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लखनऊ स्कूल की अमर यादगार

“शेर-ओ-शायरी के जिन पहलुओं के ऐतबार से लखनऊ बदनाम है, गुलज़ार-ए-नसीम ने उन्हीं पहलुओं से लखनऊ का नाम ऊंचा किया है। ज़बान को शायरी और शायरी को ज़बान बना देना कोई आसान काम नहीं।” -रशीद अहमद सिद्दीक़ी

उर्दू शायरी की बहुत-सी लोकप्रिय विधाएं हैं जैसे ग़ज़ल, नज़्म, क़सीदा, मर्सिया और मसनवी आदि। हर विधा में कई शाहकार हैं। उल्लेखनीय है कि उर्दू की दास्तानी मसनवियों में सबसे प्रसिद्ध दो ही मानी जाती हैं. मीर हसन की “सेहरुल बयान” और पंडित दयाशंकर नसीम की “गुलज़ार-ए-नसीम”।

वैसे तो मसनवी “गुलज़ार-ए-नसीम” की कहानी पण्डित दयाशंकर नसीम की स्वरचित नहीं है। इसे पहले इज़्ज़त अल्लाह बंगाली ने 1722 में फ़ारसी गद्य में “क़िस्सा-ए-गुल बकाऊली” के नाम से लिखा था। चूँकि उसके अंदर ‘हिंद-ईरानी’ (आम भाषा में हिंदू-मुस्लिम) साझा सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का बार-बार उल्लेख मिलता है, जिसकी महत्ता को गिलक्रिस्ट ने महसूस किया। उसकी फ़र्माइश पर मुंशी निहालचंद लाहौरी ने फ़ारसी के इस क़िस्से को उर्दू गद्य में 1803 में “मज़हब-ए-इश्क़” के नाम से अनुवाद किया। 1839 में “नसीम” लखनवी ने उसे मसनवी विधा में पेश किया। 1905 में पं. बृजनारायण चकबस्त ने इसका एक सुंदर संस्करण प्रकाशित किया, जिसमें एक विस्तृत भूमिका भी लिखी। कहानी के ताल्लुक़ से “नसीम” ख़ुद कहते हैं:
“अफ़साना गुल बकाऊली का/अफ़्सूँ हो बहार-ए-आशिक़ी का/हर-चंद सुना गया है इस को/ उर्दू की ज़बान में सुख़न-गो/वो नस्र है, दाद-ए-नज़्म दूं मैं/इस मय को दो आतिशा करूँ मैं”

इसमें गुल बकाऊली का क़िस्सा है और भारतीय पृष्ठ-भूमि। मगर दूसरी भाषाओं की दास्तानों जैसे अल्फ़ लैला और भारतीय मायावी कथाओं वग़ैरा के तत्व भी हैं। चूँकि दास्तान बिलकुल काल्पनिक, तिलस्माती और पेचीदा है, इसे पेश करने के लिए “नसीम” ने शब्दों के चयन, प्रस्तुति के ढंग एवं अनूठे भाषाई कौशल से इसे अद्भुत बना दिया है। कहते हैं शुरू में ये बहुत लंबी मसनवी थी। इस्लाह के लिए जब उस्ताज़ (उस्ताद) “आतिश” को उन्होंने पांडुलिपि दी, तो उन्होंने इसे इतना संक्षिप्त करने को कहा कि एक बैठक में लोग पढ़ सकें। लिहाज़ा नसीम ने ऐसा ही किया। इस मसनवी की बहर भी अलग चुनी।

इस मसनवी को लखनऊ स्कूल का अहम कारनामा माना जाता है। ये इश्क़िया मसनवी है। इसके ख़ास किरदार हैं ताज-उल-मलूक और बकाऊली। इनके इलावा ज़ैन-उल-मलूक वो बादशाह था, जिसे ज्योतिषियों ने बताया था कि अगर वो अपने पांचवें बेटे यानी ताज-उल-मलूक को देख लेगा तो इसकी आँखों की रोशनी जाती रहेगी। इत्तिफ़ाक़न ऐसा हो जाता है और बादशाह अंधा हो जाता है जिसका इलाज परियों के देश के बाग़-ए-बकाऊली के एक फूल का रजकण था। इस फूल को हासिल करने की दिलचस्प कहानी शुरू होती है। माहौल रहस्यमयी और जादुई है। फंतासी भरी कहानी है। इन्सान, जिन्नात, परियों, देवों, जादू का शहर, भेस बदलना, इन्सान से जानवर या परिंदा बनना जैसे प्रसंग हैं।

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गुलज़ार-ए-नसीम के क़िस्से का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। फ़्रांसीसी ज़बान में इसका अनुवाद DOCTRINE DEL AMOOR नाम से हुआ। कुछ लोगों का कहना है कहानी नर्मदा नदी के किनारे बसे किसी राज्य की है। नसीम ने सिर्फ़ 32 बरस की उम्र पायी। 1843 मैं बैकुंठ निवासी हो गये, मगर एक ऐसा अनमोल तोहफ़ा छोड़ गये जिसकी वजह से उर्दू अदब में हमेशा ज़िंदा रहेंगे और उनकी वजह से मसनवी विधा भी।

पण्डित दया शंकर “नसीम”
1811 में लखनऊ में पैदा हुए। पिता का नाम पण्डित गंगा प्रशाद कौल था। पूर्वज कश्मीर से आकर लखनऊ में बस गये थे। ग़ाज़ीउद्दीन हैदर और नसीरउद्दीन हैदर नवाबों का दौर था। लखनऊ में हर तरफ़ ख़ुशहाली थी। नसीम के उस्ताद ख़्वाजा हैदर अली “आतिश” थे। शुरूआत ग़ज़लों से की लेकिन जल्द ही मसनवी पर केंद्रित हो गये। इनकी दूसरी किताब है “दीवान-ए-नसीम” जिसमें 50 से कम मुकम्मल और ना-मुकम्मल ग़ज़लें हैं। इनका बहुत प्रसिद्ध शेर है-
लाये उस बुत को इल्तिजा करके
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके

azam

डॉक्टर मो. आज़म

बीयूएमएस में गोल्ड मे​डलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।

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