।

फ़िलिस्तीन पर बात उर्दू में कीजिए, उर्दू के बहाने मुसलमानों को लाइए साथ अपने। उसमें भी वही घिसे-पिटे चार-पाँच शायरों का ढोल पीटते रहिए। यह रवैया है इसीलिए इस्लामी संगठन जावेद अख़्तर को ‘अपनी वाली’ उर्दू से बाहर रखते हैं। मज़े की बात है कि एक ज़माने में बंगाल (पूर्वी) ने अपनी ग्राउंडिंग ही उर्दू विरोध में खोजी थी और बांग्ला को अपना परचम बनाया था। इस्लामी संगठन उर्दू के ठेकेदार नहीं हैं न कोई संगठन हिंदी-संस्कृत का ठेकेदार है।”

निशांत कौशिक

“यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में मुस्लिम कट्टरपंथी इतने शक्तिशाली हैं कि वामपंथी दल उनका सामना नहीं कर सकते…”

असग़र वजाहत

टोपी जितनी ऊँची दिमाग़ उतना ही..

“जावेद अख़्तर साहब उर्दू के ज़बरदस्त शायर हैं। जावेद साहब ने रोज़ी रोटी के लिए उर्दू ज़बान की ख़िदमत का रास्ता चुना और कामयाब रहे.. अक्सर उर्दू पर इल्ज़ाम लगता है कि ये तो मुसलमानों की ज़बान है। जवाब में हम किशन चंदर से लेकर रघुपत सहाय “फ़िराक़” गोरखपुरी जैसे अनगिनत क़लमकारों को ला खड़ा करते हैं। जिसके ज़रिये उर्दू की हिन्दुस्तानी पहचान मज़बूत होती है। फिर ख़बर आती है बंगाल में उर्दू के ख़ैरख़्वाह ऊँची टोपी वाले मुसलमानों के रहनुमाओं ने जावेद अख़्तर को बंगाल उर्दू एकेडमी के एक प्रोग्राम में दावत देने का विरोध किया। क्यों! क्योंकि वो नास्तिक हैं।

फ़िलहाल इससे ये तय बिल्कुल नहीं हुआ कि जावेद साहब की उर्दू ख़राब है और इस्लाम के ठेकेदारों की बढ़िया। ये ज़रूर पता चला कि टोपी जितनी ऊँची हो दिमाग़ उतना हल्का हो जाता है।”

इक़बाल अहमद

“पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी द्वारा मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों के इशारे पर आयोजित कार्यक्रम को रद्द करना, क्योंकि जावेद अख़्तर साहब को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था, बेहद परेशान करने वाला और अस्वीकार्य है। यह यह भी दर्शाता है कि कट्टरपंथी, चाहे हिंदू हों या मुसलमान, तर्क की आवाज़ों को दबाने के लिए समान रूप से प्रतिबद्ध हैं। वे तर्क की सबसे दृढ़, स्पष्ट, प्रखर और रचनात्मक आवाज़ों में से एक हैं और पूरा देश उन्हें सुनने के लिए हमेशा उत्सुक रहता है।”

गौहर रज़ा

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“जैसा कि हमने सुना धर्म के ठेकेदारों ने, कठमुल्लों ने जावेद अख़्तर जी को इस्लाम का विरोधी बोला। जावेद अख़्तर जी किसी धर्म को ज्यादा तवज्जो नहीं देते क्योंकि वो ख़ुद को नास्तिक समझते हैं और विज्ञान को महत्व देते हैं। ये विरोध जावेद अख़्तर जी का नहीं विज्ञान का विरोध है।”

इश्ताक शहडोली

“जावेद अख़्तर स्वतंत्र सोच रखने वाले व्यक्ति हैं न वो राजनीति के दायरे में बंध पाते हैं न धर्म के… ऐसा खतरा कौन उठाना चाहेगा…”

आदित्य

“कट्टरपंथ इस देश को घुन की तरह खा जाएगा। जावेद अख़्तर का प्रोग्राम बंगाल में मुस्लिम कट्टरपंथियों ने कैन्सल करवा दिया? ठीक वैसे ही जैसे हिन्दू कट्टरपंथी दूसरे राज्यों में लिबरल लोगों के प्रोग्राम कैंसल करवाते हैं।”

अशोक कुमार पांडेय

“विरोध का स्वर इतना बुलंद नहीं था कि उसे रोका नहीं जा सकता था लेकिन सरकार आगामी साल विधानसभा चुनाव में कट्टरपंथियों की नाराज़गी नहीं उठाना चाहती थी। वोट के लालच में सरकार भूल गयी कि उर्दू अकादमी एक साहित्यिक संस्था है, धार्मिक नहीं। धर्म हर किसी का व्यक्तिगत मामला होता है, कोई साहित्यकार आस्तिक है या नास्तिक इससे अकादमी को फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। अकादमी के इस फ़ैसले से बंगाल के अदीबों में मायूसी छा गयी लेकिन चंद लोगों के अलावा किसी ने खुले तौर पर विरोध नहीं किया क्योंकि उन्हें भविष्य में अकादमी द्वारा किसी आयोजन में शामिल न किये जाने का ख़ौफ़ खा गया।”

ग़ज़ाला तबस्सुम

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