
- July 17, 2025
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अकेला होना और अकेलापन
कैंसर डायरी
जुलाई-अगस्त 2021
अकेला होना और अकेलापन, दोनों भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं, अकेले होते हुए भी इंसान अकेला नहीं होता, क्योंकि इस स्थिति में वह बहुत-सी स्मृतियों और कल्पनाओं से घिरा होता है। यदि बचपन से ही स्मृतियों के स्वाद को स्वीकार करना आ जाये तो अकेलापन भी मधुर लगता है। फिर भी करोना काल के दुर्भाग्यपूर्ण लॉकडाउन ने कुछ ज़्यादा ही अकेला किया, या फिर कहा जाये तो अकेलेपन से भयभीत कर दिया। जिस तरह अस्पताल के वार्डों में अकेले पड़े रोगियों की मौतें हो रही थीं, उसने अकेलेपन को सीधे-सीधे मृत्यु से जोड़ दिया।
इस डर से बचने के लिए इसी काल में फ़ेसबुक लाइव की परंपरा शुरू हो गयी और आभासी कार्यक्रम शुरू हुए। कृत्या ने भी अपना फ़ेस्टिवल आरंभ किया। इस तरह उस अवसाद भरे समय को भरने की कोशिश होने लगी। फिर तो समय की चादर छोटी पड़ने लगी। कार्यक्रम की सफलता से हिम्मत बढ़ी, तो कृत्या टॉक के नाम पर हर सप्ताह विभिन्न साहित्यकारों, कलाकारों, जानकारों से संवाद आरंभ कर दिया। व्यस्तता के बीच देह की आवाज़ को आराम से नकार दिया।
देह एक पूरा ब्रह्माण्ड है, जो बिल्कुल अपनी मन मर्ज़ी से चलता है। उसके सभी चक्रों में आपसी संवाद रहता है, जब कभी एक-आध चक्र लड़खड़ाता है तो अन्य भी उसके साथ रुक जाते हैं। देह अलग-अलग तरीक़ों से विरोध जताती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा, कंधा उतर गया या फिर कुछ और। एक दिन काम करो तो दूसरे दिन उठने की ताक़त भी नहीं। घर का काम भी ख़ासी मेहनत मांगता है।
देह मेरी अभिव्यक्ति
देह मेरी आत्मतृप्ति
यही जीवन याग की अर्चित ऋचा
देह राग द्वेष की अनूदित कविता
अथर्व से लेकर आज तक
चिकित्सकों के मन का राग
देह नहीं चाम का विकास
अपितु मन का अभिराम
पूरा साल बीत गया। 2021 आ पहुंचा, करोना से छुटकारा नहीं, फिर से कृत्या फेस्टिवल की रूपरेखा बनायी। इस बार दस दिन का कार्यक्रम था, क़रीब दो सत्र रोज़ाना, क़रीब 150 वैश्विक कवियों को आमंत्रण दिया था। 2021 में कृत्या फेस्टिवल के लिए विशिष्ट कवियों को आमंत्रित करने के तुरन्त उपरांत कमर के दाईं ओर बेहद तेज़ दर्द शुरू हुआ। मुझे दर्द को पीते हुए काम करने की आदत है। सोचा कि आर्थराइटिस का दर्द होगा। लेकिन दो-चार दिन में कमर पर छाला सा महसूस हुआ, तब समझ में आया कि बीमारी तो कुछ और है। छाले के कारण त्वचा विशेषज्ञ को दिखलाना ज़रूरी था, अन्यथा “इसरो” के क्लीनिक में जाना बन्द ही था, केवल फ़ोन से ही दवा पूछी जा रही थी। पता चला कि दर्द हरपीस की देन है। दवाइयां वक़्त पर आरंभ हो गयीं।
हर कठिनाई अपने साथ एक आशीर्वाद भी लाती है। अब लाइब्रेरी मेरा अड्डा बन गयी, वहीं सोना, वहीं खाना, वहीं रहना। मेरा पूरा वक़्त कृत्या फेस्टिवल के लिए लगने लगा। नयी टीम बनायी, उन्हें रातो-रात तैयार किया। बड़ी शिद्दत से कार्यक्रम संपूर्ण किया। इस तरह फेस्टिवल बड़ी सफलता से बीत गया क्योंकि सिवाय कृत्या के काम के कोई और काम था ही नहीं। फेसिटवल होते-होते फिर यूटीआई की समस्या खड़ी हो गयी। देह बहुत बोलती है, तरह-तरह से जताने की कोशिश करती है कि बहुत हो गया, अब मुझे मत दुत्कारो। तकलीफ़ की कविता महाकाव्य बनने के कगार पर आ गयी थी, तमाम परहेज़ और देखभाल के बावजूद लगातार देह लगातार सींझ रही थी। रक्तचाप समन्दर की लहरों की तरह उठने-गिरने लगा, न काढ़ा पिया न फालतू के उपचार किये, लेकिन भूख एसिडिटी की गोली के बिना फटकने में भी डरने लगी। किसी दिन बिस्तरे से उठने का भी मन नहीं होता, तो किसी दिन सब कुछ ठीक रहता।
इसरो की बहुत अफ़ीशियेन्स क्लीनिक मानो सरकारी दवाख़ाना बन गयी है, हर बीमारी के लिए दो चार गोलियां दे दो बस। सबसे पहले एक युवा डाक्टर ने कहा कि संभवतया यूट्रस प्रॉब्लम हो सकती है, उम्रदराज़ महिलाओं को अधिकतर यह समस्या होती है। अल्ट्रा साउण्ड करवाना उचित होगा, लेकिन उससे पहले दस दिन के एण्टीबायटिक्स लेकर देखें। दस दिन तक वह समस्या जस की तस, फिर से क्लीनिक गयी तो वह युवा डॉक्टर छुट्टी पर थी। अन्य डाक्टर ने कल्चर करवा दिया, और पन्द्रह दिन की गोलियां फिर से मिल गयीं। महीने भर के बाद भी जब तकलीफ़ नहीं गयी, फिर से क्लीनिक जाने पर वे ही युवा डाक्टर मिलीं, जो सबसे पहले मिली थीं। उनका छोटा-सा एक्सीडेन्ट हो गया था, इसलिए छुट्टी पर थीं। उन्होंने तुरन्त अल्ट्रासाउण्ड के लिए भेजा। उसी दिन से ब्लेडर के भीतर छिपे बैठी गांठ का पता चला। डॉक्टर ने तुरन्त यूरोलाजिस्ट से मिलने की सलाह दी।
शहर के यूरोलाजिस्टों की सूची खंगाली गयी। सबसे ऊपर कास्मोपॉलिटन अस्पताल का नाम आया। अगले दिन शुक्रवार, यूरोलोजी के लिए प्रसिद्ध अस्पताल कास्मोपॉलिटन में अपॉइंटमेन्ट लिया गया। यहां मैं यूटीआई की समस्या लेकर 2016 में डॉ. सुकुमार के पास गयी थी। उस वक़्त बीमारी समझ नहीं आयी। मुझे अब आश्चर्य होता है कि तब अल्ट्रा साउंड क्यों नहीं किया गया। दरअसल ब्लेडर का कैंसर सिगरेट पीने वाले पुरुषों को होता है, महिलाओं में अक्सर नहीं, यह मेडिकल मान्यता है, शायद यही कारण होगा कि इस ओर किसी भी डॉक्टर का ध्यान नहीं गया, लेकिन क्या विज्ञान को भी सिर्फ़ मान्यता पर विश्वास कर लेना चाहिए?
इस बार भी मैं डॉ. सुकुमार के पास पहुंची। रिपोर्ट हाथ में थी ही। उन्होंने अपने मित्र डॉक्टर जायस ज्योतिष के पास सैकिंड ओपिनियन के लिए भेज दिया, जो उसी अस्पताल में सीनियर सर्जन थे। दोनों की सलाह अगले दिन भर्ती, सोमवार को सर्जरी का निर्णय लिया।
डॉक्टर जायस अनुभवी थे, देखते ही बीमारी समझ में आयी। कहने लगे कि सबसे पहले सर्जरी करनी है, आप करोना का टेस्ट करके ही घर जाइए, कल सुबह ही भर्ती हो जाएं, जिससे सारे टेस्ट हो जाएं, हम सोमवार को सर्जरी कर देंगे, लेकिन इस तरह की गांठ मलाइन होती हैं, यह समझकर रखिए, हालांकि बायोप्सी के बाद सही सूरत पता चलेगी। गांठ कुछ सेन्टीमीटर की है, लेकिन कैंसर तो है ही।
पता नहीं क्यो मैं अचंभित नहीं हुई। मुझे हमेशा देह के भीतर का ब्रह्मांड चकित करता रहता है, कभी-कभी तो लगता है कि देह मुझसे अलग ही कोई संस्था है, जो मुझे चलाती है, न कि मैं उसे। हालांकि हम दोनों में खींचा-तानी हमेशा चलती रहती है। ना जाने किस गोलक का पहिया जाम हो जाये, न जाने कहां कोई बीमारी दबी बैठी हो, वैसे भी पूरे एक साल में वे सारी बीमारियां पास चली आयी थीं, जिनके अभाव को मैं बड़े अहंकार से देखती थी। देह कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, लेकिन हम सुनते ही कहां है?
“डॉक्टर, मैं बेड पर नलियों के साथ नहीं मरना चाहती हूं, यदि सुधार की गुंजाइश हो तो सर्जरी कीजिए, नहीं तो मुझे इस राजसी बीमारी के साथ आराम से विदा होने दें।” मैंने डॉक्टर से कहा।
डॉक्टर हंस दिये, उन्हें ऐसा रोगी कब मिला होगा? उन्होंने कहा- “मुझे लगता है कि सुधार की गुंजाइश है, सर्जरी तो करवा लीजिए।”
पता ही नहीं चला कि कब चलते-चलते नियति ने प्रकृति से कहा, बस और नहीं। क़दम भी अकबका कर रुकने लगे। सरपट गति लाठी का सहारा मांगने लगी। दिमाग़ ने कहा, जो देह कहती है, उसे सुनो, जब तक देह है, तुम्हारा अस्तित्व ही तब तक है, जब तक वह है, लेकिन मन हिसाब लगाने लगा कि क्या चाहनाएं थीं, क्या पूरी हुईं, क्या रह गयीं। जितनी रह गयीं, उनकी औकात भी थी?
नहीं, औकात तो नहीं थी बहुत कुछ करने की, जैसे कि छमछमा कर नाचने की, कभी पैरों में ताल बंधी ही नहीं। खुलकर गाने की, सुर कोसों दूर भागते थे, लेकिन जो संभव था, जैसे सितार वादन, उसे ख़ुद ने खो दिया।
कभी लगा कि तीस बरस बाद जन्म लिया होता तो वह सब कुछ पाया जा सकता था, जो चाहना थी। लेकिन दिमाग़ धिक्कार देता है कि उतनी हिम्मत कभी रही है। एक फ़िल्म तो एक बार में देख नहीं पाती, बार-बार बन्द करके समस्याओं से घिरे दृश्यों के बीतने के बाद खोलती हो, तो ज़िन्दगी की फ़िल्म पूरी कैसे चल पाती?
सही तो है, हिम्मत चाहिए, हर काम के लिए हिम्मत। लेकिन सोचो कि क्या पा लिया? कुछ तो पाया ही है। मुट्ठी भर ही सही, एक गुमनाम द्वीप में बैठ कर अनामी-सी ज़िन्दगी जिये, बिना किसी ख़ास लालसा के जो पाया वह कम नहीं है। जो पाया, उसे मुट्ठी खोल कर बिखेर दो, जब वे अंकुर बन कर फूटेंगे, उसके बीज किसी न किसी के हिस्से में चले जाएंगे, फिर क्या तुम्हारा, क्या उसका?
सिर्फ़ कर्म जीने चाहिए, शब्द अर्थ नहीं खोने चाहिए, और क्या चाहिए दो टके की ज़िन्दगी से?
डॉक्टर से मिलते ही घर में धमाका हो गया, ख़ास तौर से बेटियों के लिए। करोना काल, दोनों विदेश में। मेरे पास आने के लिए वीज़ा मिलना भी मुश्किल है। हालांकि उनकी अपनी नौकरी और बच्चों की समस्या अलग बात है। मैंने एक बात का ध्यान रखा कि रिश्तेदारों और दफ़्तर के मित्रों को सूचना नहीं दी, सिवाय मेरी अपनी बहनों के। क्योंकि हमारे यहां डॉक्टर के अलावा हर कोई डॉक्टर होता है, हर कोई अपने-अपने इलाज के साथ हाज़िर हो जाता है। मेरा विचार यह रहा है कि जहां चाकू की ज़रूरत होती है, वहां चाकू ही चाहिए। वैसे भी यह मेरी आठवीं सर्जरी है। रोगों और देह दर्दों से मेरी दोस्ती बहुत पहले से आरंभ हो गयी थी। देह राणा सांगा की वशंज बनने लगी है।
मुझे अपने अधूरे लेखन की चिन्ता है, कविताओं का तो कुछ नहीं, कहीं भी बिखरी रहेंगी, कुछ माटी में मिल जाएंगी, हो सकता है कुछ फिर अंकुर बन उग जाएं, कहीं भी, किसी भी देश में, लेकिन जो यात्राओं की इबारतें हैं, जिन्हें मैंने जिया है, वे तो मेरे साथ ही भस्म हो जाएंगी।
क्या है यह गांठ?
क्या मेरे मन में पल रही दमित इच्छाएं हैं? क्या अनपहचानी-अनजानी शाप-गाथाएं हैं? कहां से प्रवेश कर जाते हैं शत्रु, इस देह में? ये शत्रु ही हैं, अथवा देह के अपने हैं? न जाने कितने सवाल मन में उमड़ते हैं।
मां कहा करती थी, इस लड़की के जन्म से पहले मुझे पेट भर बढ़िया खाना मिला, फिर भी यह हमेशा रोगी रहती है! दूसरी बहनों की अपेक्षा क़द कम, उनके हिसाब से सौंदर्य भी कम। शायद तभी विवाह भी मानो लड़की बाहर निकालो खाना पूर्ति के लिए कर दिया गया। अपने ही देश में दूर फेंक दिया गया। नहीं, होता ही यही था, उस ज़माने में, अपना बचपन इतिहास की वस्तु बनता लग रहा है।
मरुस्थल से सीधे समंदर तक का सफ़र, बेहद जटिल रहा था, सत्तर के दशक में। ख़ास तौर से मेरी जैसी आकाश को संवारने की हसरत रखने वाली लड़की के लिए। काफी वक़्त तक मुझे समंदर मरुस्थल सा लगता रहा। कितना कुछ छूट जाता है न, हवा की ख़ुशबू से लेकर दरख़्तों का बतियाना तक। दोस्ती के कहकहों से लेकर किताबों में छिपी कहानियां। लेकिन मैंने बचपन से लड़ना सीखा है। अपने लिए हमेशा से खिड़कियां खोलीं, सातवीं क्लास से टाट-पट्टी वाले स्कूलों में डाल दी गयी, लेकिन मैं हमेशा अपने हिस्से का आसमान खोज ही लेती थी।
देश में ही इतने दूर फेंक दिये जाने के बावजूद भी क़रीब पन्द्रह साल जूझती रही कि अपना ही नहीं बेटियों के हिस्से का आसमान भी खोज लूं, हां इस क्रम में बहुत कुछ सीझ गयी। बहुत कुछ बीत गया, लेकिन एक हिंसक क्रूरता ने न जाने कब दुबककर प्रवेश कर लिया देह में। यह वह काल था जब सच और झूठ का भेद मेरे लिए ख़त्म हो गया।
प्रकृति चक्रबद्ध
नियति चक्रबद्ध
अन्तरिक्ष अथवा व्योम
चक्रबद्ध, नियमबद्ध
देह की क्या बिसात
कोष कोष नियमबद्ध
मैं उड़ाती रही धज्जियां
चक्रधर नियमों की
मोह में, प्रेम में
गतिशील, प्रगतिशील
चक्र पर सवार होने की आकांक्षा
साथ चलने की कदापि नहीं
सड़क के कुत्तों से घिरी बिल्ली को देखा है कभी, अपने भीतर के भय को दबाती हुई अपने रोंगटे खड़ी कर लेती है, और ज़ोर से गुर्राने लगती है। बेहद डरा इंसान भी कुछ ऐसा ही करता है, लोग उसका गुर्राना सुनते हैं, भीतर दुबककर बैठे डर को नहीं देख पाते।
कहीं यह गांठ उसी का परिणाम तो नहीं?
(यह पुस्तक अंश रति सक्सेना लिखित कैंसर डायरी ‘आईसीयू में ताओ’ से, आब-ओ-हवा के लिए विशेष रूप से प्राप्त। कलाकार संजू पाल कृत चित्र deh dgaran शीर्षक से।)

रति सक्सेना
लेखक, कवि, अनुवादक, संपादक और वैदिक स्कॉलर के रूप में रति सक्सेना ख्याति अर्जित कर चुकी हैं। व्याख्याता और प्राध्यापक रह चुकीं रति सक्सेना कृत कविताओं, आलोचना/शोध, यात्रा वृत्तांत, अनुवाद, संस्मरण आदि पर आधारित दर्जनों पुस्तकें और शोध पत्र प्रकाशित हैं। अनेक देशों की अनेक यात्राएं, अंतरराष्ट्रीय कविता आंदोलनों में शिरकत और कई महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान आपके नाम हैं।
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