विक्रम सिंह., vikram singh
विक्रम सिंह लिखित कहानी "प्रोफ़ेसर की हत्या" की मज़बूत नींव उसके आरंभ में ही है। हिंदी कहानी में नया-सा अलग हटकर प्रयोग किया है, जो कथा-घटित के प्रति, पात्रों के प्रति सम्मोहन का जाल रचता है। पाठक पल भर को भी लेखक का साथ नहीं छोड़ सकता। अंग्रेज़ी जासूसी उपन्यासों में ऐसी शुरूआत अक्सर मिलती है। हिंदी कहानी में यह प्रयोग स्वागतेय है। - शशि खरे (संपादक-कथा प्रस्तुति)

कहानी :- एक प्रोफेसर की हत्या

            मैं यह पहले ही बता देना चाहता हूं कि यह कोई कहानी नहीं, कोरी कल्पना है। इसका वास्तविक घटना से कोई लेना-देना नहीं है। उसके बाद भी आपको कहानी पढ़ते-पढ़ते कहानी के मध्य में या समाप्ति पर यह महसूस होने लगेगा कि यह तो वही घटना है, जो कुछ समय पहले महानगर में घटी थी। जिसकी चर्चा चाय-पान की दुकान से लेकर कॉलेज-स्कूल, साहित्य और सिनेमा के गलियारों में और महानगर के अख़बारों के पन्नों पर भी तैर रही थी। आपको बताता चलूं कि उस घटना का एकमात्र दोषी मैं ही हूं। उसकी मौत का ज़िम्मेदार भी मैं ही हूं। मौत इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पुरी दुनिया की नज़र में यह हत्या नहीं बल्कि आकस्मिक मृत्यु है। पर मेरी नज़र में यह हत्या है। मेरी बातों से आप सबको लग रहा होगा कि मैं भी कैसा पागल आदमी हूं।

चलिए, मैं आपको पहले अपना परिचय दे देता हूं, ताकि आप मेरी कहानी में निहित सच को समझ जाने के बाद मुझे पागलों में गिनना छोड़ दें। जैसा कि परिचय में सबसे पहले नाम बताया जाता है तो मेरा नाम डॉ. शिवशंकर सिंह है। मैं जाति से राजपूत हूं। अपने आपको मैं राजपूत इसलिए बता रहा हूं क्योंकि मैं सामान्य कैटिगरी से आता हूं। वैसे मैंने अपने जीवन में एक मच्छर तक नहीं मारा है। हो सकता है कि मेरी तरह आप भी न मार पाये हों, क्योंकि आप भी मेरी तरह मच्छरदानी लगाकर ही सोने के आदी होंगे। आप यह भी जान लें कि मैं शाकाहारी नहीं हूँ। बहुत बार कोशिश करके भी नहीं हो पाया। मुँह का स्वाद हमेशा मेरी चेतना पर भारी पड़ा। अंडा, मुर्गा, मछली, बकरा सब खाया। खूब चाव से खाया, लेकिन मैं इन सबका हत्यारा नहीं हूं क्योंकि उनकी हत्या बूचड़ख़ाने में हुई थी। मैंने सिर्फ़ मांस पका कर खाया था, पर जैसा कि मारने वाले से ज्यादा दोषी मांस खाने वाला होता है।

उसी तरह मेरा मित्र अश्वनी, जिसका आज ही दाह-संस्कार करके कोलकाता से लौट रहा हूं… हाँ! वही कोलकाता शहर जो कभी कलकत्ता हुआ करता था। मुझे यह महानगर कभी पसंद नहीं आया। ख़ैर! अब मेरा कोलकाता आना हमेशा के लिए छूट जाएगा। गर्मी में पसीने से कई-कई बार नहाना पड़ जाता है। उस पर लोगों और गाड़ियों की भीड़भाड़। भारी शोरगुल से तो जैसे दम ही घुटने लगता है। मन करता था कब इस शहर को जल्दी छोड़कर वापस अपने रानीगंज चला जाऊं। रानीगंज एक छोटा सा शहर था। यहाँ वो सब कुछ उपलब्ध नहीं था जो कोलकाता में था। सुकून नहीं था कोलकाता में। वैसे कोलकाता में क्या नहीं है? इस भीड-भाड़ से इतर कोलकाता वस्त्रों की विविधता और प्रचुर उपलब्धता के लिए प्रसिद्ध है। यहां रेशम, तांत और सूती साड़ियों की विविधताओं में उपलब्ध हैं। नायलॉन, खादी, ढाकाई हथकरघा और बनारसी साड़ियों की कई क़िस्में यहां उपलब्ध रहती हैं। कोलकाता जब भी आता था तो मित्र के साथ बाज़ार जाकर पत्नी के लिए सूती साड़ियां ज़रूर खरीद ले आता था।

जिस शहर में मेरा मन नहीं लगता था, उसी शहर में हर दिन ट्रेन भर भर कर लोग काम करने आते थे। फिर शाम को लौट जाते थे। इस आवाजाही में मुश्किल से वो अपने घर में छह घन्टे से ज्यादा नहीं रह पाते होंगे। इन सब बातों को अगर छोड़ दूं तो आख़िर मैं कोलकाता क्यों आता था और क्यों मेरा मन वहां लग जाता था? कोलकाता में बस मेरा यार अश्वनी था। आज वह भी हम लोगों को छोड़कर चला गया। एक दुर्घटना ने उसकी जान ले ली। जिसे सब एक दुर्घटना मान रहे हैं, दरअसल वह दुर्घटना नहीं है। निश्चित रूप से हत्या है, जिसका दोषी मैं हूं। मैं जानता हूं, आप सब मुझे अभी भी पागल ही समझ रहे होंगे। चूंकि मैं आपको अपना परिचय बता रहा था, जो अधूरा रह गया है। मैंने हिंदी में पीएचडी कर रखी है इसलिए मेरे नाम के पहले डॉ. लगा हुआ है अर्थात मुझे डॉ. की उपाधि मिली है। मैंने अपने जीवन में कई कहानियाँ और लघुकथाएं लिखी हैं। इसके बावजूद मैं प्रोफ़ेसर नहीं बन सका। पूरी जिंदगी स्कूल में पढ़ाता ही रह गया। अच्छा कहानीकार होने के कारण भी स्कूल में मेरी अवहेलना होती रही। स्कूल तो छोड़िए, घर में भी यही हाल था क्योंकि मैं अन्य टीचरों की तरह पढ़ाकर लाखों रुपये नहीं कमा रहा था। ऐसा भी नहींं कहूंगा कि पढ़ाने की इच्छा नहींं थी। इसकी कोशिश भी की पर हर बार कोई न कोई कहानी मेरे दिमाग़ में चलने लगती और सुबह-शाम टाइपराइटर पर कहानियाँ टाइप करता रहता। मेरे पास यही वो समय था, जब मैं लिख-पढ़ और बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकता था। किसी ने सही कहा कि एक वक़्त में एक ही काम हो सकता है। सो मैंने एक ही काम चुना लिखने का। हमेशा वही काम करो जो मन का हो। पर तमाम अमूल्य कहानियाँ लिखने के बाद भी मेरा परिवार और समाज मुझे नहीं समझ सका, क्योंकि आज की दुनिया में जीवन की हर उपलब्धि को पैसे से ही मापा जाता है। मैं उस उपलब्धि को अपने लेखन से अर्जित नहीं कर पाया, जिसे फ़िल्मस्टार और क्रिकेटर सहज ही प्राप्त कर लेते हैं।

पर मुझे इसका मलाल नहीं है, क्योंकि ट्यूशन न पढ़ाने की वजह से ही मैं अपने बच्चों को पढ़ा पाया और आज मेरे दोनों बेटे सरकारी अफ़सर हैं। जीवन में मैं इस बात से ख़ुश था, पर धीरे-धीरे जीवन में दुःखों के कई पहाड़ मुझ पर टूटने लगे। सबसे बड़ा दुख तो मुझे मेरे मित्र के दुनिया छोड़ जाने पर लगा।

वैसे मैं दुखी तो बचपन से ही रहा हूं। पांच साल की उम्र में मां छोड़कर चली गयी। मां और पापा में उस दिन किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था। मां बहुत ग़ुस्से में आ गयी। मां कहने लगी कि “मैं जान दे दूंगी”। पापा ने बस यह कह दिया, जान देना आसान है क्या? बस पापा ने यहीं ग़लती कर दी। मां ने उस दिन अपने शरीर पर किरासन तेल छिड़ककर अपने आपको आग के हवाले करके यह साबित कर दिया कि जान देना बहुत आसान काम है। लव और कुश जैसे दो छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर मां चली गयी।

पापा को हम दो भाइयों को पालने के लिए दूसरी शादी करनी पड़ी। सौतेली मां के प्यार और सगी मां के प्यार में क्या फ़र्क होता है, इसके बाद ही पता चला। इसके पहले मैं मां को सिर्फ़ मां ही समझता था। दुनिया की हर मां को एक जैसा ही समझता था। धीरे-धीरे मुझे समझ में आने लगा कि कोख से जन्म दी हुई मां और सौतेली मां में एक बड़ा फर्क होता है। उसी भंवर में मैं फॅंस गया था। मां कोई ऐसी वस्तु तो नहीं कि बाजार जाकर दूसरी बदल लाता। कई बार मां की शिकायत पापा से करने की कोशिश भी की, पर हर बार पापा और मां के आपसी प्यार और तालमेल को देख मैं चाह कर भी कुछ नहींं कर पाया। मगर शायद पापा सब कुछ समझते थे। कई बार वो मुझे हाट-बाज़ार साथ ले जाते और पूछते, “दूसरी मां प्यार करती है न तुझे”।

मैं अक्सर ख़ामोश रहता। फिर पिता मेरी ख़ामोशी से सब कुछ समझ जाते। हम दोनोें की ख़ामोशी का तालमेल मां को हम दोनों के साथ रखे हुआ था। इसी ख़ामोशी की वजह थी कि आज मेरे सौतेले भाइयों ने मुझे ज़मीन से बेदख़ल कर दिया है। ज़मीन पर दावा करने का मतलब है, उनसे लड़ाई-झगड़ा, कोर्ट-कचहरी। अगर मैं इन झंझटों से दूर न रहता तो अपने उपन्यास और कहानियों को पूरा न कर पाता। गांव और भाइयों से दूर होने का फ़ैसला भी मेरा और पिताजी का था। दसवीं के बाद बारहवीं की पढ़ाई के लिए मैं भागलपुर हॉस्टल में चला गया। यहां मैं अपने दोस्तों में रम गया। नये-नये दोस्त बन गये।गांव बहुत कम जाता। पिताजी ही मुझसे मिलने आ जाया करते। बी.ए. पास करके एम.ए. में आ गया। यहीं मेरी दोस्ती अश्वनी से हुई थी। उसके पहले मेरा मित्र यतीश हुआ करता था। यतीश अक़्सर अश्वनी के बारे में मुझसे कहा करता था- “एम.ए. में एक नया दोस्त बना है, जो बहुत ही जीनियस है, बहुत ही अच्छा लड़का है।” यतीश ने मेरा परिचय अश्वनी से कराया। फिर मेरी भी वही राय थी जो यतीश की थी। उसमें सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि वह निजी प्रसंगों पर बात न के बराबर करता था, ख़ासकर उन बातों से परहेज़ करता था, जिनमें किसी की बुराई होती हो या ईर्ष्या की झलक मिलती हो। मुझे कोई ऐसी बातचीत याद नहीं है, जिसमें उसने किसी की निंदा की हो।

सबसे ख़ास तो यह था कि उसके चरित्र से उसका चेहरा भी मिलता था। गोरे चेहरे पर घनी काली दाढ़ी, सिर पर घने बाल। उसके चेहरे की चमक किसी को भी अपनी ओर खींच लेती थी। अश्वनी की अपनी विशेषता रही है कि वह जहां भी रहा, उसने शत्रु कम और मित्र अधिक बनाये। छात्र जीवन से लेकर अब तक हम मित्रों के बीच जाति-धर्म की भावना कभी आड़े नही आयी और न तो हम लोगों ने किसी दूसरे के साथ कोई भेदभाव किया। सबसे बड़ी बात कि हमारा पारिवारिक संबंध बहुत दृढ़ था। हमारे साथ-साथ हमारे बच्चे भी आपस में ख़ून के रिश्तों की तरह जुड़ गये थे।

हमारी दोस्ती की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि हम लोग एक दूसरे की टांग खींचने का भरपूर आनंद लिया करते थे। अश्वनी कहता भी था- “तुम लोग मेरी गोदी में बैठकर मेरी दाढ़ी नोचते रहते हो, क्या मुझे पता नहीं है?” इतना ज़िंदादिल इंसान आख़िर ऐसी मौत मरेगा, यह कौन सोच सकता था। सुबह बेटा रसोई में चाय बनाने गया। जैसे ही उसने गैस ऑन किया कि फिर रसोई में आग ही आग के सिवा कुछ नहींं था। यह देख मित्र अश्वनी बेटे को बचाने के लिए आग में कूद कर बेटे को बाहर ले आया। पर आग में वो भी आधा झुलस गया। तत्काल चारों तरफ हो-हल्ला मच गया और आनन-फ़ानन में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया।

चूंकि अश्वनी एक कवि था। कोलकाता के सभी साहित्यिक मित्र मदद के लिए अस्पताल पहुंच गये। सूचना मिलते ही मैं रेलवे स्टेशन पहुंच गया। जो ट्रेन मिली, उसी पर सवार हो गया। वैसे एक बात थी- रानीगंज से कोलकाता जाते वक़्त ट्रेन में तरह-तरह के व्यंजन बेचने वाले आते। ख़ासकर ट्रेन में कचौड़ी, समोसा, प्याज़ साथ में खीरा और उबले हुए अंडे। अक्सर जब भी कोलकाता जाता तो ट्रेन में कचौड़ी-समोसा का नाश्ता करता था। ऐसा नहींं था कि रानीगंज शहर में कचौड़ी-समोसा नहीं मिलता था। पर ट्रेन के अंदर बड़े- बड़े साइज के कचौड़ी-समोसा की बात ही अलग थी। ख़ैर! मैं भी किन बातों में आप सबको उलझा रहा हूं। पर आज इच्छा हो रही है कि आप सबको अपने दिल की सारी बात बता डालूं। सच कहूं तो इन सबकी वजह भी मैं ही हूं और असली दोषी भी।

ख़ैर! मैं अपने आपको अगर दोषी मान भी लूं तो मैं अपने आपको क्या सज़ा दे सकता हूं?
वैसे भी तो डिप्रेशन और नींद की गोलियां खाकर ही सो पा रहा हूं। बड़े बेटे का अपाहिज पैदा होना। छोटे का दारू पीकर शरीर को नष्ट करना। कुछ दिन पहले ही वह हॉस्पिटल में एडमिट हुआ था। गांव से भाइयों का मुझे ज़मीन-जायदाद से बेदख़ल करना मुझे बुरी तरह तोड़ गया है। कई-कई दिनों तक मैं लोगों का फ़ोन नहीं उठाता। कई बार तो मैं मोबाइल भी स्विच ऑफ़ करके रख देता हूं। मित्रों की मुझसे बहुत शिकायत रहती है कि तुम्हारा फ़ोन नहीं लगता और लगता भी है तो तुम उठाते नहीं। आख़िर कौन मेरी चिंता को बांट लेगा या कम कर देगा? आख़िर कौन मेरे कष्ट को दूर कर सकता है?

तीस साल तक स्कूल टीचर की नौकरी की। अपने क्षेत्र का अच्छा कथाकार होने के बावजूद न तो स्कूल के प्रिंसिपल ने और न ही शिक्षकों ने मेरी कोई इज़्ज़त की। मुझे ऐसा महसूस होता था ये सब मुझसे जलते हैं। जलते हैं, इसलिए कह रहा हूं कि आप सब साधारण भाषा में इस तरह की प्रक्रियाओं को जलना-भुनना और अंदर-अंदर सड़ना कहते हैं।

लोग कहते हैं कि तुम्हें डिप्रेशन किस बात का है? दो बेटों की सरकारी नौकरी लग गयी। रानीगंज शहर में तीनतल्ला घर बना लिया। तीस हज़ार रुपये हर महीने पेंशन आ रही है। आज जो अश्वनी का दाह-संस्कार करके आ रहा हूं, क्या यह मेरे डिप्रेशन का कारण नहीं बनेगा? हर सुबह अश्वनी का मुझे फ़ोन आ जाता था और हम घंटों बातें करते। बस यही वो समय था, जब मुझे सच में ख़ुशी मिलती थी। हम दोनों की एक-दूसरे से कोई भी बात छिपी नहीं थी। जब उसने अपने बेटे की शादी की बात पक्की की, तो मुझे लड़की के बारे पता लगाने को कहा गया। लड़की रानीगंज शहर से थोड़ी दूर स्थित आसनसोल शहर की थी, जो मेरे शहर से मात्र चौदह किलोमीटर दूर है। उस शहर में मेरे कई मित्र भी थे।

फिर बातों-बातों में मित्रों से इस बात की चर्चा कर लड़की के बारे में पता लगाने को कह देता। फिर धीरे-धीरे कई मित्रों से लड़की की जानकारी मेरे पास आने लगी। किसी एक ने ग़लत कहा होता तो मान लेता लड़की ग़लत है। पर सबकी राय एक थी। लड़की दो लड़कों से प्रेमलीला कर चुकी थी। पहला प्रेम कॉलोनी के लड़के से था और दूसरी बार का प्रेम यूनिवर्सिटी में हुआ। दोनों बार प्रेम शादी की दहलीज़ तक नहीं पहुंच पाया। चूंकि पहले प्रेम के वक़्त उसकी पढ़ने की उम्र थी, सो घर में पता लगते ही भाई, पिता, मां सबने उसको ख़ूब फटकार लगायी और पास में मोबाइल रखना बंद करवा दिया। मैंने यह सोचा था कि अश्वनी को यह बात बताऊंगा। एक बार कोलकाता गया तो घर पर ख़ुशी का जो नज़ारा देखा तो कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई। शाम के वक़्त होने वाली बहू, भाभी (अश्वनी की पत्नी) से ख़ूब बातें कर रही थी। बहुत ख़ुश दिख रही थी। भाभी भी होने वाली बहू की ख़ूब तारीफ़ कर रही थी। यह सब देखकर कुछ कहने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई।

सब कुछ ठीक चल रहा था। अश्वनी का बेटा गौरव एम.ए. के बाद एक न्यूज़ एजेंसी में नौकरी पर लग गया। क़रीब तीन साल नौकरी करने के बाद गौरव नौकरी छोड़कर वापस कोलकाता आ गया और दोबारा नौकरी न करने की बात कही। वो अपना व्यवसाय करना चाहता था। बस गौरव का यह फैसला बहू को पसंद नहीं था। गौरव दो साल तक कुछ नहींं कर सका। दोनों के बीच मनमुटाव बहुत बढ़ गया था। हां! अश्विनी ने अपने मित्रों से जो आख़िरी बात कही थी, वो यह थी कि गौरव से बहुत बड़ी ग़लती हुई है। वो कौन सी ग़लती की बात कर रहे थे? सुबह-सुबह गौरव का गैस का जलाना या नौकरी का छोड़ना? आख़िरी सांस तक अश्वनी यही कहता रहा कि गौरव से ग़लती हो गयी है। अब तक भाभी किडनी की बीमारी के वजह से गुज़र चुकी थी, जिससे कुछ पता कर सकते।

उस दिन बहू सामने पलंग पर चुपचाप बैठी थी। उसे एक खरोंच तक नहींं आयी थी। घर पर इतना बड़ा हादसा हो जाये और बहू को खरोंच तक न आये। यह बात मेरे पल्ले न पड़ी। खैर! क्या आपको यही लगता है कि इस घटना को जिस तरह मैं देख रहा हूं, अगर उसी नज़र से आप भी देखें तो इस मौत का ज़िम्मेदार क्या मैं नहीं लगता?

अश्वनी को दुनिया से गये आज चार महीने हो गये हैं। बहू अश्वनी के घर पर ही रह रही है। वो उस जगह को छोड़कर नहीं गयी है। वहीं एक प्राईवेट स्कूल में नौकरी पकड़ ली है। अश्वनी की पूरी जायदाद की मालकिन अब वही है। मेरे मन में बहुत कुछ जानने की इच्छा थी। पर सच तो यह है कि मैं अश्वनी से मिल ही नहीं पाया। डॉक्टरों द्वारा उससे मिलने की मनाही थी। बेटा और बाप दोनों ही आईसीयू में थे।

मुझे दुख इस बात का है कि विदा होने से पहले मैंने भाभी को देखा था, गौरव को देखा था, लेकिन अश्वनी को देखने का मुझे अवसर ही नहीं मिला। एक तरह से यह अच्छा भी है कि उसका सौम्य चेहरा ही अभी तक मेरी आंखों में बसा हुआ है। जब तक हम लोग ज़िंदा हैं, भौतिक रूप से ही उसकी विदाई हुई है। वह हमारी स्मृतियों से दूर जा ही नहीं सकता। कैसे उसे विदाई दे दूं?

विक्रम सिंह., vikram singh

विक्रम सिंह

शिक्षा से इंजीनियर, पेशे से फ़िल्मकार और अभिनेता और प्रकृति से लेखक हैं विक्रम सिंह। देश भर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। "और कितने टुकड़े" कहानी संग्रह है, "अपना ख़ून", "लक्खा सिंह", "मऊ जंक्शन" (इसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशनाधीन) प्रकाशित उपन्यास हैं। फ़िल्म निर्माण, लेखन और अभिनय में लगातार सक्रियता। "पसंद-नापसंद", "वजह" आदि शॉट फ़िल्में चर्चित। अनेक फ़िल्मोत्सवों में पुरस्कृत भी।

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